कर्नाटक हाईकोर्ट ने कोरोना वायरस फैलाने के लिए लोगों को उकसाने वाले आरोपी इंजीनियर को जमानत देने से किया इंकार

LiveLaw News Network

26 May 2020 4:39 AM GMT

  • कर्नाटक हाईकोर्ट ने कोरोना वायरस फैलाने के लिए लोगों को उकसाने वाले आरोपी इंजीनियर को जमानत देने से किया इंकार

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने गुरुवार को एक 38 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर को जमानत देने से इनकार कर दिया। इस इंजीनियर पर आरोप है कि उसने कथित तौर पर सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों को नोवल कोरोना वायरस फैलाने के लिए उकसाया था।

    कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा किए गए कथित कृत्यों ने देश की अखंडता को खतरे में डाल दिया, इसलिए भले ही उसने जो अपराध किया है,उसमें अधिकतम 3 साल की सजा का प्रावधान है, परंतु अदालत ने हाई पावर कमेटी की सिफारिशों के बावजूद भी उसे अंतरिम जमानत देने से इनकार कर दिया।

    न्यायमूर्ति के.एस मुदगल की पीठ ने कहा कि

    ''भारत की संप्रभुता, बंधुत्व और अखंडता को अनुच्छेद 21 के तहत मिले स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर वरीयता मिली हुई है। ऐसी परिस्थितियों में भले ही प्राथमिकी में जिन धाराओं के तहत मामला बनाया गया है, उनमें तीन साल तक की सजा का प्रावधान हो परंतु सिर्फ इस आधार पर आरोपी की जमानत अर्जी पर विचार नहीं किया जा सकता। वहीं इस मामले में जांच अभी लंबित है।''

    याचिकाकर्ता पर आईपीसी की धारा 153ए, 505, 270, 109 के तहत सोशल मीडिया पर निम्नलिखित संदेश पोस्ट करने के लिए मामला दर्ज किया गया था, जो बाद में वायरल हो गया था-

    ''चलो हाथ मिलाएं, सार्वजनिक स्थान पर खुले मुंह से छींकें, वायरस फैलाएं।''

    अपनी जमानत याचिका में अभियुक्त मोहम्मद मुजीब ने तर्क दिया था कि कथित रूप से यह अपराध आईपीसी की धारा 153ए के तहत किया गया था, जिसके लिए निर्धारित अधिकतम सजा केवल 3 साल तक की है, इसलिए उसे जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए।

    इस आवेदन का विरोध करते हुए हाई कोर्ट के जनरल प्लीडर विनायक वीएस ने कहा कि जांच के दौरान उन्हें एक सुराग मिला है, जिसमें पता चला है कि याचिकाकर्ता के असंगठित आतंकवादी समूहों के साथ संबंध हैं। इसलिए उन्होंने जोर देते हुए कहा कि अपराध के लिए सजा का प्रावधान जमानत देने का एकमात्र मानदंड नहीं हो सकता। इस मामले में अदालत को अपराध की प्रकृति और गंभीरता पर भी विचार करना चाहिए।

    यह भी दलील दी गई कि इस समय आरोपी को जमानत देना उचित नहीं होगा क्योंकि आतंकवादी लिंक के संबंध के बारे में पता लगाने के लिए अभी याचिकाकर्ता से पूछताछ की जानी बाकी है।

    अदालत ने इस मामले में निम्नलिखित टिप्पणी की है-

    याचिकाकर्ता एक शिक्षित व्यक्ति है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि वह अपने कृत्यों के निहितार्थ से अवगत था। फिर भी उसने ऐसी सामग्री पोस्ट की जो मानवता के लिए शर्मिंदगी, घृणा और शत्रुता पैदा करने वाली हो सकती है।

    हालांकि याचिकाकर्ता ने अपनी मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति के आधार पर जमानत मांगी थी, लेकिन उक्त दावे का समर्थन करने के लिए उसने जो दस्तावेज पेश किए हैं वो एक निजी प्रैक्टिशनर की तरफ से जारी किए गए हैं। इसके अलावा जब उसकी मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति को चेक करवाने के लिए याचिकाकर्ता को एनआईएमएचएएनएस में भेजने के लिए कहा गया तो याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि वह उस दलील पर जोर नहीं ड़ाल रहे हैं।

    जांच रिकॉर्ड के अनुसार याचिकाकर्ता बहरीन और कुवैत गया था और कुछ वर्षों तक वह वहां रहा है। वहीं उसके खिलाफ संदिग्ध तथ्य मौजूद हैं।

    यहां तक कि एनआईए के एक अधिकारी ने इस जांच में भाग लिया, ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों से याचिकाकर्ता के लिंक की जांच की जा सके और उस दिशा में जांच अभी भी जारी है।

    सीडी रिकॉर्ड के अनुसार याचिकाकर्ता धार्मिक कट्टरता और विरोधी विचारों का प्रचार करने वाले कुछ लोगों से प्रभावित था। उसने इस्लामिक जानकारी के लिए एक पाक व्हाट्सएप नंबर भी साझा किया था।

    मामले की परिस्थितियों को देखते हुए अदालत ने कहा कि भारत की संप्रभुता, बंधुत्व और अखंडता को याचिकाकर्ता के व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार पर वरीयता प्राप्त है।

    अदालत ने जमानत याचिका खारिज करते हुए कहा कि ''जमानत मंजूर करने के लिए यह उचित मामला नहीं है।''

    मामले का विवरण-

    केस का शीर्षक- मोहम्मद मुजीब बनाम इलेक्ट्रॉनिक सिटी पीएस के जरिए राज्य

    केस नंबर-सीआरएल पी नंबर 2184/2020

    कोरम- न्यायमूर्ति के.एस मुदगल

    प्रतिनिधित्व- वकील मोहम्मद ताहिर (याचिकाकर्ता के लिए), हाई कोर्ट के जनरल प्लीडर विनायक वी.एस. (राज्य के लिए)

    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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