गुजरात हाईकोर्ट ने धार्मिक और शैक्षणिक संस्थानों समेत सभी निजी और सार्वजनिक स्थानों पर मासिक धर्म के आधार पर महिलाओं के सामाजिक बहिष्कार पर रोक लगाने का प्रस्ताव दिया
LiveLaw News Network
9 March 2021 1:08 PM IST
गुजरात उच्च न्यायालय ने सभी स्थानों पर, चाहे वह निजी हो या सार्वजनिक, धार्मिक हों या शैक्षिक, मासिक धर्म की स्थिति के आधार पर महिलाओं के सामाजिक बहिष्कार पर रोक लगाने का प्रस्ताव दिया है।
यह रेखांकित करते हुए कि सभी धर्म (सिख धर्म को छोड़कर) मासिक धर्म की अवधि में महिला को " धार्मिक रूप से अशुद्ध" बताते हैं, गुजरात उच्च न्यायालय ने हाल ही में कई दिशानिर्देश प्रस्तावित किए, जिसे राज्य सरकार को मासिक धर्म निषेध को समाप्त करने के लिए पालन करना चाहिए।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस इलेश जे वोरा की खंडपीठ एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के संबंध में दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें कच्छ के भुज शहर के श्री सहजानंद गर्ल्स इंस्टीट्यूट के एक छात्रावास में 60 से अधिक लड़कियों को कथित तौर पर यह साबित करने के लिए कि वो मासिक धर्म में नहीं हैं, उन्हें नग्न किया गया था।
घटना
रिपोर्ट के अनुसार, 68 अंडरग्रेजुएट लड़कियों को कॉलेज में घुमाते हुए रेस्ट रूप में ले जाया गया, और वहां सभी को यह साबित करने के लिए कि वे मासिक धर्म में नहीं हैं, व्यक्तिगत रूप से अंडरगारमेंट्स उतारने के लिए मजबूर किया गया।
यह घटना तब घटी, जब हॉस्टल रेक्टर ने प्रिंसिपल से शिकायत की कि कुछ लड़कियां धार्मिक मानदंडों का उल्लंघन कर रही थीं, विशेष रूप से मासिक धर्म से संबंधित मानदंडों का।
याचिका
रिट आवेदक (निर्झरी मुकुल सिन्हा) ने मासिक धर्म के आधार पर महिलाओं के बहिष्कार की प्रथा को समाप्त करने के विशेष रूप से कानून बनाने के लिए दिशा-निर्देश देने के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी।
याचिका में दलील दी गई कि मासिक धर्म की स्थिति के आधार पर महिलाओं के बहिष्कार की प्रथा, संविधान में अनुच्छेद 14, 15, 17, 19, और 21 में निहित, मानवीय, कानूनी और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
अवलोकन
कोर्ट ने मामले की शुरुआत में कहा, "हमारे समाज में मासिक धर्म को कलंकित किया गया है। यह कलंक महिलाओं की मासिक धर्म की अवधि में अशुद्धता संबंधि हमारी पारंपरिक मान्यताओं और सामान्य रूप से इस पर चर्चा करने की हमारी अनिच्छा के कारण बना है।"
कोर्ट ने कहा कि कई लड़कियों और महिलाओं को दैनिक जीवन में मासिक धर्म के कारण प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है।
"पूजा" कक्ष में प्रवेश नहीं करना, शहरी लड़कियों पर प्रमुख प्रतिबंध है, जबकि, रसोई में प्रवेश नहीं करना मासिक धर्म की अवधि में ग्रामीण लड़कियों पर प्रमुख प्रतिबंध है। मासिक धर्म की अवधि में लड़कियों और महिलाओं को पूजा करने और पवित्र पुस्तकों को छूने से प्रतिबंधित कर दिया जाता है।"
न्यायालय ने यह भी कहा कि इस मिथक का अंतर्निहित आधार मासिक धर्म से जुड़ी अशुद्धता का सांस्कृतिक विश्वास है और यह माना जाता है कि मासिक धर्म में महिलाएं अस्वच्छ और अशुद्ध होती हैं और इसलिए वे जो भोजन तैयार करती हैं या संभालती हैं, वह दूषित हो सकता है।
न्यायालय ने कहा कि कई कम विकसित देशों में बड़ी संख्या में लड़कियों को मासिक धर्म शुरू होने पर (भारत में 23% से अधिक) स्कूल छोड़ना पड़ता है।
कोर्ट ने कहा, "मासिक धर्म के संबंध में इस प्रकार की वर्जनाएं कई समाजों में मौजूद हैं, जिनका लड़कियों और महिलाओं की भावनात्मक, मानसिक स्थिति, जीवन शैली और स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है।"
इस संबंध में, न्यायालय ने कहा कि युवा लड़कियां अक्सर मासिक धर्म के सीमित ज्ञान के साथ बड़ी होती हैं क्योंकि उनकी मां और अन्य महिलाएं उनके साथ इन मुद्दों पर चर्चा करने से कतराती हैं। मासिक धर्म के बारे में स्कूली शिक्षकों में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है।
