बीज कंपनियों के साथ उपज की ख़रीद का समझौता करने वाला किसान 'उपभोक्ता': सुप्रीम कोर्ट
LiveLaw News Network
15 March 2020 9:15 AM GMT
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत अगर कोई किसान शिकायत दर्ज करता है तो वह उपभोक्ता की श्रेणी में आएगा। अदालत ने कहा कि अगर किसान किसी बीज कंपनी के साथ फ़सल ख़रीद लेने का क़रार करता है तो भी वह उपभोक्ता माना जाएगा।
पृष्ठभूमि
एक किसान ने बुवाई के लिए एक बीज कंपनी से ₹400 प्रति किलो की दर से 750 किलो गीली मुसली की ख़रीदी की और अपने खेत में इसकी बुवाई की। कंपनी ने इस किसान से उसकी उपज की वापस ख़रीद (Buyback) नहीं की जिसकी वजह से इस फसल का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो गया जिसके बाद किसान ने उपभोक्ता फ़ोरम में शिकायत की।
ज़िला उपभोक्ता मंच ने उसकी शिकायत यह कहते हुए ठुकरा दी कि वह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत उपभोक्ता की परिभाषा के अंतर्गत नहीं है, लेकिन राज्य आयोग ने इस आदेश को रद्द कर दिया और कहा कि इस मामले पर उसकी मेरिट के हिसाब से सुनवाई हो। राष्ट्रीय आयोग ने राज्य आयोग के इस आदेश को सही ठहराया।
सुप्रीम कोर्ट में कंपनी ने दो मुद्दे उठाए। पहला, किसान से फ़सल की वापस ख़रीद का क़रार जिसका मतलब दुबारा बिक्री है, धारा 2(d) में नहीं आता। दूसरा, किसान ने मुसली की बुवाई और उसकी बिक्री वाणिज्यिक उद्देश्य के लिए की थी न कि आजीविका चलाने के लिए और इसलिए भी यह धारा 2(d) में नहीं है।
न्यायमूर्ति एमएम शांतनगौदर और न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी ने मामले की सुनवाई के क्रम में कहा कि इस कारोबार को रि-सेल (दुबारा बिक्री) नहीं कहा जा सकता। पीठ ने इस दलील को भी ख़ारिज कर दिया कि त्रिपक्षीय क़रार रि-सेल जैसा है क्योंकि इसमें वापसी ख़रीद का क्लाज़ जुड़ा है और इसलिए किसान को "उपभोक्ता" नहीं माना जा सकता।
उसने कहा, "इस तरह के मामले में किसान बीज कंपनी से बीज ख़रीदते हैं या कई बार बीज कंपनी ही उनसे बीज ख़रीदने तैयार करने का आग्रह करती हैं ताकि वह उनका विपणन कर सके। इस प्रस्ताव को मान लेने का मतलब यह है कि किसान बीज तैयार करेगा और कंपनी बीज बेचेगी।
इस तरह किसान अपने बीज की रि-सेल नहीं करता। यह सही है कि किसानों को अपना उत्पाद खुले बाज़ार में बेचना पड़ता है ताकि वे अपनी आजीविका चला सकें, लेकिन इसे रीसेल नहीं कहा जा सकता और इसलिए वह उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं आ सकता।
पीठ ने कहा कि किसानों को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की परिधि से बाहर रखना इस क़ानून का मज़ाक़ होगा। पीठ ने बीज कंपनियों की इस बात के लिए भी आलोचना की कि वे बात-बात में किसानों के ख़िलाफ़ मुक़दमे का सहारा लेते हैं और इस तरह शीघ्रता से समाधान के उद्देश्य को समाप्त कर देते हैं।
अदालत ने देश में किसानों की स्थिति की भी चर्चा की और कहा कि खेती के योग्य ऊपरी ज़मीन का क्षरण, खाद्य वस्तुओं, जल और मिट्टी का विषैले खाद और कीटनाशकों के कारण प्रदूषित होने, मौसम की मार और पर्यावरण में गड़बड़ी के कारण कई तरह की मुश्किलों का सामना किसानों को करना पड़ रहा है। इसकी वजह से किसानों में कैन्सर जैसी बीमारियां फैल रही हैं। मशीनीकरण के किसानों की उन्नति तो हुई है पर इसकी उन्हें भारी क़ीमत चुकानी पड़ी है।
छोटी जोत वाले अधिकांश किसानों को सिंचाई, बिजली, बीज, खाद और कीटनाशकों पर ज़्यादा ख़र्च करना पड़ता है पर उपज से इतनी आय नहीं होती कि लागत भी उनको मिल जाए…फिर एक के बाद एक फ़सल के असफल होने के कारण पूरे सीज़न के लिए किसानों की आय मारी जाती है…उनकी वित्तीय मुश्किलें बढ़ जाती हैं…वे क़र्ज़ में फंसने की वजह से कई बार इसकी परिणति उनकी आत्महत्या में होती है…।"
अदालत ने कंपनी पर मुक़दमे की लागत के रूप में ₹25,000 का जुर्माना लगाया और इस मामले को निरस्त कर दिया।
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