कर्नाटक हाईकोर्ट ने पीएफआई पर तत्काल प्रभाव से बैन लगानी वाली केंद्र की अधिसूचना के खिलाफ दायर याचिका खारिज की

Shahadat

30 Nov 2022 9:57 AM GMT

  • कर्नाटक हाईकोर्ट ने पीएफआई पर तत्काल प्रभाव से बैन लगानी वाली केंद्र की अधिसूचना के खिलाफ दायर याचिका खारिज की

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने बुधवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना पर सवाल उठाने वाली दायर याचिका खारिज कर दी। इस अधिसूचना में केंद्र सरकार ने पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) और उसके सहयोगियों या मोर्चों को यूएपीए की धारा 3(1) के तहत शक्तियों के प्रयोग में पांच साल की अवधि के लिए 'तत्काल प्रभाव' के साथ "गैरकानूनी यूनियन" घोषित किया गया है।

    जस्टिस एम नागप्रसन्ना की एकल न्यायाधीश पीठ ने नासिर पाशा नाम के पीएफआई कार्यकर्ता द्वारा अपनी पत्नी के माध्यम से दायर याचिका पर आदेश सुनाया, क्योंकि वह वर्तमान में न्यायिक हिरासत में है।

    याचिकाकर्ता की ओर से सीनियर एडवोकेट जयकुमार एस. पाटिल ने तर्क दिया कि गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 की धारा (3) की उप-धारा 3 के प्रावधान के अनुसार, सक्षम प्राधिकारी के लिए यह अनिवार्य है कि वह प्रतिबंध को तत्काल प्रभाव से लागू करने के लिए अलग और अलग कारण दर्ज करें। उनका तर्क है कि आक्षेपित आदेश समग्र आदेश है और अधिनियम की धारा 3 की उप-धारा 3 के अनुरूप कोई अलग कारण या आदेश पारित नहीं किया गया।

    याचिका में कहा गया कि वर्ष 2007-08 में पीएफआई को कर्नाटक सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत रजिस्टर्ड किया गया था और यह समाज के दलित वर्ग के सशक्तिकरण के लिए काम कर रहा था।

    याचिका में आगे कहा गया,

    "भारत संघ ने यूएपी अधिनियम की धारा 3 (1) के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करके विवादित अधिसूचना (दिनांक 28-09-2022) पारित की, यह अधिसूचना यूएपीए ट्रिब्यूनल की पुष्टि के अधीन है। इस प्रकार इस अदालत के समक्ष इस पर सवाल नहीं उठाया गया।"

    याचिका में कहा गया,

    "याचिकाकर्ता अधिसूचना के बाद के हिस्से से व्यथित है जिसमें यूएपी अधिनियम की धारा 3 (3) के प्रावधान के तहत शक्ति का प्रयोग करके इस अधिसूचना को तत्काल प्रभाव से लाया गया।"

    याचिका में कहा गया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (सी) के तहत अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकार पर अंकुश लगाने के लिए भारत संघ ने अपनी संप्रभु शक्ति का मनमाने ढंग से अपराध की विविध घटनाओं के आधार पर प्रयोग किया।

    इसमें कहा गया,

    "संगठन कई राज्यों में मौजूद था, कई व्यक्तियों द्वारा इसका अनुसरण किया गया और लाभान्वित किया गया। मगर संगठन को तत्काल प्रभाव से गैरकानूनी घोषित किया गया। संगठन को गैरकानूनी करते हुए किसी कारण को निर्दिष्ट किए नहीं किया गया कि उक्त संगठन कैसे मनमाना और अवैध है।"

    यह दावा किया जाता है,

    "इस तरह की घोषणा को तत्काल प्रभाव देने के कई अंतर्निहित प्रभाव हैं, जो कानूनी प्राधिकरण को सदस्यता की आड़ में किसी भी व्यक्ति को झूठे तरीके से फंसाने की बेलगाम शक्ति देता है, जो कि न्यायाधिकरण के आदेश में की गई पुष्टि से पहले ही यूए (पी) ए की धारा 10, 11 और 13 के तहत है। तत्काल प्रभाव अधिकरण के समक्ष बचाव के अधिकार को कम करता है, लेकिन संभावित आपराधिक कार्रवाई के लिए प्रत्येक सदस्य, अनुयायी, सहानुभूति रखने वाले को भी उजागर करता है, जब प्रभाव इतना गंभीर और निवारक होता है तो कारण समान रूप से ठोस और मजबूत होने चाहिए।

    मोहम्मद जफ़र बनाम भारत संघ (1994 (2) SCC 267) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी भरोसा किया गया, जिसमें अदालत ने घोषणा के तत्काल प्रभाव को अलग कर दिया।

    याचिका में तत्काल प्रभाव से घोषणा अधिसूचना रद्द करने की प्रार्थना की गई।

    यूनियन ऑफ इंडिया की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह कहते हुए याचिका का विरोध किया कि प्रतिबंध की घोषणा के लिए अधिसूचना में आवश्यक कारण दिए गए हैं और इसमें कुछ भी अवैध नहीं है।

    केस टाइटल: नासिर पाशा बनाम भारत संघ

    केस नंबर: डब्ल्यूपी 21440/2022

    प्रतिनिधित्व: याचिकाकर्ता की ओर से एडवोकेट रोनाल्ड डीएसए की ओर से सीनियर एडवोकेट जयकुमार एस. पाटिल।

    प्रतिवादी के लिए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, एडिशनल सॉलिसिटर जनरल एमबी नरगुंड और भारत के सब-सॉलिसिटर जनरल एच शांति भूषण।

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