जस्टिस श्रीकृष्णा ने कहा, व्हाट्सएप-पेगासस हैकिंग की खबरें अगर सच तो हम ऑरवेलियन स्टेट बनने की ओर बढ़ रहे हैं
LiveLaw News Network
11 Nov 2019 4:08 PM IST
जस्टिस श्रीकृष्णा ने हुए कहा कि ये तय करना होगा कि जो भी निगरानियां हो रही हैं वो संविधान के भाग 3 में दिए संवैधानिक मानदंडो के अनुरूप ही हो.
इजराइली स्पाईवेयर 'पेगासस' का इस्तेमाल कर व्हाट्सएप के जरिए हिंदुस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के फोन की कथित निगरानी की रिपोर्ट्स सामने आने के बाद मानवाधिकार हनन की आशंका बढ़ गई है।
उल्लेखनीय है कि 'पेगासस' कथित तौर पर स्मार्टफोन की रीयल टाइम निगरानी कर सकता है, साथ ही कमांड के जरिए इससे कैमरा और माइक्रोफोन भी एक्सेस किया जा सकता है। इस मुद्दे पर अपनी राय जाहिर करते हुए जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि अगर ऐसा है तो जैसा जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास '1984' में बताया गया है, हम वैसे ही ऑरवेलियन स्टेट की ओर बढ़ रहे हैं, जहां बिग ब्रदर हम पर निगरानी रखे हुए हैं।
सरकारों और अन्य संस्थानों को नागरिकों की निगरानी से रोकने के लिए जस्टिस श्रीकृष्णा ने उन्हें आगाह करते हुए कहा कि ये तय करना होगा कि जो भी निगरानियां रखी जा रही हैं वो संविधान के भाग 3 में दिए संवैधानिक मानदंडो के अनुरूप ही हों
और वैसे ही हो जैसे उनकी व्याख्या पुट्टास्वामी जजमेंट में की गई है।
उन्होंने आगे कहा,' जिन्हें हम नागरिकों के लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों पर हम एक स्पष्ट हमले के रूप में देखते रहे हैं, उसके खिलाफ एक मजबूत जनमत तैयार करने की जरूरत है।'
डाटा प्रोटेक्शन के लिए बनी कमेटी के प्रमुख रह चुके जस्टिस श्रीकृष्णा डाटा कानून के अग्रणी विद्वान हैं। डाटा प्रोटेक्शन कानून अभी उक्त कमेटी के ही विचाराधीन है, फिर भी किसी व्यक्ति के निजता के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट केएस पुट्टास्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया ( (2017) 10 SCC 1. के फैसले में स्वीकार कर चुका है।
सुप्रीम कोर्ट के चर्चित फैसले को जोड़ते हुए कमेटी भारत में निगरानी कानूनों में सुधार के लिए 2018 में एक रिपोर्ट पेश कर चुकी है और डाटा प्रोटेक्शन बिल का मसौदा प्रस्तावित कर चुकी है, जिसे संसद के पटल पर अब भी रखा जाना है।
निजता के हनन का हवाला देते हुए ही आरएसएस के पूर्व विचारक केएन गोविंदाचार्य बीते हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली थी और उन्होंने इंडियन पीनल एक्ट और इन्फारमेशन टेक्नोलॉजी एक्ट के प्रावधानों के तहत फेसबुक, व्हाट्सएप और एनएसओ ग्रुप के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की थी, साथ ही उन्होंने मामले की एनआईए से जांच कराने की मांग की थी। अंतरिम कार्रवाई के रूप में उन्होंने कोर्ट से अपील की थी कि वो भारत सरकार को पेगासस के जरिए निगरानी करने से रोके।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पिछले साल 10 केंद्रीय एजेंसियों को किसी भी कम्प्यूटर जनित सूचना को रोकने, देखने और पढ़ने के लिए अधिकृत किया था। चूंकि स्मार्टफोन भी उच्च स्तर की डाटा प्रोसेसिंग डिवाइस है, इसलिए इसे भी आईटी एक्ट 2000 के सेक्शन 2(i) में दी गई कम्प्यूटर की परिभाषा के अंतर्गत ही रखा जा सकता है और इसलिए स्मार्टफोन की निगरानी से इनकार भी नहीं किया जा सकता। निगरानी का ये आदेश आईटी एक्ट के सेक्शन 69(1)2009 के डाटा निगरानी और संग्रहण नियमों के तहत दिया गया था।
ये नियम किसी भी 'सक्षम प्राधिकारी' को साइबर सुरक्षा से जुड़े मामले की जांच और रोकथाम के लिए ट्रैफिक डाटा को मॉनिटर करने और संग्रह करने की इजाजत देते हैं।
आदेश के सार्वजनिक होने के तुरंत बाद ही इसके खिलाफ कई याचिकाएं दायर की गईं थीं। हालांकि मंत्रालय ने अपने फैसले का बचाव करते हुए कहा था कि निगरानी निर्धारित प्रकिया और उद्देश्य के आधार पर ही की जाएगी।
'किसी भी एजेंसी को किसी भी संदेश को देखने, पढ़ने और रोकने की खुली छूट नहीं दी गई है, अधिकृत एजेंसियों को भी सक्षम अधिकारियों से इजाजत लेनी पड़ेगी। केंद्रीय गृह मंत्रालय प्रत्येक केस में उचित कानूनी प्रकिया और संदेशों के रोकने, देखने और पढ़ने के ठोस कारण के बाद ही ऐसा करेगा।
केंद्र सरकार ने ये बातें सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में कही थी।
हालांकि हाल के दिनों में आई पत्रकारों के निगरानी की खबर और ये देखते हुए कि स्मार्टफोन एक ऐसी डिवाइस हो गया हो जो हमारी रोजमर्रा के हर कामकाज में शामिल है, निगरानी पर होने वाली बहसों को फिर केंद्र में ला दिया है.