केवल गलत प्रावधान का उल्लेख करने से प्राधिकरण की वैधानिक शक्ति कमजोर नहीं होती: गुजरात हाईकोर्ट

Shahadat

20 Aug 2022 5:54 AM GMT

  • गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट ने दोहराया कि प्राधिकरण द्वारा अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए गलत प्रावधान उद्धृत करने मात्र से आदेश अमान्य नहीं होगा। हाईकोर्ट ने कहा कि उक्त आदेश तब तक अमान्य नहीं होगा जब तक यह दिखाया गया है कि ऐसा आदेश अन्यथा क़ानून के अन्य प्रावधानों के तहत पारित किया जा सकता है।

    तदनुसार, जस्टिस एएस सुपेहिया ने रिट याचिकाकर्ता के खिलाफ बेदखली के आदेश को रद्द करने से इनकार करते हुए कहा:

    "याचिकाकर्ता को अपने पिता की मृत्यु के बाद भी प्रतिवादी नगरपालिका की संपत्ति पर कब्जा करने का कोई अधिकार नहीं है, जिसे संपत्ति वर्ष 1971 में 11 महीने के लिए किराए पर दी गई थी। याचिकाकर्ता के मामले में बेदखली अधिनियम के प्रावधानों को ठीक से लागू किया गया है। इसलिए, इस न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।"

    याचिकाकर्ता के किरायेदार-पिता को 1977 में सार्वजनिक परिसर (अनधिकृत कब्जाधारियों की बेदखली) अधिनियम, 1971 की धारा 5 के तहत बेदखली नोटिस जारी किया गया था। हालांकि, सिविल कोर्ट के आदेश के कारण उसे रहने की अनुमति दी गई। वर्तमान आवेदन में याचिकाकर्ता विचाराधीन भूमि पर कब्जा करने के लिए दिए गए उप-मंडल मजिस्ट्रेट के आदेश को चुनौती दे रहा था, जिसमें यह माना गया कि याचिकाकर्ता संपत्ति का अनधिकृत कब्जा करने वाला व्यक्ति है, क्योंकि वह दत्तक पुत्र है, जबकि इस्लामी कानून में गोद लेने का अधिकार नहीं है।

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि वह दत्तक पुत्र होने के नाते 'संरक्षित किरायेदार' है और उसे गुजरात होटल और लॉजिंग हाउस रेट कंट्रोल एक्ट की धारा 5(11)(c)(2) के तहत 'किरायेदार' की परिभाषा पर भरोसा करके बेदखल नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, सुहास एच. पोफले बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड और उसके संपदा अधिकारी मामले के उल्लेख किया गया। याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि बेदखली अधिनियम केवल उन मामलों में लागू होगा जहां अधिनियम के लागू होने के बाद कब्जाधारियों ने अधिकारियों पर कब्जा कर लिया गया है। हालांकि, याचिकाकर्ता ने 1972 से पहले ही इस स्थान पर कब्जा कर लिया था।

    प्रतिवादी ने प्रस्तुत किया कि केवल इसलिए कि उसके पिता के पक्ष में दीवानी वाद का फैसला किया गया है तो इसका मतलब यह नहीं कि पिता के निधन के बाद उसी डिक्री को बढ़ाया जाएगा। प्रतिवादी ने उस संपत्ति के लिए किराए के समझौते को आगे नहीं बढ़ाया, जो नगरपालिका की है।

    इन तर्कों के बाद याचिकाकर्ता ने बताया कि उसे बेदखली अधिनियम की धारा 5 के तहत नोटिस जारी किया गया। वहीं धारा 4 के तहत कोई नोटिस जारी नहीं किया गया, जो ऐसे मामले में उचित प्रावधान है। इसलिए, उसे बेदखल करने की पूरी प्रक्रिया रद्द की जानी चाहिए।

    जस्टिस सुपेहिया ने किराया समझौते के मुद्दे के संबंध में पुष्टि की कि प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता के साथ कोई समझौता नहीं किया। किराया अधिनियम की धारा 4(1) और 4(4) के अनुसार, यह स्पष्ट है कि प्रावधान सरकार या स्थानीय प्राधिकरण परिसरों पर लागू नहीं होंगे। इस प्रकार, याचिकाकर्ता के पिता और याचिकाकर्ता स्वयं किराया अधिनियम के तहत 'संरक्षित किरायेदार' नहीं हो सकते।

    जस्टिस सुपेहिया ने समझाया:

    "इस तरह के समझौते के अभाव में याचिकाकर्ता अपने पिता के नक्शे कदम पर नहीं चल सकता। वह परिसर के कानूनी कब्जे का दावा नहीं कर सकता।"

    जस्टिस सुपेहिया ने गलत प्रावधानों के मुद्दे को हल करने के लिए राम सुंदर राम बनाम भारत संघ और अन्य का उल्लेख किया। उक्त मामले से यह माना गया कि कानून के गलत प्रावधान का हवाला देते हुए सत्ता के प्रयोग को तब तक खराब नहीं किया जब तक कि कानून के उपलब्ध स्रोत का पता लगाने के लिए शक्ति मौजूद है।

    तदनुसार, रिट याचिका खारिज कर दी गई।

    केस नंबर: सी/एससीए/3189/2018

    केस टाइटल: जाफरखान अल्लाराकभाई राधानपुरी बनाम ढोलका नगर पालिका

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