जब विवाद दीवानी प्रकृति का हो तो शिकायत दर्ज कराने के लिए पुलिस पर 'कर्तव्य के उल्लंघन' का आरोप लगाते हुए रिट क्षेत्राधिकार लागू करने की मांग की केरल हाईकोर्ट ने की निंदा

LiveLaw News Network

21 Nov 2022 6:07 AM GMT

  • जब विवाद दीवानी प्रकृति का हो तो शिकायत दर्ज कराने के लिए पुलिस पर कर्तव्य के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए रिट क्षेत्राधिकार लागू करने की मांग की केरल हाईकोर्ट ने की निंदा

    केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने मंगलवार को व्यवस्था दी कि अवैध बेदखली/अनधिकृत प्रवेश के खतरे को दीवानी अदालत में जाकर दूर किया जा सकता है। इसने आगे कहा कि पुलिस सुरक्षा की मांग करने वाले ऐसे मामलों में हाईकोर्ट के रिट क्षेत्राधिकार को लागू नहीं किया जा सकता है, जब बुनियादी तथ्य भी विवादित हों और दावा किए गए अधिकारों को संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत सारांश कार्यवाही में स्थापित न किया जा सके।

    जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस सी. जयचंद्रन की एक खंडपीठ एक मकान मालिक द्वारा दायर रिट अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें एकल पीठ के आदेश के खिलाफ किरायेदार द्वारा दायर एक रिट याचिका में अनधिकृत प्रवेश का आरोप लगाया गया था और अवैध बेदखली के खिलाफ पुलिस सुरक्षा की मांग की गई थी।

    अपनी याचिका में किरायेदार ने उसकी शिकायत पर पुलिस प्रमुख को कार्रवाई करने और मकान मालिक के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने का निर्देश देने की भी मांग की थी। एकल पीठ द्वारा इस संबंध में दी गई राहत को रद्द करते हुए हाईकोर्ट ने कहा,

    " एक बार जब मामला- विशुद्ध और सामान्य रूप से- दीवानी प्रकृति का हो जाता है – तो पुलिस के समक्ष शिकायत दर्ज कराने और उसकी ओर से निष्क्रियता का आरोप लगाकर मामले की प्रकृति और चरित्र को नहीं बदला जा सकता है, ताकि रिट परमादेश जारी करने के उद्देश्य से पुलिस द्वारा कर्तव्य के उल्लंघन की तस्वीर पेश की जा सके। इसके अलावा, अगर याचिकाकर्ता की शिकायत पांचवें प्रतिवादी द्वारा उसके खिलाफ किए गए अपराध के आधार पर प्राथमिकी दर्ज करके आपराधिक कानून को गति देने में पुलिस की निष्क्रियता है, तो उसका उपाय सीआरपीसी की धारा 156 (3) या धारा 190 के तहत है। किसी भी स्थिति में कथित अनधिकृत प्रवेश को बिना सिविल कोर्ट का सहारा लिये पुलिस के सहयोग से हटाया नहीं जा सकता है, खासकर तब जब विवादित प्रश्न यह हो कि क्या यह अनधिकृत प्रवेश का मामला है भी या नहीं।"

    किरायेदार (यहां पहला प्रतिवादी) पांचवें प्रतिवादी (यहां अपीलकर्ता) से किराये पर ली गई इमारत में एक रेस्तरां चलाता था। याचिकाकर्ता के पास निगम द्वारा जारी लाइसेंस के साथ-साथ केरल राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी संचालन की सहमति भी थी।

    उसने दावा किया कि जब वह बीमार था और रेस्तरां का संचालन नहीं कर सकता था, तब पांचवें प्रतिवादी ने इस परिसर में प्रवेश किया और फर्नीचर और अन्य मूल्यवान फिटिंग को हटा दिया। याचिकाकर्ता ने दावा किया कि इस बारे में पता चलने के बाद जब वह रेस्तरां परिसर में गया तो मकान मालिक ने उसके साथ मारपीट की।

    पांचवें प्रतिवादी ने अपने जवाबी हलफनामे में कहा था कि याचिकाकर्ता ने किराये के समझौते को खुद रद्द कर दिया था, क्योंकि वह किराये का भुगतान करने की स्थिति में नहीं था। याचिकाकर्ता/किरायेदार द्वारा चौथे प्रतिवादी- निगम के सचिव- को लाइसेंस रद्द करने की मांग करने वाला पत्र भी इस संबंध में प्रस्तुत किया गया था, और यह दावा किया गया था कि 3,00,000/- रुपये का बकाया भी याचिकाकर्ता को देना था। किराये की सिक्यूरिटी के तौर पर याचिकाकर्ता के होटल के कुछ फिक्स्चर मकान मालिक के पास रखे गए थे।

    सिंगल बेंच का फैसला

    एकल न्यायाधीश ने पाया था कि जब तक किरायेदारी जारी रहती है, तब तक एक मकान मालिक केरल भवन (पट्टा और किराया नियंत्रण) अधिनियम की धारा 11 के तहत सक्षम प्राधिकारी द्वारा विधिवत पारित आदेश द्वारा ही बेदखली की मांग कर सकता है। याचिका को इस प्रकार एकल न्यायाधीश द्वारा अनुमति दी गई थी, और निष्कर्ष दिया गया था कि कानून का सहारा लिये बिना एक 'समरी एविक्शन' अस्थिर थी।

