न्यायपालिका सिर्फ यह सोचकर बैठी नहीं रह सकती कि सरकार के पास लोगों की भलाई की बेहतर समझ हैः सीनियर एडवोकेट दुष्यंत दवे
LiveLaw News Network
29 May 2020 8:13 PM IST
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने शुक्रवार को कहा कि न्यायपालिका को लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में ही प्रभावी और सार्थक तरीके से हस्तक्षेप करना चाहिए था ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि लॉकडाउन "संगठित, निर्देशित और न्यायसंगत" तरीके से लागू किया गया है।
उन्होंने कहा, "सभी भले उद्देश्यों, इरादों और इच्छाओं के बावजूद, यह समझ से परे है कि प्रधानमंत्री यह निर्णय ले सकता है कि वह पूरे देश पर 4 घंटे के भीतर ताला लगा देगा। न्यायपालिका को इस मामले में 24 घंटे के भीतर हस्तक्षेप करना चाहिए था और इसे रोकना चाहिए। ऐसा पहले कभी नहीं सुना गया था।"
दुष्यंत दवे डीब्रीफ द्वारा आयोजित एक वेबिनार में बोल रहे थे। उन्होंने कहा, "जजों को यह कहना चाहिए था कि 'हम यह नहीं कह रहे हैं कि लॉकडाउन नहीं होना चाहिए। बेशक लॉकडाउन होना चाहिए, लेकिन इसे निर्देशित, संगठित और उचित तरीके से लागू किया जाना चाहिए।"
उन्होंने कहा, "न्यायाधीशों के लिए यह महसूस करना महत्वपूर्ण था कि नागरिक असहाय थे। सरकार ने देश पर एक ऐसा फैसला थोप दिया, जो प्रथम दृष्टया पूरी तरह से मनमाना प्रतीत होता है। जजों को कहना चाहिए था ," हां, लॉकडाउन करें। लेकिन, एक सप्ताह या 10 दिनों के बाद करें।"
दवे ने कहा कि लॉकडाउन से गरीब और मजदूर प्रभावित हुए, वो शहरों से गांवों की ओर लौटने को मजबूर हुए।
"यह एक अजीबोगरीब स्थिति है। आपने इन करोड़ों मजदूरों को शहरों को घनी बस्तियों में रखा। हो सकता है कि ये कोरोना के मरीज हो या हो सकता है कि न हों। अब आप उन्हें अपने गांव में वापस जाने के लिए कहर रहे हैं, जहां वे बीमारी फैला सकते हैं। इन गांवों में रोजगार और स्वास्थ्य सेवा हालत बेहतद खराब है।"
इस मानवीय संकट की स्थिति में, "न्यायपालिका के लिए कदम उठाना अनिवार्य था, क्योंकि वह सिर्फ यह सोचती नहीं रह सकती है कि सरकार के पास लोगों की भलाई की बेहतर समझ है।"
दवे ने कहा कि अगर समय पर और सार्थक हस्तक्षेप हुआ होता, तो लॉकडाउन के बेहतर परिणाम देखने को मिलते।
उन्होंने कहा, "हम किसी राजतंत्र में नहीं रहते; यह लोकतंत्र है। हम संविधान द्वारा निर्देशित हैं। न्यायपालिका को तेजी से काम करना चाहिए था, लेकिन कार्यकारी की सार्थक और सकारात्मक तरीके से सहायता करने के लिए, न कि उसे रोकने के लिए। यदि ऐसा हुआ होता तो हम बेहतर परिणाम देख सकते थे।"
दवे ने कहा कि न्यायपालिका नोटबंदी के विनाशकारी परिणामों पर लगाम नहीं लगा सकी थी।
उन्होंने कहा संविधान सर्वोंच्च है। प्रधानमंत्री भी उससे ऊपर नहीं हैं। नोटबंद का फैसला सही नहीं था और स्पष्ट रूप से उससे किसी भी उद्देश्य को पाया नहीं जा सका। बहुत से लोग मर गए और कई लोग अलग-अलग तरीकों से बर्बाद हो गए। न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना चाहिए था।"
