भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही को केवल इसलिए अमान्य नहीं ठहराया जा सकता कि खरीदार को नोटिस नहीं जारी किया गया थाः बॉम्‍बे हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

18 Feb 2020 7:53 AM GMT

  • भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही को केवल इसलिए अमान्य नहीं ठहराया जा सकता कि खरीदार को नोटिस नहीं जारी किया गया थाः बॉम्‍बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने पिछले सोमवार को एक फैसले में कहा कि भूमि अधिग्रहण कानून के तहत कार्यवाही को केवल इसलिए अमान्य नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि संपत्ति के नए खरीदार को नोटिस जारी नहीं किया गया था, जिसका नाम राजस्व रिकॉर्ड में आया नहीं था।

    जस्टिस साधना एस जाधव ने जिला न्यायाधीश, कोल्हापुर के फैसले के खिलाफ महाराष्ट्र सरकार की दूसरी अपील सुनी थी। जिला न्यायाधीश, कोल्हापुर के फैसले में मूल वादी की अपील को अनुमति दी गई थी और यह माना गया था कि राज्य का अधिग्रहण वैध नहीं है, क्योंकि भूमि पर महाराष्ट्र निजी वन (अधिग्रहण) अधिनियम, 1975 की धारा 22 ए के तहत प्रतिबंध लागू होता है, क्योंकि अधिग्रहित की गई थी भूमि 12 हेक्टेयर से कम थी।

    कोर्ट ने पाया कि अपीलीय अदालत ने भूमि अधिग्रहण कानून के तहत मुकदमा चलाकर अपने अधिकार क्षेत्र से आगे बढ़ गई थी।

    जस्टिस जाधव ने कानून के दो मूल प्रश्नों का परीक्षण किया और उत्तर दिया।

    उन्होंने कहा-

    1) क्या भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत संपत्ति का अधिग्रहण, खरीदार को नोटिस देने में हुई विफलता के कारण, जिसका नाम रेवेन्यू रिकॉर्ड्स में दिखाया नहीं गया है, नुकसान करना कहा जा सकता है।

    2) क्या भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत पारित आदेश को चुनौती देने वाला सिविल सूट पोषणीय है?

    केस की पृष्ठभूमि

    15 अप्रैल, 1982 को सूर्यकांत राणे (मृत्यु हो चुकी है) ने एक सिविल मुकदमा दायर किया, जिसमें घोषणा करने की मांग की गई थी कि मौजे शेपावड़ी, तालुका गगनबावड़ा, जिला कोल्हापुर में स्थित भूमि का अधिग्रहण और आदेश 16 नवंबर, 1978 को पारित किया गया और भूमि का अधिग्रहण अवैध है। इस आधार पर कि वादी को कोई नोटिस नहीं दिया गया, जबकि वह 27 जनवरी, 1975 को पंजीकृत एक सेल डीड के आधार पर उक्त संपत्ति का खरीददार था। वाद में दलील दी गई थी कि वादी को कलेक्टर ने 1 जुलाई, 1981 को अतिक्रमण का नोटिस भेजा, इसलिए, उन्हें संपत्ति के मालिक के रूप में यह मांग करते हुए मुकदमा दायर करने के लिए विवश होना पड़ा कि उन्हें संपत्त‌ि का मालिक घोषित किया जाए। वादी ने शाश्वत निषेधाज्ञा की प्रार्थना भी की थी।

    वादी ने मुकदमे में शामिल संपत्त‌ि रघुनाथ धवलिकर (जो वादी द्वारा दायर नियमित दीवानी मुकदमे में चौ‌था प्रतिवादी है) से खरीदी है। धवलिकर को राजस्व अभिलेखों में कब्‍जेदार के रूप में दिखाया गया था, इसलिए धवलिकर को नोटिस जारी किया गया था, जिसने 16 नवंबर, 1978 को पारित आदेशा के आधार पर उक्त भूमि के अधिग्रहण का मुआवजा लिया था।

    रिकॉर्ड पर यह बात भी थी कि धवलिकर ने उक्त संपत्ति को एक पंजीकृत सेल डीड के जरिए खरीदा था और संपत्ति को वादी को बेच दिया था। कोर्ट ने पाया कि वादी का नाम जनवरी, 1980 तक राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज नहीं किया गया था। एंट्री नंबर 365 को म्यूटेशन रिकॉर्ड में 3 जनवरी, 1980 को लिया गया था, अर्थात अधिग्रहण का आदेश पारित होने के डेढ़ साल से ज्यादा समय के बाद।

