अगर अभियोजन पक्ष मृत्युदंड प्रस्तावित करता है तो उसे ट्रायल कोर्ट के समक्ष अभियुक्त की पृष्ठभूमि की जानकारी देनी होगी: सुप्रीम कोर्ट

Avanish Pathak

22 April 2023 3:28 PM GMT

  • अगर अभियोजन पक्ष मृत्युदंड प्रस्तावित करता है तो उसे ट्रायल कोर्ट के समक्ष अभियुक्त की पृष्ठभूमि की जानकारी देनी होगी: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने एक उल्लेखनीय फैसले में कहा है कि ऐसे मामलों में, जहां अपराध इतने जघन्य हों कि मौत की सजा को वारंट करते हों, अभियोजन पक्ष को ट्रायल कोर्ट के समक्ष वो सभी सामग्र‌ियां पेश करनी चाहिए, जो अभियुक्तों के पक्ष में शमनकारी परिस्थितियों का आकलन करने के लिए प्रासंगिक हों।

    न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह अभ्यास उन मामलों में भी किया जाना चाहिए, जहां अभियुक्त को अंततः मौत की सजा नहीं दी जा सकती है।

    प‌िछले साल मनोज बनाम मध्य प्रदेश राज्य 2022 लाइवलॉ (एससी ) 510 में अदालत ने ट्रायल चरण में शमनकारी परिस्थितियों का मूल्यांकन करने की अनिवार्यता को रेखांकित किया था।

    मौजूदा निर्णय (विकास चौधरी बनाम दिल्ली राज्य) में कोर्ट यह बताने के लिए एक कदम आगे बढ़ा है कि ऐसी कवायद उन मामलों में भी की जानी चाहिए, जो मौत की सजा को वारंट करते हैं, लेकिन जिसे लगाया नहीं जा सकता है। यह बदले में हाईकोर्टों को निश्चित अवधि की सजा पर विचार करते समय दोषी को उपलब्ध शमनकारी परिस्थितियों का मूल्यांकन करने में मदद करेगा।

    जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस एस रवींद्र भट की पीठ ने फैसले में कहा,

    "यह माना जाता है कि जहां अभियोजन पक्ष की राय है कि जिस अपराध के लिए अभियुक्त को दोषी ठहराया गया है, वह इतना गंभीर है कि मृत्युदंड को वारंट करता है, उसे मनोज के संदर्भ में मूल्यांकन के लिए सामग्री पेश करनी चाहिए"।

    कोर्ट ने कहा कि दूसरे शब्दों में, अभियोजन पक्ष को अदालत को बताना होगा और मौत की सजा प्रस्तावित होने की स्थिति में प्रासंगिक सामग्री (मनोज में वर्णित) प्रस्तुत करनी होगी।

    बेंच ने कहा,

    "यदि इसके परिणामस्वरूप मौत की सजा दी जाती है, तो पुष्टि के चरण में, हाईकोर्ट को इन सामग्रियों के स्वतंत्र मूल्यांकन का लाभ होगा। दूसरी ओर, यदि मौत की सजा नहीं दी जाती है, तो हाईकोर्ट अभी भी मूल्यांकन करने की स्थिति में होना चाहिए कि क्या सजा पर्याप्त है, और जहां उचित और न्यायसंगत हो, राज्य या शिकायतकर्ता/सूचनाकर्ता द्वारा अपील के दरमियान एक विशेष या निश्चित अवधि की सजा लागू करें। ऐसी सामग्री की अनिवार्य आवश्यकता को देखते हुए अदालत के विचार का एक हिस्सा बनने के लिए, इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि यदि निचली अदालत इस तरह के अभ्यास (किसी भी कारण से) करने में विफल रही है, तो हाईकोर्ट को राज्य या शिकायतकर्ता द्वारा सजा में वृद्धि के लिए दायर अपील पर विचार करते समय ऐसी सामग्री के लिए कॉल करना पड़ता है, (चाहे मृत्युदंड, या एक अवधि की सजा का परिणाम हो)।

    मनोज मामले में, न्यायालय ने निर्देश दिया कि राज्य को - मृत्युदंड वाले अपराध के लिए - आरोपी के मनोरोग और मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन का खुलासा करते हुए सत्र न्यायालय के समक्ष सामग्री प्रस्तुत करनी चाहिए।

    अभियोजन पक्ष को अभियुक्त की पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा, सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंधित अतिरिक्त जानकारी भी एकत्र करनी चाहिए।