    डिवीजन बेंच के निष्कर्ष

    मकान मालिक की ओर से पेश अधिवक्ता सी. धीरज राजन और आनंद कल्याणकृष्णन ने दलील दी कि एकल न्यायाधीश का फैसला गलत था, क्योंकि जहां तथ्य विवादित हों, वहां संविधान के अनुच्छेद 226 का इस्तेमाल करके पुलिस सुरक्षा के लिए आदेश नहीं मांगा जा सकता है, बल्कि उक्त उपाय दीवानी अदालत के समक्ष होगा।

    दूसरी ओर याचिकाकर्ता किरायेदार की ओर से एडवोकेट अलेक्जेंडर जोसेफ द्वारा यह दलील दी गई थी कि एकल न्यायाधीश ने केवल अपीलकर्ता/पांचवें प्रतिवादी की मनमानी कार्रवाई से सुरक्षा प्रदान की थी, क्योंकि उनके सामने भी कानूनी रास्ते खुले थे। यह आगे बताया गया कि न तो जिला पुलिस प्रमुख और न ही पुलिस निरीक्षक (उत्तरदाता 3 और 4 क्रमशः) ने उन शिकायतों पर उचित कार्रवाई की थी, जो याचिकाकर्ता द्वारा उनके समक्ष दर्ज कराई गई थीं, और इसलिए परमादेश जारी करना उचित था।

    कोर्ट ने यहां 'केएस राशिद और बेटे बनाम आयकर जांच आयोग (1954)' के फैसले का अवलोकन किया, जिसे 'निपटान निदेशक, ए.पी. और अन्य बनाम एम.आर. अप्पा राव और अन्य (2002)' में दोहराया गया था और जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत शक्ति विवेकाधीन होती है और इसे विवेकपूर्ण तरीके से इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

    कोर्ट ने 'भारत सरकार बनाम गौस मुहम्मद (1961)' मामले में दिये फैसले का भी संज्ञान लिया, जिसमें कहा गया था कि, "तथ्य का एक विवादित प्रश्न अनुच्छेद 226 के तहत मुकदमे में जांच के लिए उत्तरदायी नहीं है, खासकर तब, जब एक वैकल्पिक उपाय उपलब्ध हो"।

    मौजूदा मामले में, कोर्ट ने माना कि एकल न्यायाधीश के समक्ष दलीलों से तथ्यों के विवादित प्रश्नों का पता चलता है।

    " इमारतों के पट्टे को विनियमित करने और किराये की अत्यधिक मांगों की जांच करने के लिए एक विशेष क़ानून बनाया गया है, जिसे 'केरल भवन (पट्टा और किराया नियंत्रण) अधिनियम, 1965' का नाम दिया गया है, जो मकान मालिक के किरायेदारी के अधिकारों तथा किरायेदार के अधिकार को भी विनियमित करने वाले विभिन्न प्रावधानों को निर्धारित करता है। इसके अलावा, अगर एक अवैध बेदखली का खतरा है, तो एक सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र को अच्छी तरह से लागू किया जा सकता है और इसलिए एक सिविल कोर्ट द्वारा एक अवैध अनधिकृत प्रवेश को विफल किया जा सकता है और एक अनिवार्य निषेधाज्ञा द्वारा इसका निदान किया जा सकता है। यह ऐसी स्थिति में है कि प्रथम प्रतिवादी/किरायेदार अनिधकार प्रवेश और शरारत का आरोप लगाते हुए मकान मालिक के खिलाफ पुलिस सुरक्षा की मांग करते हुए हाईकोर्ट पहुंचा, दोनों ही वादहेतुक पूरी तरह से दीवानी अदालत के अधिकार क्षेत्र के दायरे में आते हैं।''

    कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता ने अनुच्छेद 226 के तहत एकल न्यायाधीश का दरवाजा खटखटाया था, जो कि पांचवें प्रतिवादी मकान मालिक/अपीलकर्ता द्वारा दर्ज किए गए कैविएट को नाकाम करने के प्रयास के रूप में था।

    कोर्ट ने उसके समक्ष दिए गए इस तर्क में भी कोई दम नहीं पाया कि पुलिस द्वारा शिकायतों पर कार्रवाई नहीं की गई थी।

    इस प्रकार कोर्ट ने एकल न्यायाधीश के आदेश को निरस्त कर दिया और दोनों पक्षों के लिए दीवानी अदालत या किराया नियंत्रण कोर्ट के समक्ष उचित उपाय खोजने की स्वतंत्रता दे दी।

    त्रिशूर निगम के स्थायी वकील संतोष पी. पोडुवल और वरिष्ठ सरकारी वकील टी.के. विपिनदास भी इस मामले में पेश हुए।

    केस टाइटल: संतोष कुमार नायर बनाम सुरेश पी. श्रीधरन व अन्य।

    साइटेशन: 2022 लाइवलॉ (केरल) 599


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