कुछ डॉक्टर आर्थिक लाभ के लिए मानव जीवन की घोर उपेक्षा कर रहे हैं, इस महान पेशे को बदनाम कर रहे हैं: उड़ीसा हाईकोर्ट

Avanish Pathak

18 Aug 2023 8:42 AM GMT

  • कुछ डॉक्टर आर्थिक लाभ के लिए मानव जीवन की घोर उपेक्षा कर रहे हैं, इस महान पेशे को बदनाम कर रहे हैं: उड़ीसा हाईकोर्ट

    Orissa High Court

    उड़ीसा हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि भारत में डॉक्टर का स्थान भगवान के बाद माना जाता है, हालांकि कुछ चिकित्सक आर्थिक लाभ की उम्मीद में मानव जीवन की घोर उपेक्षा कर रहे हैं। इस प्रकार, वह इस महान पेशे को बदनाम कर रहे हैं।

    कोर्ट ने कहा,

    "यह सच है कि कोई भी समझदार पेशेवर, विशेष रूप से एक डॉक्टर जानबूझकर कोई कार्य नहीं करेगा या ऐसा कार्य करने से चूक जाएगा, जिसके परिणामस्वरूप जीवन की हानि हो। आपातकालीन स्थिति में एक चिकित्सक निश्चित रूप से रोगी का इलाज करने के लिए अपने स्तर पर सर्वश्रेष्ठ प्रयास करेगा। आम तौर पर अपने मरीज को मरने के लिए नहीं छोड़ सकता। भारत में जनता आमतौर पर डॉक्टर को भगवान के बाद देखती है,लेकिन निश्चित रूप मामले में कुछ विपथन हैं।"

    जस्टिस गौरीशंकर सतपथी की पीठ ने वर्ष एक डॉक्टर की ओर से दायर याचिका को खारिज करते हुए उक्त टिप्‍पण‌ियां की।

    डॉक्टर पर आरोप है कि 2009 में उसकी ओर से की गई क‌थ‌ित लापरवाही के कारण एक मरीज की मौत हो गई, जिसके बाद उस पर आईपीसी की धारा 304-ए (लापरवाही से मौत) के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी।

    कोर्ट ने कहा कि मृत्यु याचिकाकर्ता/डॉक्टर की घोर लापरवाही के कारण हुई, यह तथ्य का प्रश्न है। इसका उत्तर साक्ष्य मिलने के बाद मुकदमे में दिया जा सकता है। हालांकि, जांच एजेंसी ने जो सामग्री जुटाई है, उसे को ध्यान से देखने पर यह पता चलता है कि उनके खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है।

    तथ्य

    घटना के समय याचिकाकर्ता-अभियुक्त डॉ बिस्वा मोहन मिश्रा मेडिसिन स्पेशलिस्ट के रूप में भुवनेश्वर नगर निगम अस्पताल से जुड़े थे। एक जुलाई 2009 को, मृतक को बीएमसी अस्पताल के मेडिसिन वार्ड में भर्ती कराया गया था, जहां याचिकाकर्ता डॉक्टर ने उसका इलाज किया था।

    चूंकि मृतिका का हीमोग्लोबिन कम था और उसकी हालत खराब होती जा रही थी, उसके चाचा ने याचिकाकर्ता और बीएमसी अस्पताल के कर्मचारियों से उसके इलाज के लिए तुरंत उसे रक्त चढ़ाने का अनुरोध किया।

    अस्पताल की ओर से उसे रक्त देने का आश्वासन दिया गया, लेकिन उन्होंने दिया नहीं और बाद में, कथित तौर पर याचिकाकर्ता की लापरवाही के कारण आधी रात को मरीज की मृत्यु हो गई।

    एफआईआर रद्द करने के लिए दायर अपनी याचिका में याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 304-ए के तहत प्रथम दृष्टया मामला बनाने के लिए कोई सामग्री नहीं है।

    उसने तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता ने मृतक के परिवार के सदस्यों को उसके पेट और पेल्विस की अल्ट्रा सोनोग्राफी (यूएसजी) कराने की सलाह दी थी ताकि रोग का निदान किया जा सके और इलाज ठीक से हो सके, हालांकि, ऐसा नहीं हुआ। मरीज की मौत हो गई और इसके लिए मरीज के परिजन जिम्मेदार थे।

    दूसरी ओर, राज्य सरकार के वकील ने तर्क दिया कि डॉ सुजाता द्वारा बार-बार टेलीफोन कॉल और अनुरोध किए जाने के बावजूद, याचिकाकर्ता ने मरीज को देखने के लिए आने से इनकार कर दिया, बल्कि उसने मरीज को किसी भी निजी नर्सिंग होम में स्थानांतरित करने के लिए कहा। यह सार्वजनिक कर्तव्य का स्पष्ट उल्लंघन है और घोर लापरवाही है।

    इस संबंध में, याचिकाकर्ता के मोबाइल फोन नंबर और बीएमसी अस्पताल के लैंडलाइन नंबर की कॉल डिटेल रिपोर्ट (सीडीआर) अदालत के समक्ष पेश की गई। याचिकाकर्ता ने कहा कि उसने अपना कर्तव्य नहीं निभाया है और इसलिए, घोर लापरवाही के लिए पूरी तरह से उत्तरदायी है।

    निष्कर्ष

    मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने शुरुआत में डॉ सुरेश गुप्ता बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार और अन्य, 2004 मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया था कि यदि किसी डॉक्टर द्वारा की गई लापरवाही की डिग्री इतनी गंभीर है और उसका कार्य इतना लापरवाह है कि रोगी के जीवन को खतरे में डाल सकता है, तो उसे आईपीसी की धारा 304-ए अपराध के लिए आपराधिक रूप से उत्तरदायी बनाया जा सकता है। न्यायालय ने जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य 2005 के मामले में शीर्ष न्यायालय के फैसले का भी उल्लेख किया।

    इसके अलावा, अदालत ने मामले में डॉक्टर के खिलाफ मेडिकल बोर्ड की प्रतिकूल और नकारात्मक राय को भी ध्यान में रखा।

    अदालत ने आरोप पत्र पर भी गौर किया जिसमें कहा गया है कि डॉ सुजाता ने कहा है कि उचित कार्रवाई करने के लिए 1-2 जुलाई 2009 को रात 10.45 बजे से 12.25 बजे के बीच उनके बार-बार टेलीफोन अनुरोध के बावजूद, याचिकाकर्ता (डॉक्टर बीएम मिश्रा) ने मरीज को देखने आने से इनकार कर दिया, और टेलीफोन पर ही जवाब दिया कि मरीज (मृतक) को किसी निजी नर्सिंग होम में स्थानांतरित कर दिया जाए।

    कोर्ट ने प्रथम दृष्टया याचिकाकर्ता के खिलाफ मामला पाते हुए उसकी याचिका खारिज कर दी, हालांकि, ट्रायल कोर्ट को सुनवाई में तेजी लाने और छह महीने की अवधि के भीतर मामले का निपटारा करने का निर्देश दिया।

    केस टाइटल- डॉ. बिश्व मोहन मिश्रा बनाम ओड़िशा राज्य [CRLMC NO.1002 of 2017]

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