    ट्रायल कोर्ट निश्चित अवधि की सजा नहीं दे सकता

    सुप्रीम कोर्ट ने यह भी दोहराया कि ट्रायल कोर्ट के पास अभियुक्तों को उनके शेष जीवन के लिए आजीवन कारावास की सजा या गंभीर अपराधों में एक निश्चित अवधि के लिए छूट के बिना आजीवन कारावास की सजा देने का कोई अधिकार नहीं है, जिसमें आजीवन कारावास के अलावा मृत्युदंड भी सजा के विकल्प के रूप में शामिल है।

    मामले में जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस एस रवींद्र भट निचली अदालत द्वारा पारित दोषसिद्धि और सजा के आदेश के खिलाफ एक अपील पर सुनवाई कर रहे थे, जहां मृतक के अपहरण और हत्या के आरोपी को बिना किसी छूट के 30 साल की निश्चित अवधि की सजा सुनाई गई थी। हाईकोर्ट ने अपील में भी इसे बरकरार रखा था।

    पीठ ने टिप्पणी की कि शीर्ष अदालत ने पिछले तीन मौकों पर इसी तरह की स्थिति का सामना किया था, जहां ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्तों को उनके शेष जीवन के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, या एक निश्चित अवधि के लिए छूट के अधिकार के बिना सजा सुना थी या कम से कम 20 साल की सजा सुनाई थी।

    अदालत ने कहा कि श्रीहरन (2015) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मद्देनजर, यह स्पष्ट रूप से अधिकार क्षेत्र के दायरे से बाहर था कि ट्रायल कोर्ट के पास अधिकार है।

    अभियुक्त विकास चौधरी और विकास सिद्धू को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 120बी सहपठित धारा 302, 364ए, 201 के तहत अपराध करने के लिए दोषी ठहराया गया था और उन्हें शेष जीवन के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।

    अभियुक्तों पर एक और शर्त लगाई गई थी कि वे 30 साल के कारावास को पूरा करने से पहले किसी पैरोल, छूट या फर्लो के हकदार नहीं होंगे। अभियुक्तों की ओर से दायर अपील में, दिल्ली हाईकोर्ट ने अपराध के लिए उनकी दोषसिद्धि और साथ ही निचली अदालत द्वारा दी गई सजा की पुष्टि की थी।

    सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दोषसिद्धि और सजा को चुनौती देते हुए, अभियुक्त ने दलील दी कि मृत्युदंड के विकल्प के रूप में आजीवन कारावास या शेष जीवन के लिए कारावास की विशिष्ट अवधि प्रदान करना निचली अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।

    उन्होंने आगे तर्क दिया कि उनके पक्ष में शमनकारी परिस्थितियों और परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट पर न तो निचली अदालत ने विचार किया और न ही हाईकोर्ट ने सजा बरकरार रखते हुए विचार किया।

    अदालत ने माना कि स्वामी श्रद्धानंद बनाम कर्नाटक राज्य, [2008] 11 एससीआर 93 में सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर अपराधों के लिए सजा की एक विशेष श्रेणी विकसित की थी, जहां मौत की सजा को निश्चित वर्षों के लिए आजीवन कारावास से बदल दिया जाता है। यूनियन ऑफ इंडिया बनाम श्रीहरन @ मुरुगन और अन्य, [2015] 14 एससीआर 613 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे अनुमति दी थी।

    अदालत ने कहा,

    "इसलिए यह स्पष्ट है कि निचली अदालतों को मौत की सजा के विकल्प के रूप में इस तरह के एक संशोधित या विशिष्ट अवधि की सजा, या अपराधी के शेष जीवन के लिए आजीवन कारावास से रोक दिया गया है। मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध की सुनवाई करते समय अदालत के पास केवल ये दो विकल्प होते हैं।

    इस प्रकार, पीठ ने टिप्पणी की कि जब भी राज्य मौत की सजा देने का प्रस्ताव करता है और आग्रह करता है, तो उसे अदालत को शमनकारी परिस्थितियों के साथ उत्तेजक कारकों को संतुलित करने की सुविधा प्रदान करने के लिए सामग्री प्रदान करनी होती है- बचन सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, (1980) 2 एससीसी 684 में प्रस्तावित परीक्षण।

    मामले के तथ्यों और इसमें शामिल शमनकारी और गंभीर कारकों पर विचार करने के बाद अदालत ने पाया कि आरोपी ने सुधार और समाज में पुन: एकीकरण की संभावना का एक मजबूत मामला बनाया था। इस प्रकार पीठ ने अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया और आरोपी को दी गई सजा को कम से कम 20 साल के वास्तविक कारावास में बदल दिया।

    केस टाइटल: विकास चौधरी बनाम दिल्ली राज्य


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