    न्यायालय ने उक्त मुकदमे को पहले इस आधार पर खारिज कर दिया था कि सरकारी अधिकारियों के पास यह जानने का कोई कारण नहीं था कि संपत्त‌ि का स्वामित्व सेल डीड के जरिए वादी को सौंपा जा चुका था, चूंकि सरकार ने राजस्व रिकॉर्ड की निरीक्षण किया था और उस व्यक्ति को नोटिस जारी किया था, जिसके पर भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 4 के तहत नोटिस जारी करने के समय उक्त जमीन पर कब्जा था।

    इसलिए सिविल जज, सीनियर डिवीजन, कोल्हापुर ने 2 मार्च, 1988 को दिए अपने फैसले में देखा कि मुकदमे में धवलीकर के खिलाफ कोई दावा नहीं हैं, जबकि उसने वास्तव में सरकार से मुआवजा लियाा था, और वह भी सरकार की नोटिस में बिना यह लाए कि उक्त संपत्ति को वह वादी को बेच चुका है।

    2 मार्च, 1988 के फैसले के बाद वादी ने उसी वर्ष कोल्हापुर के जिला न्यायाधीश के समक्ष अपील दायर की थी। अपीलीय अदालत ने पाया कि सिविल जज, सीनियर डिवीजन, कोल्हापुर का फैसला इस आधार पर रद्द किया जाना चाहिए कि इस तथ्य को अवैध और अनुचित वजन दिया गया है कि अध‌िग्रहण की कार्यवाही के समय अपीलकर्ता का नाम गांव के रिकॉर्ड में दर्ज नहीं था।

    उपरोक्त फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय में अपील दायर की।

    निर्णय

    सरकार की ओर से पेश एजीपी वाईवाई दाबड़े ने लक्ष्मी चंद बनाम ग्राम पंचायत, कररिया के मामले में दिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें भूमि अधिग्रहण कानून के मामलों पर दीवानी न्यायालय के क्षेत्राधिकार के संबंध में निम्नलिखित टिप्पणियां की गई थीं-

    "इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि अधिनियम की योजना अपने आप में पूर्ण है और इस प्रकार, सिविल न्यायालय का अधिकार क्षेत्र अधिनियम के तहत आने वाले मामलों का संज्ञान लेने के लिए, आवश्यक निहितार्थ द्वारा, वर्जित है। सिविल न्यायालय के पास इस प्रकार अधिनियम के तहत विचार की गई प्रक्रिया को अमान्यता ठहराने का अधिकार नहीं है।"

    दादू राम पाटिल व अन्य बनाम बनाम बापू कृष्ण कुराने [(मृत्यु हो चुकी है), कानूनी उत्तराधिकारियों सुगाना बापू कुराने व अन्य के माध्यम से] के मामले में हाईकोर्ट के फैसले पर भी भरोसा किया गया।

    न्यायालय के समक्ष रखी गई सभी सामग्रियों और तर्कों पर विचार करने के बाद जस्टिस जाधव ने कहा-

    "उपरोक्त टिप्पणियों के मद्देनजर, यह कहा जा सकता है कि अधिग्रहण की कार्यवाही को अमान्य नहीं ठहराया जा सकता, वह भी केवल इसलिए कि वादी को नोटिस जारी नहीं किया गया था। प्रतिवादी नंबर 4 की जिम्‍मेदारी थी कि वह सरकार के ध्यान में यह लाए कि उसने 1975 में वादी को जमीन बेच दी थी।

    आगे यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि वादी ने प्रतिवादी नंबर 4 के खिलाफ कोई दावा नहीं किया है, जबकि वह पूरी तरह से जानते थे कि प्रतिवादी नंबर 4 को मुआवजा मिला था। इसलिए यह माना जाना चाहिए कि अधिग्रहण की कार्यवाही कानून के अनुसार थी और उसे अमान्य नहीं ठहराया जा सकता है।"

    न्यायालय ने नोट किया कि यह मुकदमा पोषणीय नहीं है, अपीलीय अदालत के पास भी निचली अदालत के फैसले को रद्द करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि यह उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। इस प्रकार, कोर्ट ने दूसरी अपील को अनुमति दी और 31 साल पहले पारित अपीलीय अदालत के आदेश को रद्द कर दिया।

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