न्यायालय ने यह भी कहा कि लैंगिक रूप से असंवेदनशील स्कूल संस्कृति और बुनियादी ढांचा, मासिक धर्म संरक्षण विकल्पों का अभाव और / या स्वच्छ, सुरक्षित और निजी स्वच्छता सुविधाओं की कमी महिला शिक्षकों और लड़कियों की गोपनीयता के अधिकार को कमजोर करता है।
कोर्ट ने कहा, "भारत में 88% महिलाएं मासिक धर्म में राख, अखबार, सूखे पत्ते और भूसी रेत का इस्तेमाल करती हैं। खराब सुरक्षा और धोने की अपर्याप्त सुविधाओं से संक्रमण की आशंका बढ़ सकती है, मासिक धर्म के खून की गंध से लड़कियों को कलंकित होने का खतरा होता है।"
कोर्ट ने कहा, "मासिक धर्म संबंधित सामाजिक-सांस्कृतिक वर्जनाओं और मान्यताओं को संबोधित करने की चुनौती, इस तथ्य से और अधिक जटिल हो जाती है कि लड़कियों में प्यूबर्टी, मासिक धर्म और प्रजनन स्वास्थ्य की समझ बहुत कम है।"
कोर्ट ने मामले में राज्य सरकार के को निम्नलिखित निर्देश 'प्रस्तावित' किए;
-सभी स्थानों, वह यह निजी हो या सार्वजनिक, धार्मिक हो या शैक्षिक, पर मासिक धर्म की स्थिति के आधार पर महिलाओं का सामाजिक बहिष्कार प्रतिबंधित हो;
-राज्य सरकार को नागरिकों में मासिक धर्म की स्थिति के आधार पर महिलाओं के सामाजिक बहिष्कार के सबंध में विभिन्न माध्यमों से जागरूकता फैलानी चाहिए जैसे कि सार्वजनिक स्थानों पर पोस्टर लगाना, इस मुद्दे को स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल करना, रेडियो, मनोरंजन या समाचार चैनलों जैसे दृश्य-श्रव्य माध्यमों का उपयोग करना और लघु फिल्में आदि;
-शिक्षा के माध्यम से महिलाओं का सशक्तिकरण और निर्णय लेने में उनकी भूमिका बढ़ाना भी इस संबंध में सहायता कर सकता है;
-मासिक धर्म जीव विज्ञान के बारे में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का संवेदीकरण भी किया जाना चाहिए ताकि वे समुदाय में इस ज्ञान का प्रसार कर सकें और मासिक धर्म से संबंधित मिथकों का पर्दाफाश करने के लिए सामाजिक समर्थन जुटा सकें। किशोरों के अनुकूल स्वास्थ्य सेवा क्लीनिकों के पास इन मुद्दों को हल करने के लिए प्रशिक्षित लोग होने चाहिए;
-राज्य सरकार को इस तरह की जागरूकता फैलाने के लिए अभियान, अभियान चलाना चाहिए, जिसमें गैर सरकारी संगठनों और अन्य निजी संगठनों को शामिल करना चाहिए;
-राज्य सरकार को सभी मौजूदा अभियानों/ योजनाओं में मासिक धर्म की स्थिति के आधार पर महिलाओं के सामाजिक बहिष्कार के मुद्दे को शामिल करना चाहिए;
-राज्य सरकार को निर्देशों के कार्यान्वयन के लिए आवश्यक धन आवंटित करना चाहिए;
-राज्य सरकार को सभी शैक्षणिक संस्थानों, छात्रावासों और रहने की जगहों को, वह निजी या सार्वजनिक, जो भी हों, उन्हें किसी भी तरीके से महिलाओं के सामाजिक बहिष्कार करने से निषिद्ध करना चाहिए;
-राज्य सरकार को औचक निरीक्षण करना चाहिए, एक उपयुक्त तंत्र बनाना चाहिए और इस तरह के अन्य कार्यों को करना चाहिए, इसके अनुपालन के लिए कदम उठाने की आवश्यकता हो सकती है, जिसमें गलती करने वाले संस्थान के खिलाफ उचित जुर्माना लगाना भी शामिल है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उक्त मामले में उपरोक्त निर्देश प्रथमदृष्टया अवलोकन है।
हालांकि, उचित निर्देश जारी करने से पहले, जैसा कि ऊपर कहा गया है, कोर्ट ने राज्य सरकार के साथ-साथ यूनियन ऑफ इंडिया से भी जवाब मांगा।
कोर्ट ने कहा, "हम इस तथ्य से अवगत हैं कि हम एक बहुत ही नाजुक मुद्दे से निस्तारण कर रहे हैं और इसलिए, इस न्यायालय के लिए सभी उत्तरदाताओं और अन्य हितधारकों को सुनना आवश्यक है।"
न्यायालय ने प्रतिवादियों को नोटिस जारी करने का निर्देश दिया और 30 मार्च, 2021 तक जवाब दाखिल करने के लिए कहा।
केस टाइटिल- निर्झरी मुकुल सिन्हा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया [R/ Writ Petiion (PIL) No.38 of 2020]
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