'' जब घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 29 के तहत वैधानिक अपील का एक उपाय मौजूद हो तो हाईकोर्ट सीआरपीसी की धारा 482 के तहत शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता " : दिल्ली हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

29 July 2020 10:55 AM GMT

  •  जब घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 29 के तहत वैधानिक अपील का एक उपाय मौजूद हो  तो हाईकोर्ट सीआरपीसी की धारा 482 के तहत शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता  : दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट की एकल न्यायाधीश खंडपीठ ने कहा कि जब प्रोटेक्टशन ऑफ वूमन अगेंस्ट डोमेस्टिक वायलंस एक्ट की धारा 29 के तहत अपील का एक स्पष्ट उपाय मौजूद है तो हाईकोर्ट सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपनी असाधारण शक्ति उपयोग करके किसी याचिका पर विचार नहीं कर सकता।

    न्यायमूर्ति ज्योति सिंह ने कहा कि,

    ''प्रतिवादी की प्रारंभिक आपत्ति ने इस अदालत के समक्ष एक स्पष्ट कानूनी उलझन को जन्म दिया है। जब एक्ट की धारा 29 के तहत वैधानिक अपील का एक वैकल्पिक उपाय याचिकाकर्ता के पास उपलब्ध है तो क्या सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर एक याचिका विचार करने योग्य है?

    अधिनियम के प्रावधानों को पढ़ने से पता चलता है कि अधिनियम की धारा 29 ,उस तारीख से 30 दिनों के भीतर सत्र न्यायालय में अपील करने का प्रावधान करती है, जिस तारीख को मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया आदेश असंतुष्ट व्यक्ति या प्रतिवादी को सर्व किया जाता है या तामील करवाया जाता है।''

    याचिकाकर्ता ने ट्रायल कोर्ट के समक्ष अधिनियम के तहत शिकायत दायर की थी। इस शिकायत के माध्यम से याचिकाकर्ता ने विभिन्न राहतें मांगी थी, जिनमें अधिनियम की धारा 18 के तहत संरक्षण का आदेश, प्रतिवादी द्वारा साझेघर से याचिकाकर्ता को बाहर निकालने से रोकने का आदेश और चिकित्सा खर्च, घरेलू खर्च व किरायें जैसी मौद्रिक राहतें शामिल थी।

    अधिनियम की धारा 21 के तहत तीन नाबालिग बच्चों की हिरासत के संबंध में भी आदेश मांगे गए थे। शिकायत के साथ, याचिकाकर्ता ने विभिन्न अंतरिम राहत मांगने के लिए अधिनियम की धारा 23 के तहत भी एक आवेदन भी दायर किया था। इन्हीं अंतरिम राहतों में से एक राहत यह थी कि प्रतिवादी को निर्देश दिया जाए कि वह याचिकाकर्ता को बच्चों की अस्थायी कस्टडी सौंप दें।

    20 अप्रैल 2020 को, याचिकाकर्ता ने माननीय हाईकोर्ट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 482 के तहत याचिका दायर की थी। जिसमें निम्न निर्देश दिए जाने की मांग की गई थी-

    ''ए- प्रतिवादी को निर्देश दिया जाए कि वह उस पते को प्रस्तुत करें,जहां पर इस समय बच्चों के साथ रह रहा है।

    बी- प्रतिवादी को निर्देश दिया जाए कि जब तक बच्चे उसकी देखभाल व कस्टडी में है,तब तक प्रतिदिन बच्चों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से मिलने की सुविधा प्रदान करें।

    सी- जब तक मामला मध्यस्थता में नहीं निपट जाता है,तब तक तीन नाबालिग बच्चों की अंतरिम कस्टडी याचिकाकर्ता को दे दी जाए अर्थात् दस वर्षीय बेबी ऋद्धि,सात वर्षीय राधिका और तीन वर्षीय बेबी रत्ना।''

    24 अप्रैल 2020 को हाईकोर्ट ने कहा था कि मौजूदा परिस्थितियों में अगर फिजिकली संभव नहीं है तो भावनात्मक अनुपात और मजबूत मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य के लिए बच्चों की मां को उनसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से मिलने दिया जाए।

    इस प्रकार उक्त याचिका में यह आदेश पारित किया गया था और यह एक अंतरिम व्यवस्था की गई थी। जिसके तहत याचिकाकर्ता को स्काइप के माध्यम से बच्चों के साथ बातचीत करने का अधिकार दिया गया था। यह आदेश बाद में भी लागू रहा था क्योंकि 18 अप्रैल 2020 को पुलिस स्टेशन जाने के कारण याचिकाकर्ता स्वयं क्वारंटीन में थी।

    01 जून 2020 को मजिस्ट्रेट ने निर्देश दिया था कि बच्चों की कस्टडी पिता/ प्रतिवादी के पास ही रहेगी। वहीं अंतरिम उपाय के रूप में याचिकाकर्ता को मुलाकात के अधिकार दिए गए थे। जिसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की तरफ से दायर याचिका का निपटारा कर दिया था। साथ ही कहा था कि याचिकाकर्ता की मांग के अनुसार वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की अंतरिम व्यवस्था जारी रहेगी।