दवे ने कहा कि दो महत्वपूर्ण बिंदु हैं-
1. कार्यपालिका का कोई ऐसा निर्णय नहीं है, जो समीक्षा योग्य न हो।
2. कोई भी कानून से ऊपर नहीं है।
यह ऐसा है, जिसे जजों को दीमाग में रखना चाहिए।
उन्होंने कहा, "यह भी महत्वपूर्ण है कि न्यायपालिका को नागरिकों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। वे हमारे संविधान के प्रहरी हैं। लेकिन, पूरे सम्मान के साथ यह कहना पड़ रहा है कि न्यायपालिका पिछले 8 हफ्तों से ऐसा नहीं कर रही है।"
बार की सामूहिक आवाज वजनदार होती है
दुष्यंत दवे ने सत्र की शुरुआत संविधान की मर्यादा बनाए रखने में वकीलों की भूमिका की चर्चा से की। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता आंदोलन में वकीलों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
उन्होंने कहा, "हमें वकीलों के समूहों को संगठित करना चाहिए, जो लोगों की समस्याओं का पता लगा सकें और उन समस्याओं का समाधान कर सकें। बार की सामूहिक आवाज बहुत ही वजनदार होती है।"
उन्होंने कहा, "आज मानव की गरिमा को चुनौती दी जा रही है। लाखों प्रवासी मजदूर संकट से गुजर रहे हैं। हमारे पूर्वजों को यह देखकर और आश्चर्य होना चाहिए कि क्या यही वह राष्ट्र है, जिसे उन्होंने भविष्य के नागरिकों को सौंपा था। उन्हें हमारी निंदा करनी चाहिए ।"
उन्होंने कहा, "बार को समूहों का आयोजन करना चाहिए, विशेष रूप से युवा वकीलों को संगठित करना चाहिए। युवा वकील असाधारण प्रतिभाशानी हैं; वे अधिक सक्षम और शिक्षित हैं।"
दवे ने वकीलों से आग्रह किया कि उन्हें नागरिकों की समस्याओं से सक्रिय रूप से जुड़ना चाहिए, खासकर तब जबकि उनमें से कई के पास लॉकडाउन के कारण "पैसे नहीं हैं और वो सड़क पर हैं।"
उन्होंने कहा, "उदाहरण के लिए, यदि नियोक्ता मजदूरी का भुगतान नहीं कर रहे हैं, तो वकील मजदूरों की मदद कर सकते हैं और उन्हें मजदूरी दिलाने में मदद कर सकते हैं।"
वरिष्ठ अधिवक्ताओं की भूमिका पर उन्होंने कहा, "वरिष्ठ अधिवक्ताओं के कंधों पर बहुत अधिक जिम्मेदारी है। उन्हें इस तरह नामित किया गया है क्योंकि उनके पास कुछ जिम्मेदारियां और कर्तव्य हैं। उन्हें इस अवसर पर उठना होगा और खुद को इस तरीके से संचालित करना होगा कि बार का मार्गदर्शन हो सके।"
उन्होंने यह भी कहा कि बार को अपने उन सदस्यों का ध्यान रखना चाहिए, जो लॉकडाउन के कारण पीड़ित हैं।
न्यायिक कार्यों को जल्द ही शुरु करने की आवश्यकता है
उन्होंने जोर देकर कहा कि न्यायिक कार्यों को जल्द से जल्द फिर से शुरू करना चाहिए। "हमें न्यायपालिका को को दोबारा शुरू करने वैकल्पिक तरीकों के बारे में सोचने की जरूरत है ... न्यायाधीशों को उन मामलों को प्राथमिकता देने का एक तरीका तैयार करना चाहिए, जिन्हें उठाया जाना चाहिए, इस तरीके से कि बड़ी संख्या में लोगों को अदालत से न्याय मिल सके।"
न्यायपालिका को ऑउट ऑफ बॉक्स सोचने की जरूरत है और विशेषज्ञों से चर्चा की जरूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कानून का शासन पूरी तरह से ठप्प न हो। यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।"