'उचित और वैध आलोचना स्वागतयोग्य, मगर यह द्वेषरहित हो': कलकत्ता हाईकोर्ट ने कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश को हटाने को लेकर लिखे पश्चिम बंगाल बार काउंसिल के पत्र विवाद में हस्तक्षेप करने से इनकार किया

LiveLaw News Network

30 Aug 2021 11:16 AM GMT

  • उचित और वैध आलोचना स्वागतयोग्य, मगर यह द्वेषरहित हो: कलकत्ता हाईकोर्ट ने कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश को हटाने को लेकर लिखे पश्चिम बंगाल बार काउंसिल के पत्र विवाद में हस्तक्षेप करने से इनकार किया

    कलकत्ता उच्च न्यायालय ने गुरुवार को पश्चिम बंगाल बार काउंसिल के अध्यक्ष के खिलाफ दायर एक याचिका में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। पश्चिम बंगाल बार काउंसिल की ओर से हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमाना को लिखे गए पत्र में कलकत्ता हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल को हटाने की मांग की गई थी।

    जस्टिस हरीश टंडन और जस्टिस सुभाषिस दासगुप्ता की पीठ ने अधिवक्ता अक्षय सारंगी की जनहित याचिका पर फैसला सुनाया, जिसमें पश्चिम बंगाल बार काउंसिल के अध्यक्ष अशोक कुमार देब के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने की मांग की गई थी। उन पर आरोप था कि उन्होंने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए बार काउंसिल के आधिकारिक लेटरहेड का इस्तेमाल किया।

    पत्र में लिखा गया था कि "जस्टिस बिंदल आंशिक, अनुचित और पक्षपाती जज हैं, जिनके उच्च न्यायालय में बने रहने से न्याय के निष्पक्ष वितरण में हस्तक्षेप होता है।" देब तृणमूल कांग्रेस के ‌टिकट पर संसद सदस्य भी हैं।

    पत्र में कई उदाहरणों को रखा गया था, जिसमें नारद घोटाला, ममता बनर्जी की चुनाव याचिका जैसे विभिन्न मामलों की कथित पक्षपातपूर्ण और अनुचित लिस्टिंग और सुनवाई का जिक्र किया गया था। पत्र में उल्लेख किया गया था कि जस्टिस बिंदल ने पीड़ित पक्षों को सुनवाई का अवसर दिए बिना एक निश्चित राजनीतिक दल के सदस्यों के पक्ष में विशेष सीबीआई अदालत द्वारा पारित जमानत के अंतरिम आदेश पर रोक लगा दी थी (नारद मामला)।

    उल्लेखनीय है कि 17 मई को जस्टिस बिंदल की खंडपीठ ने कोलकाता की विशेष सीबीआई अदालत द्वारा तृणमूल कांग्रेस के चार नेताओं - फिरहाद हकीम, मदन मित्रा, सुब्रत मुखर्जी और सोवन चटर्जी को दी गई जमानत पर रोक लगा दी थी। सीबीआई ने उन्हें 17 मई को नटाकीय तरीके से गिरफ्तार किया गया था।

    बार और बेंच के बीच के संबंधों पर विचार करते हुए कोर्ट ने कहा, "बार और बेंच न्यायिक प्रणाली के दो स्तंभ हैं। न्यायिक प्रणली में जनता के विश्वास को कायम करने के लिए, न्याय के प्रशासन में सहयोग स्थापित करने के लिए दोनों के बीच तालमेल, समन्वय आवश्यक है।"

    इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि 'निर्णय की निष्पक्ष और वैध आलोचना हमेशा स्वागत है', हालांकि जब इस तरह की कवायद द्वेष के साथ की जाती है तो ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।

