ट्रैफिक चेकिंग के दौरान वकील ने खुद को बताया न्यायिक मजिस्ट्रेट, हाईकोर्ट ने FIR रद्द करने से किया इनकार

Amir Ahmad

15 Dec 2025 12:58 PM IST

  • ट्रैफिक चेकिंग के दौरान वकील ने खुद को बताया न्यायिक मजिस्ट्रेट, हाईकोर्ट ने FIR रद्द करने से किया इनकार

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने चंडीगढ़ में ट्रैफिक चेकिंग के दौरान खुद को न्यायिक मजिस्ट्रेट बताकर पुलिसकर्मियों को प्रभावित करने और सरकारी काम में बाधा डालने के आरोपी एक वकील के खिलाफ दर्ज FIR रद्द करने से इनकार किया। अदालत ने कहा कि मामले में गंभीर और स्पष्ट आरोप हैं, जिनकी जांच और सत्यता का परीक्षण इस स्तर पर संभव नहीं है।

    जस्टिस सूर्य प्रताप सिंह ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि FIR में लगाए गए आरोप प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध को दर्शाते हैं। अदालत के अनुसार रिकॉर्ड पर मौजूद तथ्यों से स्पष्ट है कि घटना के समय याचिकाकर्ता की मौके पर मौजूदगी विवादित नहीं है। दोनों पक्षकारों के दावों का मूल्यांकन साक्ष्यों के आधार पर ही किया जा सकता है, जो कि FIR रद्द करने की कार्यवाही में संभव नहीं है।

    मामला चंडीगढ़ के एक चौराहे का है, जहां ट्रैफिक पुलिस नियमित जांच कर रही थी। शिकायत के अनुसार याचिकाकर्ता एक स्कॉर्पियो वाहन चला रहा था, जिसकी नंबर प्लेट आंशिक रूप से ढकी हुई थी। जब पुलिस ने उसे रोका और ड्राइविंग लाइसेंस दिखाने को कहा तो उसने कथित तौर पर खुद को न्यायिक मजिस्ट्रेट बताया और लाइसेंस दिखाने से इनकार कर दिया। आरोप है कि उसने एक कांस्टेबल के साथ दुर्व्यवहार किया और पुलिस के निर्देशों की अनदेखी करते हुए मौके से फरार हो गया।

    शिकायत में यह भी कहा गया कि वाहन पर “जज” का स्टीकर लगा हुआ था। बाद में जांच में सामने आया कि याचिकाकर्ता कोई न्यायिक अधिकारी नहीं बल्कि एक वकील है। जांच के दौरान उसे गिरफ्तार भी किया गया। इस आधार पर उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 186, 170 और 419 के तहत FIR दर्ज की गई।

    याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी गई कि यह FIR दुर्भावना से प्रेरित है और उसने पहले कुछ सीनियर पुलिस अधिकारियों जिनमें एक डीएसपी भी शामिल हैं, उनके खिलाफ शिकायतें की थीं इसी कारण उसे झूठे मामले में फंसाया गया। यह भी कहा गया कि घटना के समय पुलिसकर्मी वर्दी में नहीं थे और उसकी गिरफ्तारी अवैध तरीके से FIR की जानकारी दिए बिना दो दिन बाद की गई। इसके अलावा याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि IPC की धारा 186 के तहत एफआईआर दर्ज करना दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 195(1) के कारण प्रतिबंधित है और पूरी कार्यवाही कानून के दुरुपयोग के समान है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का हवाला देते हुए उसे IPC की धारा 84 के तहत संरक्षण दिए जाने की भी मांग की गई।

    वहीं चंडीगढ़ प्रशासन ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता ने कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए खुद को न्यायिक मजिस्ट्रेट बताकर पुलिस को गुमराह किया और उनके काम में बाधा डाली। प्रशासन ने स्पष्ट किया कि IPC की धारा 170 और 419 के तहत अपराध स्पष्ट रूप से बनते हैं और CrPC की धारा 195 की रोक इन अपराधों पर लागू नहीं होती। मानसिक बीमारी से जुड़ी दलील को भी इस स्तर पर अप्रासंगिक बताया गया।

    सभी दलीलों पर विचार करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि IPC की धारा 186 को लेकर कानूनी आपत्ति बाद के चरण में उठाई जा सकती, लेकिन यह आधार FIR को पूरी तरह रद्द करने के लिए पर्याप्त नहीं है क्योंकि अन्य आरोप अलग और स्वतंत्र हैं। मानसिक अस्वस्थता की दलील को लेकर अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता ने घटना के समय मानसिक असंतुलन का दावा नहीं किया और यदि बाद में कोई समस्या उत्पन्न हुई है तो उसका मुद्दा ट्रायल कोर्ट के समक्ष उठाया जा सकता है।

    अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर बनाम महाराष्ट्र राज्य और बालाजी ट्रेडर्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामलों का हवाला देते हुए दोहराया कि FIR रद्द करने की शक्ति का प्रयोग अत्यंत दुर्लभ मामलों में ही किया जाना चाहिए और जांच के चरण में हाईकोर्ट द्वारा “मिनी ट्रायल” नहीं किया जा सकता।

    इन सभी कारणों के आधार पर हाईकोर्ट ने याचिका खारिज की और कहा कि मामले में आगे की कार्यवाही कानून के अनुसार जारी रहेगी।

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