न्यायिक मजिस्ट्रेट उन व्यक्तियों के खिलाफ संज्ञान ले सकते हैं, जो सेशन कोर्ट द्वारा विशेष रूप से विचारणीय अपराधों के लिए 'चार्ज-शीटेड नहीं' है: उड़ीसा हाईकोर्ट

Avanish Pathak

19 Sep 2022 2:56 PM GMT

  • न्यायिक मजिस्ट्रेट उन व्यक्तियों के खिलाफ संज्ञान ले सकते हैं, जो सेशन कोर्ट द्वारा विशेष रूप से विचारणीय अपराधों के लिए चार्ज-शीटेड नहीं है: उड़ीसा हाईकोर्ट

    उड़ीसा हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया कि न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास, एक ऐसे अपराधी, जिसे चार्जशीट नहीं किया गया है, कि तुलना में एक ऐसे अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार है, जिस पर अनिवार्य रूप से और विशेष रूप से सेशन कोर्ट में मुकदमा चलाया जा सकता है।

    चीफ जस्टिस डॉ एस मुरलीधर और जस्टिस चित्तरंजन दास की खंडपीठ ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के एक फैसले का हवाला देते हुए कहा,

    "धर्म पाल (सुप्रा) में उपरोक्त विचार, जिसे सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने लिया है] महत्वूपर्ण है। महत्वपूर्ण रूप से, नाहर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) 5 SCC 295 में पैरा 25 में यह नोट किया गया है कि "किसी सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय अपराध का संज्ञान लेने पर मजिस्ट्रेट के क्षेत्राधिकार पर विवाद नहीं है"।

    पृष्ठभूमि

    खंडपीठ के समक्ष मौजूदा संदर्भ मामा @ बिद्युत प्रवा खुंटिया बनाम उड़ीसा राज्य, (2004) 29 OCR 329 में सिंगल जज बेंच द्वारा 9 जुलाई 2004 को पार‌ित एक आदेश के अनुसरण में था।

    इसमें यह नोट किया गया था कि राज किशोर प्रसाद बनाम बिहार राज्य, रणजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य और किशोरी सिंह बनाम बिहार राज्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में माना गया था कि जब सत्र न्यायालय द्वारा विशेष रूप से विचारणीय अपराध किया गया हो और मामले के जांच की जाती है तो मजिस्ट्रेट को आरोप-पत्र में नामित व्यक्ति से ही गुजरना है और वह उस सूची में जोड़ या घटा नहीं सकता क्योंकि उसके पास उस संबंध में कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।

    हालांकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा मैसर्स SWIL Ltd. बनाम दिल्ली राज्य और राजिंदर प्रसाद बनाम बशीर में में एक विपरीत दृष्टिकोण लिया गया है, जहां यह माना गया था कि मजिस्ट्रेट के पास धारा 190 सीआरपीसी के तहत न केवल अपराधों को जोड़ने की शक्ति है, बल्कि पुलिस द्वारा एकत्र किए गए सबूतों के आधार पर आरोपी व्यक्तियों को भी जोड़ने की श‌क्ति है।

    परिणाम

    कोर्ट ने पाया कि राज किशोर प्रसाद (सुप्रा) में यह माना गया था कि मजिस्ट्रेट के पास धारा 319, सीआरपीसी के तहत किसी व्यक्ति को आरोपी के रूप में जोड़ने की कोई शक्ति नहीं है, जब वह धारा 209 सीआरपीसी के तहत मामले को संभाल रही हो।

    रणजीत सिंह (सुप्रा) में राज किशोर प्रसाद (सुप्रा) में अपनाए गए उपरोक्त दृष्टिकोण को दोहराया गया था और यह माना गया था कि सुपुर्दगी के चरण से सत्र न्यायालय जब धारा 230, सीआरपीसी के तहत इंगित साक्ष्य संग्रह के चरण तक पहुंच जाता है, न्यायालय केवल धारा 209, सीआरपीसी में संदर्भित अभियुक्तों से निपट सकता है। यही विचार किशोरी सिंह बनाम बिहार राज्य (सुप्रा) दोहराया गया।

    हालांकि, पहले किशुन सिंह बनाम बिहार राज्य में एक अलग दृष्टिकोण लिया गया था, जिसे बाद में रंजीत सिंह (सुप्रा) में उसे अस्वीकृत कर दिया गया था। रंजीत सिंह (सुप्रा) के विचार को सुप्रीम कोर्ट ने धर्म पाल बनाम हरियाणा राज्य, (2004) 13 SCC 9 में अपने आदेश में संदेह किया था और तदनुसार, मामले को पांच जजों की संविधान पीठ को भेजा गया था।

    धर्म पाल बनाम हरियाणा राज्य में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने राज किशोर प्रसाद (सुप्रा), रंजीत सिंह (सुप्रा) और किशोरी सिंह (सुप्रा) के फैसलों को खारिज कर दिया और किशुन सिंह (सुप्रा) में अपनाए गए तर्क से सहमत हुई। आरोप-पत्र के कॉलम 2 में दर्शाए गए व्यक्तियों, यान‌ि अभ‌ियुक्त के रूप में नहीं, की तुलना में, सीआरपीसी की धारा 173 (2) के तहत पुलिस रिपोर्ट प्रस्तुत करने पर धारा 190 (1) (बी) के तहत मजिस्ट्रेट की भूमिका का जिक्र करते हुए हाईकोर्ट ने माना,

    "हमारे विचार में, मजिस्ट्रेट को धारा 173 (2) सीआरपीसी के तहत उसके समक्ष प्रस्तुत पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान लेने पर सत्र न्यायालय में मामला सौंपने में भूमिका निभानी है। यदि मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट से असहमत है तो उसके पास दो विकल्प हैं। वह एक विरोध याचिका के आधार पर कार्रवाई कर सकता है जो दायर की जा सकती है, या वह पुलिस रिपोर्ट से असहमत होने पर, प्रक्रिया जारी कर सकता है और आरोपी को बुला सकता है। उसके बाद, अगर संतुष्ट है कि रिपोर्ट के कॉलम 2 में नामित व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए मामना बनाया गया है, उक्त व्यक्तियों पर मुकदमा चलाने के लिए आगे बढ़ें या यदि वह संतुष्ट है कि एक मामला बनाया गय है जो सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो वह मामले को आगे बढ़ाने के लिए सत्र न्यायालय को सौंप सकता है।"

    तदनुसार, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट का उपरोक्त अवलोकन अभी भी महत्वपूर्ण है और इसलिए, एक मजिस्ट्रेट उन व्यक्तियों के खिलाफ भी संज्ञान ले सकता है, जो किसी ऐसे अपराध के लिए चार्जशीटेड नहीं हैं, जो विशेष रूप से सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है।

    केस टाइटल: मामा @ विद्युत प्रवा खुंटिया बनाम उड़ीसा राज्य

    केस नंबर: CRLMC No. 2817 of 2003

    साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (ओरि) 141

    निर्णय पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

    Next Story