कोर्ट यह कैसे निर्धारित करे कि अनुच्छेद 12 के तहत एक प्राधिकरण राज्य है या नहीं? दिल्ली हाईकोर्ट ने बताया

Avanish Pathak

21 Oct 2022 8:12 AM GMT

  • दिल्ली हाईकोर्ट, दिल्ली

    दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने उन दिशानिर्देशों पर विस्तार से चर्चा की है, जिन्हें अदालतों को, भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 के अर्थ के दायरे में प्राधिकरण को "राज्य" कहा जा सकता है, तय करते समय ध्यान में रखना चा‌‌‌हिए।

    चीफ जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और ज‌स्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद की खंडपीठ ने कहा कि एक प्राधिकरण पर राज्य का नियंत्रण की व्यापकता उस हद तक होनी चाहिए कि प्राधिकरण के पास सीमित स्वायत्तता हो।

    कोर्ट ने कहा,

    "यह भूलना नहीं चाहिए कि कल्याणकारी राज्य की आधुनिक अवधारणा में, स्वतंत्र संस्थान, निगम और एजेंसी आम तौर पर राज्य नियंत्रण के अधीन हैं। राज्य नियंत्रण ऐसे निकायों को अनुच्छेद 12 के तहत 'राज्य' के रूप में प्रस्तुत नहीं करता है। राज्य नियंत्रण, हालांकि विशाल और व्यापक, निर्धारक नहीं है। राज्य द्वारा वित्तीय योगदान भी निर्णायक नहीं है।"

    कोर्ट ने एक प्राधिकरण के प्रबंधन और नीतियों पर "असामान्य नियंत्रण" के साथ राज्य सहायता के संयोजन पर भी विचार किया, जिससे एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक सेवा प्रदान की जा सकती है, यह भी प्रतिबिंबित हो सकता है कि उक्त निकाय एक राज्य है।

    अदालत ने कहा,

    "अगर सरकार कॉरपोरेट पर्दे के पीछे काम करती है, सरकारी गतिविधियों और महत्वपूर्ण सार्वजनिक महत्व के सरकारी कार्यों को अंजाम देती है, तो संविधान के अनुच्छेद 12 के अर्थ में निकाय को"राज्य" के रूप में पहचानने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है।"

    इस बात पर जोर देते हुए कि प्राधिकरण एक राज्य है या नहीं, यह तय करने के लिए कोई स्पष्ट सूत्र नहीं है, अदालत ने कहा कि सरकार की शक्तियां, कार्य, वित्त और नियंत्रण प्रश्न का उत्तर देने के लिए संकेत देने वाले कुछ कारक हैं।

    पीठ ने यह भी कहा कि यदि कोई प्राधिकरण एक राज्य है तो निर्णय लेने के अन्य कारकों में एक गहरा और व्यापक राज्य नियंत्रण का अस्तित्व शामिल हो सकता है और यदि संस्था के कार्य सरकारी कार्यों से संबंधित सार्वजनिक महत्व के हैं।

    बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों पर भरोसा करते हुए जोड़ा कि ये केवल संकेत हैं और किसी भी मामले में निर्णायक नहीं हैं।

    पीठ ने एकल न्यायाधीश के आदेश के खिलाफ दायर एक अपील को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की, जिसने फैसला सुनाया था कि रत्न और आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद (जीजेईपीसी) भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत राज्य के दायरे में नहीं आती है।

    खंडपीठ ने आक्षेपित आदेश को बरकरार रखते हुए कहा कि जीजेईपीसी द्वारा किए गए कार्यों को सार्वजनिक कर्तव्य नहीं कहा जा सकता है।

    मेमोरेंडम ऑफ एसोस‌िएशन ऑफ जीजेईपीसी और एसोसिएशन के आलेखों को ध्यान में रखते हुए अदालत ने कहा कि परिषद का प्राथमिक कार्य रत्न और आभूषण के निर्यात का समर्थन, सुरक्षा, रखरखाव और बढ़ावा देना और निर्यातकों और सरकार के बीच एक नोडल एजेंसी के रूप में कार्य करना है।

    कोर्ट ने कहा,

    "निर्यातकों का एक सामूहिक निकाय होने के नाते परिषद निर्यातकों के हितों/समस्याओं को सरकार के सामने रखती है ताकि सरकार ऐसे निर्णय ले सके जिससे रत्न और आभूषणों के निर्यात को बढ़ावा मिले। सरकार के निर्णय या किसी भी तरह से इन वस्तुओं के निर्यात के संबंध में सरकार की निर्णय लेने की प्रक्रिया के लिए प्रासंगिक है।"

    अदालत ने यह भी देखा कि केंद्र द्वारा जीजेईपीसी को प्रदान किया गया धन पूरी तरह से विशिष्ट योजनाओं और परियोजनाओं के निष्पादन के लिए है, यह सुनिश्चित करना केंद्र सरकार का विशेषाधिकार है कि उक्त धन का दुरुपयोग न हो।

    इसमें कहा गया है कि केवल इसलिए कि केंद्र सरकार जीजेपीईसी की ‌किताबों और खातों का निरीक्षण कर सकती है, यह स्थापित नहीं करता है कि यह परिषद के वित्तीय पहलुओं को नियंत्रित करता है।

    कोर्ट ने कहा,

    "उपरोक्त टिप्पणियों के मद्देनजर, इस न्यायालय की राय है कि विद्वान एकल न्यायाधीश द्वारा नौ जुलाई 2021 को डब्ल्यू.पी. (सी) संख्या 4733/2021 में दिया गया आक्षेपित निर्णय, जिसमें यह माना गया था कि रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं होगा क्योंकि जीजेईपीसी यानी प्रतिवादी संख्या 2, संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत "राज्य" और "अन्य प्राधिकरणों" के दायरे में नहीं आता है, कानूनी रूप से दृढ़ है और इस न्यायालय की ओर से किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।"

    टाइटल: डॉ. जीतरानी उदगाता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य।

    आदेश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

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