यूके की सुप्रीम कोर्ट से क्या सीख सकता है भारत का सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

24 Sep 2019 4:10 AM GMT

  • यूके की सुप्रीम कोर्ट से क्या सीख सकता है भारत का सुप्रीम कोर्ट

    मनु सेबैस्टीयन

    न्यायालयों में प्रमुख संवैधानिक चुनौतियां अक्सर राजनीतिक रंग लिए होती हैं। यदि प्रश्न बहुत ज़्यादा राजनीतिक हैं, तो न्यायालय यह कहते हुए कि वह राजनीतिक सवालों में नहीं फँसना चाहते और अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने से इंकार कर सकते हैंं, लेकिन अगर मामला नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन से संबंधित है तो कोर्ट को इस आधार पर कि मामला राजनीति सम्बंधित है, ख़ुद को त्वरित फैसला देने से नहीं रोकना चाहिए।

    इस तरह के कई मामलों के लिए समय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवैधानिक चुनौतियों के प्रति न्यायालय का धीमा प्रत्युत्तर असंवैधानिकता की आयु को और आगे बढ़ा सकता है। राजनीति से जुड़े गंभीर संवैधानिक सवालों के प्रति यूके और भारत के सुप्रीम कोर्टों का प्रत्युत्तर एक दूसरे से विपरीत तस्वीर पेश करता है।

    यूके के सुप्रीम कोर्ट ने 19 सितम्बर को वहाँ के "अब तक के सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण संवैधानिक मामले" पर सुनवाई पूरी कर ली। 16 सितम्बर से वहाँ की सुप्रीम कोर्ट की 11 जजों की पीठ ने लगातार तीन दिन तक प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन द्वारा संसद के सत्रावसान की संवैधानिकता के ख़िलाफ़ दायर मामले की सुनवाई की। अदालत ने कहा कि अगले सप्ताह के शुरू में इस मामले पर फ़ैसला सुनाया जा सकता है।

    ऐसा करना दो कारणों से बहुत ही उल्लेखनीय है – अदालत की त्वरित प्रतिक्रिया और अदालती कार्रवाई में पारदर्शिता और खुलापन।

    यह मामला काफ़ी बड़े हद तक राजनीतिक है और इसमें जो फ़ैसला आएगा उसका वहाँ की वर्तमान सरकार की सेहत पर बड़ा असर पड़ेगा। विपक्ष ने आरोप लगाया है कि बोरिस जॉनसन ने संसद का सत्रावसान इसलिए कर दिया क्योंकि वह नो-डील ब्रेक्सिट विधेयक पर किसी भी बहस को रोकना चाहते थे ताकि उसे 31 अक्टूबर तक पास किया जा सके।

    संसद का 9 सितम्बर से 14 अक्टूबर तक सत्रावसान की घोषणा प्रधानमंत्री ने 28 अगस्त को की। इसे देश के सर्वोच्च अदालत इंग्लैंड एंड स्कॉट्लैंड में चुनौती दी गई। अदालत ने इस मामले की त्वरित सुनवाई कर दी और इस मामले का निर्णय अब वह कभी भी कर सकता है।

    लंदन की हाईकोर्ट ने इस मामले को दी गई चुनौती को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि संसद के सत्रावसान की न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती। पर देश की सर्वोच्च अदालत ने अलग रुख अपनाते हुए सत्रावसान को ग़ैरक़ानूनी क़रार दिया और सांसदों के एक समूह द्वारा दायर याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया। स्कॉटलैंड अदालत ने कहा कि इस सत्रावसान का उद्देश्य "संसद को कलंकित करना था"।

    सुप्रीम कोर्ट में इन दोनों फ़ैसलों के ख़िलाफ़ अपील की गई जिसके बाद अदालत ने 16 से 19 सितम्बर के बीच इस मामले की सुनवाई की। इस मामले की सुनवाई करने वाली पीठ की प्रमुख लेडी हेल ने कहा कि "ज़ाहिर कारणों" से इस मामले की अपील अल्प सूचना पर सुनी जाएगी।

    भारत की स्थिति

    लगभग इसी दौरान, भारत के सुप्रीम कोर्ट में भी इसी तरह के महत्त्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दे सुनवाई के लिए आए। केंद्र सरकार ने जब जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त किया तो सरकार के इस क़दम पर सवाल उठाते हुए कई याचिकाओं के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी गई। याचिकाकर्ताओं ने राज्य में संचार माध्यमों पर पाबंदी और वहाँ जारी बंदी को भी चुनौती दी थी। लोगों को ग़ैरक़ानूनी तरीक़ों से जेल में बंद करने के ख़िलाफ़ बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएँ भी दायर की गई थीं, लेकिन अदालत ने इस मामले में किसी भी तरह की बेचैनी नहीं दिखाई।

