अभियुक्तों की चोटों को समझाना अभियोजन के लिए है आवश्यक, इसकी अनुपस्थिति आवेदक को जमानत का अधिकार देती है: इलाहाबाद हाईकोर्ट

SPARSH UPADHYAY

5 Sep 2020 4:00 AM GMT

  • अभियुक्तों की चोटों को समझाना अभियोजन के लिए है आवश्यक, इसकी अनुपस्थिति आवेदक को जमानत का अधिकार देती है: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गुरुवार (3 सितंबर) को एक आदेश में यह साफ़ किया है कि अभियुक्तों की चोटों को समझाना अभियोजन पक्ष के लिए लाज़मी है, और यदि अभियोजन पक्ष के मामले में यह व्याख्या (चोटों के विषय में) शामिल न हो तो आवेदकों को जमानत का अधिकार मिल सकता है।

    न्यायमूर्ति बी. अमित स्थालेकर एवं न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव ने यह आदेश मौजूदा मामले में अपीलकर्ता सूरज भान, जोमदार, महेश, शिशुपाल @ ऋषि पाल, सुरेन्द्र और सतेंद्र द्वारा दायर आपराधिक अपील पर सुनाया।

    मामले की पृष्ठभूमि

    वर्ष 2009 के सत्र संख्या 1139 (राज्य बनाम जोमदार और अन्य) और सत्र संख्या 123 ऑफ़ 2010 (राज्य बनाम सुरेंद्र) के मामले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश आगरा द्वारा धारा 147, 148, 302/149, 307/149 आईपीसी, पी.एस. कागारोल, जिला आगरा और सत्र नंबर 03 ऑफ़ 2010 (राज्य बनाम सतेंद्र) धारा 25/27 आर्म्स एक्ट और सेशन ट्रायल नंबर 1140 of 2009 (राज्य बनाम शिशु पाल @ ऋषि पाल) में धारा 25/27 ऑफ़ आर्म्स एक्ट के तहत, जिसमें अपीलकर्ता सूरजभान, जोमदार, महेश, शिशुपाल @ ऋषि पाल, सुरेन्द्र और सतेंद्र को धारा 148, 302/149, 307/149 आईपीसी के तहत दोषी ठहराया गया है और उन्हें दो साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई है और प्रत्येक को 1000 रुपये का जुर्माना लगाया गया था।

    उन्हें धारा 302/149 आईपीसी के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है जिसके साथ 30,000/- प्रत्येक का जुर्माना भी लगाया गया है और इसके अलावा सभी अपीलकर्ताओं को धारा 307/149 आईपीसी के तहत सात साल के सश्रम कारावास के साथ रु5000 के जुर्माने की सजा सुनाई गई थी।

    अपीलकर्ता शिशुपाल @ ऋषि पाल और सतेंद्र सिंह को धारा 25/27 आर्म्स एक्ट के तहत दोषी ठहराया गया है और रुपये के जुर्माना के साथ दो साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई।

    अपीलकर्ताओं ने इस अदालत के समक्ष इस आपराधिक अपील की पेंडेंसी के दौरान जमानत पर रिहा होने की प्रार्थना की थी।

    मामले के तथ्य

    अभियोजन मामले के अनुसार जो तथ्य पेश किये गए हैं वे कहते हैं कि 10.8.2009 को लगभग 4 बजे, शिकायतकर्ता रमेश सिंह (PW-1), उनके भाई राजवीर और उनके पिता हरचरण लाल (PW-2) और एक राजन सिंह अपने टवेरा वाहन में ग्राम बसेरी भर, पीएस से अपने गाँव मसलिया डौकी, जिला आगरा आ रहे थे।

    जब वे अपने गाँव के पास पहुँचे, तो उन्होंने अपना वाहन रोक दिया और अपने मैदान में भीड़ को देखते हुए, वे वहाँ गए और देखा कि गणपति और बच्चू कोली के खेतों का मापन चल रहा है और उस समय उन्हें देखकर, हजारीलाल के पुत्र और मामले में अपीलकर्ता जोमदार ने दूसरों को उन्हें मारने के लिए कहा क्योंकि उनके कहने पर, उनके खेतों की माप शुरू हो गई।

