रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद, पीड़िता ने अपीलकर्ता पर दोष मढ़ने की कोशिश कीः उड़ीसा हाईकोर्ट ने 30 साल बाद (बलात्कार के प्रयास) आरोपी को बरी किया
LiveLaw News Network
14 Dec 2020 9:53 AM IST
उड़ीसा हाईकोर्ट ने शुक्रवार (11 दिसंबर) को 30 साल पहले दायर एक आपराधिक अपील को स्वीकार कर लिया और भारतीय दंड संहिता के धारा 376/511 और 354 के तहत लगाए गए आरोपों से अपीलकर्ता को बरी कर दिया।
न्यायमूर्ति एस के साहू की खंडपीठ अपीलार्थी शत्रुघ्न नाग द्वारा दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसने 1989 के सत्र केस नंबर 6/22 में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, टीटीलागढ़ की अदालत में मुकदमे का सामना किया था।
पृष्ठभूमि
प्राथमिकी के अनुसार, 03 अक्टूबर 1989 को रात को लगभग 9.30 बजे कथित पीड़िता अपने घर के एक कमरे में एक खाट पर अपने छोटे भाई के साथ सो रही थी। उसका बड़ा भाई और भाई की पत्नी बगल के कमरे में सो रहे थे। पीड़िता ने अपने कमरे का बांस का दरवाजा खुला छोड़ रखा था। इसलिए अपीलकर्ता उसके कमरे में घुस गया और उसकी साड़ी को उतारते हुए उससे बलात्कार करने का प्रयास किया।
ट्रायल कोर्ट ने माना था कि अपीलकर्ता का कृत्य निश्चित रूप से बलात्कार के अपराध को करने की दिशा में एक कदम था ''हालांकि कथित पीड़ित के निजी अंग में उसके पुरुष लिंग को ड़ालने का कार्य पूरा नहीं हुआ था।''
ट्रायल कोर्ट ने आगे कहा कि अपीलकर्ता का कृत्य तैयारी के स्तर पर नहीं रुका था,बल्कि यह प्रयास के चरण तक पहुंच गया था,परंतु कथित पीड़िता की आवाज सुनकर उसका भाई और भाई की पत्नी घटनास्थल पर आ गए और आरोपी का अपराध करने का इरादा विफल हो गया था।
इस प्रकार, ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को आरोपित अपराधों का दोषी पाया था।
हाईकोर्ट का आदेश
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि यदि पीड़िता का बयान विश्वास योग्य और भरोसेमंद पाया जाता है, तो इसके लिए किसी परिपुष्टि की आवश्यकता नहीं होती है और न्यायालय इस तरह की गवाही पर काम कर सकता है और अभियुक्त को दोषी ठहरा सकता है।
न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की है कि पीड़िता की गवाही की परिपुष्टि करना कानून की आवश्यकता नहीं है, बल्कि मामले की परिस्थितियों में विवेक का मार्गदर्शन है।
इस पृष्ठभूमि में, न्यायालय ने उल्लेख किया कि,
''अदालत में पीड़िता का बयान बलात्कार का था, लेकिन जब इस बयान की तुलना जांच के दौरान दिए गए बयान से की गई तो कुछ अपूरणीय विसंगतियां पाई गई। बलात्कार के वास्तविक अपराध के संबंध में सबूत पुलिस द्वारा दर्ज किए गए सबूतों से मेल नहीं खाते हैं। पीड़ित को एक विश्वसनीय गवाह नहीं कहा जा सकता है।''
बलात्कार के प्रयास का अपराध
बलात्कार के प्रयास के अपराध के बारे में, अदालत ने कहा कि इस मामले में, यह दिखाने के लिए सामग्री होनी चाहिए कि अपीलकर्ता ने ''हर हाल में पीड़िता के साथ यौन संबंध बनाने का इरादा कर रखा था और उसके द्वारा किए गए कार्य से यह जाहिर होना चाहिए कि वह तैयारी के चरण से आगे बढ़कर प्रयास के चरण तक पहुंच गया था,परंतु बलात्कार के अपराध को करने का उसका इरादा किसी तरह के हस्तक्षेप के कारण पूरा नहीं हो पाया था।''
इस पृष्ठभूमि में, अदालत ने कहा - अगर पीड़ित के अनुसार, खाट से नीचे गिरने के बाद, अपीलकर्ता अपने हाथों से उसके हाथों को दबा रहा था, तो यह स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में उसका मुंह खुला था और वह आराम से शोर कर सकती थी।
रिकॉर्ड पर प्रस्तुत साक्ष्यों के टुकड़ों का विश्लेषण करते हुए, अदालत ने कहा कि पीड़िता के पास चिल्लाने और विरोध करने के कई अवसर थे लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।
न्यायालय ने आगे कहा कि,
विक्टिम का आचरण और उसके भाई के आने पर चिल्लाना,शायद यह स्पष्ट करता है कि इस पूरे कृत्य में एक सहमत पक्षकार थी,परंतु जब उसके भाई ने रात के समय उसे उसी के कमरे में अपीलकर्ता के साथ काम्प्रमाइज पोजिशन में रंगे हाथों पकड़ लिया तो उसने सारे अपराध का दोष अपीलकर्ता पर ड़ालने की कोशिश की, ताकि वह अपने परिवार के सदस्यों के साथ-साथ समाज के सामने भी अपने आप को निर्दोष साबित कर सकें।''
उपर्युक्त चर्चा के मद्देनजर,हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 376/511 और 354 के तहत अपीलकर्ता की सजा को कानून की नजर में टिकने योग्य नहीं पाया।
अंत में, भारतीय दंड संहिता की धारा 457 के तहत अपीलकर्ता को दी गई सजा को रद्द कर दिया गया और उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 448 के तहत दोषी पाया गया।
यह देखते हुए कि अपीलकर्ता सात महीने से अधिक समय तक न्यायिक हिरासत में रहा है और इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि घटना की तारीख को तीस साल से अधिक समय बीत चुका हैं, अदालत ने उसके द्वारा जेल में बिताए गए दिनों को ही पर्याप्त सजा माना है।
केस का शीर्षक - शत्रुघ्न नाग बनाम ओडिशा राज्य, सीआरए नंबर 128/1990
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