    13 अगस्त को जब सुप्रीम कोर्ट में राज्य में संचार माध्यमों पर पाबंदी और राजनीतिक नेताओं की नज़रबंदी के मामले को अधिसूचित किया गया तो अदालत ने मामले को सीधे यह कहते हुए स्थगित कर दिया कि सरकार को राज्य में स्थिति को सामान्य करने के लिए कुछ समय चाहिए।

    28 अगस्त को सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने उन्हें राज्य में जाने और जम्मू-कश्मीर के पूर्व विधायक एमवाई तारीगामी से मिलने की अनुमति दे दी। येचुरी ने तारीगामी को रिहा करने की माँग की थी। पर अपने आदेश में अदालत ने सरकार से यह तक नहीं पूछा कि उन्हें किस आधार पर हिरासत में लिया गया है।

    उसी दिन अदालत ने अनुच्छेद 370 के तहत राष्ट्रपति के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका को एक संविधान पीठ को सौंप दिया जिसकी सुनवाई अक्टूबर में कभी होनी है।

    जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फ़ारूक़ अब्दुल्ला को रिहा करने के लिए एमडीएमके के नेता वाइको की याचिका पर अदालत ने केंद्र सरकार को जवाब देने के लिए दो सप्ताह का समय दिया।

    जहाँ तक तारीगामी का मामला था, अदालत ने उन्हें इलाज के लिए दिल्ली में एम्स अस्पताल लाने का आदेश दिया और इलाज के बाद उन्हें वापस कश्मीर जाने की अनुमति दी। पर किसी भी आदेश में सरकार से यह नहीं पूछा गया कि इन लोगों को गिरफ़्तार क्यों किया गया है। अदालत ने मुख्य मुद्दे की सुनवाई स्थगित कर दी पर अगली सुनवाई की कोई तारीख़ नहीं बताई और कहा, "याचिकाकर्ता, जिसके बारे में आरोप लगाया गया है कि उसे 05.08.2019 से ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से हिरासत में रखा गया है, की कथित गिरफ़्तारी की वैधता पर निर्णय के लिए इस याचिका को खुला रखा गया है"।

    क्या निजी स्वतंत्रता के प्रश्न वाले मुद्दे को "अनिश्चित काल के लिए खुला रखा जा सकता है"?

    16 सितम्बर को जब जम्मू -कश्मीर में बंदी 42वें दिन में प्रवेश कर गया, अदालत ने एक आदेश पास किया जिसमें उसने कहा कि सरकार को कश्मीर में सामान्य स्थिति बहाल करने की कोशिश करनी चाहिए पर यह राष्ट्रीय सुरक्षा के हित से बंधा होगा। याचिकाकर्ता हर दिन यह बता रहे थे कि राज्य में कर्फ़्यू ग़ैर आनुपातिक है जिसकी वजह से वहाँ आम नागरिकों का दैनिक जीवन प्रभावित हो रहा है। पर अदालत ने प्रथम दृष्ट्या इसकी वैधता, उसकी उपयुक्तता और आनुपातिकता की जाँच करने की कोई कोशिश नहीं की। बदले में उसने एक खोखला आदेश पारित किया जिसमें राज्य में सामान्य स्थिति बहाल करने को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ दिया। यह आदेश इतना अस्पष्ट है कि वहाँ यथास्थिति को जारी रखे जाने का पर्याप्त मौक़ा है।

    ऐसी उम्मीद थी कि कश्मीर में बच्चों को ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से हिरासत में रखने के ख़िलाफ़ याचिका को शायद अदालत जल्दी सुनवाई करने को उद्यत होगी। जब इस याचिका को पहली बार अधिसूचित किया गया, अदालत ने जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट से एक रिपोर्ट तलब किया कि वह सुनवाई करने की स्थिति में है कि नहीं। ऐसा याचिकाकर्ता के इस दावे की जाँच करने के लिए किया गया कि सुप्रीम कोर्ट में सीधे याचिका इसलिए दायर की गई क्योंकि राज्य में बंदी के कारण याचिकाकर्ता के लिए हाईकोर्ट जाना आसान नहीं था।