    उसके बाद याचिकाकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत एक और याचिका दायर की। जिसमें एक जून 2020 को मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश को रद्द करने की मांग की थी।

    इस अदालत के समक्ष प्रतिवादी के वकील ने आपत्ति जाहिर करते हुए कहा कि वर्तमान में दायर याचिका सुनवाई योग्य नहीं है। वकील ने कहा कि विभिन्न कोर्ट बार-बार यह कह चुका है कि जब अधिनियम की धारा 29 के तहत अपील का एक वैकल्पिक और प्रभावी उपाय उपलब्ध है, तो सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर याचिका का कोई अस्तित्व नहीं है। ''असंतुष्ट पक्षकार के लिए यह ओपन नहीं है कि वह अधिनियम के तहत अपील के उस उपाय को दरकिनार कर दें, जो अपने आप में एक पूर्ण संहिता है।''

    न्यायमूर्ति सिंह ने कहा कि ''कई निर्णयों (सुप्रीम कोर्ट के) का गहरा पठन यह दर्शाता है कि कोर्ट ने समय-समय पर असाधारण शक्तियों के उपयोग के स्पष्ट प्रतिबंध के बारे में बताया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि हाईकोर्ट को तब तक पूर्ण निषेधों से परे नहीं जाना चाहिए, जब तक कि असाधारण परिस्थितियाँ तत्काल और समय पर न्यायिक अंतर्विरोध या जनादेश की मांग न करती हों। जैसा कि इन निर्णयों में से एक में कहा गया है कि ''कानून का मेंटर न्याय है और न्यायिक रूप से एक शक्तिशाली दवा वितरित की जानी चाहिए।''

    न्यायमूर्ति सिंह ने जोर देकर कहा कि हाईकोर्ट की अंतर्निहित शक्तियों को आपराधिक प्रक्रिया संहिता द्वारा प्रदत्त नहीं किया गया है। इसके द्वारा उन्हें सिर्फ सुरक्षित किया जाता है। इनके आयाम को कुछ भी प्रभावित नहीं कर सकता है, फिर भी न्यायालय उस समय अपनी शक्ति के उपयोग पर आत्म सीमाएं लगाता है, जब वैकल्पिक उपाय के विशिष्ट प्रावधान उपलब्ध हो।

    न्यायाधीश ने दोहराया कि अदालत वर्तमान मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखने के बाद इस बात के लिए राजी नहीं है कि उक्त याचिका पर विचार करने के लिए वह सीआरपीसी की धारा 482 के तहत मिली अपनी असाधारण शक्तियों का उपयोग करें। वो भी उस समय जब अधिनियम की धारा 29 के तहत अपील का एक स्पष्ट उपाय मौजूद है।

    न्यायाधीश ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता कोई ऐसा कारण पेश नहीं कर पाई,जो इस न्यायालय को एक अलग दृष्टिकोण अपनाने के लिए मजबूर कर सकें।

    न्यायमूर्ति सिंह ने इस बात को भी स्वीकार किया कि

    "इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में ऐसा कुछ भी दमदार या प्रबल नहीं है,जो इस न्यायालय के तत्काल न्यायिक हस्तक्षेप और विशेष कानून के तहत अधीनस्थ न्यायालय द्वारा प्रयोग किए गए डोमेन में हस्तक्षेप की मांग करता हो।'

    न्यायमूर्ति सिंह ने निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि वर्तमान मामले के तथ्य और परिस्थितियां तत्काल हस्तक्षेप की मांग नहीं करते है,जिसके आधार पर याचिकाकर्ता को वैधानिक अपील के उपाय को दरनिकार करने की अनुमति दी जा सकें। याचिकाकर्ता यह बताने में असमर्थ रही हैं कि अपील का उपाय कैसे और क्यों प्रभावी नहीं है।

    पीठ ने इस तर्क को भी स्वीकार करने से भी इनकार कर दिया कि चूंकि मामला नाबालिग लड़कियों की हिरासत से संबंधित है, इसलिए अपील का उपाय प्रभावपूर्ण नहीं है। पीठ ने साफ किया कि ''विधायिका ने अपने विवेक से सभी आदेशों के खिलाफ अधिनियम की धारा 29 के तहत अपील करने का उपाय प्रदान किया है और कस्टडी से संबंधित आदेशों के लिए कोई अपवाद नहीं बनाया गया है।''

    अदालत का दूसरा विचार यह था कि याचिकाकर्ता ने यह भी नहीं बताया कि क्यों अपील के उपाय का सहारा नहीं ले सकता है और क्यों अपीलीय अदालत कानून व तथ्यों के तहत एक अस्थायी कस्टडी के मामले पर विचार करने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग करने में अक्षम है।

    आदेश की प्रति डाउनलोड करें



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