    इस पर, अपीलकर्ता सूरजभान, महेश, ऋषि पाल, सुरेन्द्र, सतेंद्र, जो कंट्री मेड पिस्तौल से लैस थे, ने पिस्तौल, रिवाल्वर और फायर आर्म्स से उन्हें मारने के इरादे से उन पर गोलियां चलाईं, जिसके परिणामस्वरूप, शिकायतकर्ता राजवीर सिंह के भाई मौके पर ही मौत हो गई और शिकायतकर्ता और उसके पिता को भी गंभीर चोटें आईं।

    अपीलकर्ताओं के लिए पेश वकील ने कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा घटना की उत्पत्ति को दबा दिया गया है और दोनों पक्षों के सदस्यों को चोटें आई हैं, लेकिन अभियोजन पक्ष आरोपी अपीलकर्ताओं द्वारा लगी चोटों की व्याख्या करने में विफल रहा है।

    अदालत का ध्यान इस बात पर ले जाया गया कि चिकित्सा साक्ष्य बताते हैं कि दोनों पक्षों के सदस्यों द्वारा चोट खायी गयी है। अदालत का ध्यान ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज किए गए निष्कर्षों पर भी दिलाया गया कि ट्रायल कोर्ट में यह स्थापित होने में विफल रहा है कि कौन हमलावर था।

    अदालत का अवलोकन

    प्रथम दृष्टया रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों को देखते हुए अदालत ने कहा कि यह पता चलता है कि मृतक के अलावा, अभियुक्त पक्ष ने भी चोटें खायी हैं, हालांकि, यह आवेदकों का मामला है कि अभियोजन पक्ष द्वारा ऐसी चोटों को समझाया या उसकी व्याख्या नहीं की गई है।

    अदालत ने कहा कि यह अच्छी तरह से तय किया गया कानून है कि यदि अभियुक्त को एक ही घटना के दौरान चोटें लगी हैं और वे चोटें साबित की गयी हैं और अभियोजन पक्ष द्वारा ऐसी चोटों की कोई व्याख्या नहीं की जाती है, तो यह अभियोजन के मामले में एक प्रकट दोष होता है और यह दर्शाता है कि घटना की उत्पत्ति को जानबूझकर दबा दिया गया था, जो इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियोजन घटना के वास्तविक संस्करण के साथ अदालत के समक्ष नहीं आया है।

    गौरतलब है कि गुजरात राज्य बनाम वीएस बाई फातिमा, 1975 एससीसी (Cri) 384 के मामले में, यह देखा गया था कि ऐसी स्थिति में जब अभियोजन पक्ष, किसी अभियुक्त पर लगने वाली चोटों को समझाने में विफल रहता है, उसके आधार पर प्रत्येक मामले के तथ्य में, तीन परिणामों में से कोई भी हो सकता है:

    (1) कि अभियुक्तों ने अभियोजन पक्ष के सदस्यों पर आत्मरक्षा के अधिकार के प्रयोग में चोटें पहुंचाई थीं।

    (२) यह घटना के अभियोजन के संस्करण को संदेहास्पद बनाता है और अभियुक्त के खिलाफ आरोप को उचित संदेह से परे साबित किया गया नहीं कहा जा सकता है।

    (3) यह अभियोजन मामले को बिल्कुल प्रभावित नहीं करता है।

    इसलिए, अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष, अभियुक्त को लगी चोटों की व्याख्या करने के लिए बाध्य है और प्रथम दृष्टया अभियोजन मामले में दिखाई देने वाली इस दोषपूर्णता के चलते आवेदकों को जमानत पर रिहा किया जा सकता है।

    आगे अदालत ने यह भी कहा कि,

    "हालांकि, ऐसे मामले भी हो सकते हैं जहां अभियोजन पक्ष द्वारा चोटों की गैर-व्याख्या अभियोजन मामले को प्रभावित नहीं कर सकती है, लेकिन यह उन मामलों पर लागू होगा जहां अभियुक्तों द्वारा पायी गयी चोटें मामूली और सतही हैं। तात्कालिक मामले में, जो हम रिकॉर्ड से पाते हैं, वह यह है कि अभियुक्त पक्ष के चार व्यक्तियों शिशुपाल, सूरजभान, महेश और सुरेंद्र को गंभीर चोटें लगी हैं, जिसके सम्बन्ध में अभियोजन पक्ष की ओर से कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है।"

    रिकॉर्ड पर सबूतों के माध्यम से, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करते हुए और पार्टियों के प्रतिद्वंद्वी सबमिशन के मद्देनजर, मामले की मेरिट पर कुछ भी टिप्पणी किए बिना, प्रथम दृष्टया अदालत ने यह पाया कि जमानत का मामला बनता है

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