    इस याचिका पर नोटिस जारी करने के लिए अदालत ने चार दिन का समय लिया और इन आरोपों के बारे में जूविनायल जस्टिस कमिटी से रिपोर्ट माँगी। कमिटी को इसका जवाब देने के लिए एक सप्ताह का समय दिया गया।

    अपनी संवैधानिक दायित्वों के बारे में सतर्क अदालत कम से कम बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर तो अब तक फ़ैसला दे दी होती। दुर्भाग्य से इन मामलों में सुप्रीम कोर्ट का रवैया टाल-मटोल वाला और दुखद रहा है।

    यह पिछले कुछ समय से चले आ रहे एक ट्रेंड का ही एक और उदाहरण है. हाल में, जब भी सार्वजनिक महत्व के ऐसे मामले जो राजनीति से जुड़े थे, पर निर्णय का मौक़ा आया, अदालत इन पर टाल-मटोल का रवैया अपनाती रही है। नोटबंदी और चुनावी बॉंड के मामले में यही हुआ।

    नवम्बर 2016 में नोटबंदी की घोषणा के बाद इस फ़ैसले को चुनौती देने वाली कई याचिकाएँ सुप्रीम कोर्ट में उन दिनों दायर की गई। इन याचिकाओं में कई सारे क़ानूनी मुद्दे उठाए गए थे जैसे कि क्या सरकार ने आरबीआई बोर्ड से सलाह लिए बिना यह घोषणा की। 25 नवम्बर 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की संवैधानिकता की जाँच की सुनवाई करने पर सहमत हो गई। पर इस याचिका की अभी तक सुनवाई की तिथि नहीं दी गई है जबकि कई टिप्पणीकारों का कहना है देश में आर्थिक मंदी का कारण नोटबंदी है।

    चुनावी बांड्ज़ के ख़िलाफ़ दायर याचिका का भी यही हश्र हुआ। वित्त अधिनियम 2017 में इस बॉंड के लिए क़ानून में संशोधन की घोषणा की गई और उसके पास होने के तुरंत बाद ये याचिकाएँ दायर की गईं । हालाँकि, इस मामले को मार्च 2019 में जीवित किया गया पर इस समय तक लगभग सारे चुनावी बॉंड ख़रीदे जा चुके थे। इन मामलों पर समय रहते ग़ौर नहीं करना बहुत बड़ी चिंता की बात है जैसा कि चुनाव आयोग ने ख़ुद कहा है कि इस योजना का देश में राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता पर ख़तरनाक असर पड़ेगा।

    खुला न्याय

    मामले की सुनवाई में खुलापन और पारदर्शिता यूके की अदालत का एक और उल्लेखनीय पक्ष है। इस मामले की सुनवाई का पूरी तरह सीधा प्रसारण किया गया। पार्टियों के लिखित बयानों को वेबसाइट पर अपलोड किया गया। इस मामले के बारे में महत्त्वपूर्ण अप्डेट्स को यूके सुप्रीम कोर्ट के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से जारी किया गया।

    यह अदालत के लोकतांत्रिक प्रकृति को प्रकट करता है। यह इस बात का संकेत देता है कि अदालत कोई आभिजात्य या विशिष्ट संस्थान नहीं है जो सार्वजनिक साझेदारी से दूर ही रहता है। आम लोगों को न्यायिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए उत्साहित करना उसे ज़्यादा सार्थक बनाता है।

    भारत में सुप्रीम कोर्ट ने सितम्बर 2018 में ही अदालती कार्यवाही के सीधा प्रसारण की अनुमति दे दी थी। अदालत की कार्यवाहियों का सीधा प्रसारण जनता के जानने के अधिकार को मूर्त रूप देगा और न्यायिक प्रक्रिया में इससे ज़्यादा पारदर्शिता आएगी, उस समय अदालत ने ऐसा कहा था। पर इसके एक साल बाद भी इस निर्णय पर अमल नहीं हुआ है।

    कहा जाता है कि भारतीयों में 'पश्चिम की ओर देखने' की यह धारणा सदियों की औपनिपेशिक शासन के कारण है।

    लेकिन इस संदर्भ में, यूके की सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी स्तर से, एक बहुत ही उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया है। भारत का सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक महत्व के मामलों की तुरंत सुनवाई करने के बारे में यूके की सुप्रीम कोर्ट से बहुत कुछ सीख सकता है।

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