    कोर्ट ने कहा, "स्वस्थ तरीके से किसी निर्णय की निष्पक्ष और वैध आलोचना का हमेशा स्वागत है, लेकिन अगर यह वास्तविक कारण के किसी आधार के बिना उद्देश्य और द्वेष के साथ है, तो ऐसे गलत व्यक्ति के साथ कड़ाई से निपटा जाना चाहिए क्योंकि यह न्यायिक प्रणाली और संविधान के तहत सौंपे गए कर्तव्यों के निर्वहन में न्यायालय की निष्पक्षता को बाधित करता है।"

    याचिकाकर्ता-अधिवक्ता ने बार काउंसिल के चार असंतुष्ट सदस्यों का समर्थन प्राप्त होने का दा‌वा किया था। उन्होंने दलील दिया था कि संबंधित पत्र को बार काउंसिल के सदस्यों का सामहिक विचार नहीं माना जा सकता है और देब ने अपने विचारों को आगे बढ़ाने के लिए कार्यालय का दुरुपयोग किया है।

    उन्होंने आगे दलील दी कि न तो बार काउंसिल के सदस्यों की बैठक बुलाई गई थी और न ही इस संबंध में कोई प्रस्ताव लिया गया था जैसा कि चार असंतुष्ट सदस्यों के पत्र से स्पष्ट है।

    यह भी बताया गया कि बार काउंसिल के सदस्यों ने अपनी शिकायतों से अवगत कराने के लिए 16 जून, 2021 को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के साथ बंद कमरे में बैठक की थी। यह महसूस होने पर कि शिकायतों का समाधान नहीं किया गया था, बार काउंसिल के सदस्यों ने 19 जून, 2021 को अध्यक्ष को निर्णय लेने और एक पत्र लिखने के लिए अधिकृत करने के लिए एक प्रस्ताव लिया था।

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इस तरह की कार्रवाई 'सांविधिक प्रावधान और उक्त बार काउंसिल को नियंत्रित करने वाले नियमों का घोर उल्लंघन करती है। इस प्रकार, देब का आचरण 'अपमानजनक, असंयमित और एक न्यायाधीश की छवि को धूमिल करने के उद्देश्य से है, जिसका न्यायिक प्रणाली की निष्पक्षता पर प्रभाव पड़ता है।'

    हालांकि, कोर्ट ने इस विवाद में बहुत गहराई तक जाने से इनकार कर दिया और नोट किया कि बार काउंसिल के संबंधित चार असंतुष्ट सदस्य 'शिक्षित, आर्थिक रूप से सक्षम और अपनी शिकायत के निवारण में निर्णय लेने में सक्षम थे।'

    बेंच ने ब्रह्मप्रकाश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी भरोसा रखा, जिसमें यह माना गया था कि जब किसी न्यायाधीश पर कोई हमला या टिप्पणी की जाती है जो उसके चरित्र का हनन करती है या न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने वाला एक मानहानिकारक बयान है तो ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई शुरू की जानी चाहिए।

    न्यायालय ने जस्टिस कृष्ण अय्यर द्वारा रे एस मुलगाऊकर के मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध फैसले में की गई टिप्पणियों का भी संदर्भ दिया ।

    "न्यायालय गंभीरता और कठोरता के साथ काम करेगा, जहां न्यायाधीशों पर घोर और/या निराधार हमले से न्याय को खतरा है, जहां हमला न्यायिक प्रक्रिया को बाधित या नष्ट करने के लिए सोचसमझ कर किया जाता है।"

    खंडपीठ ने याचिका को निस्तारित करते हुए निष्कर्ष निकाला कि चार असंतुष्ट सदस्यों ने जरूरत पड़ने पर अपनी शिकायतों को दूर करने के लिए कानून का सहारा लिया है। पीठ ने कहा, "बार काउंसिल के चार असंतुष्ट सदस्य भी अधिवक्ता हैं और यदि उन्हें लगता है कि याचिकाकर्ता दो ने वैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन किया है तो कानून के तहत उपचार उपलब्ध है और उसका निवारण किया जा सकता है "

    केस टाइटल: अक्षय कुमार सारंगी बनाम बार काउंसिल ऑफ वेस्ट बंगाल और अन्य।

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