कर्मचारी अनुच्छेद 226 के तहत 'पर्याप्तता या विश्वसनीयता के आधार पर' विभागीय जांच के निष्कर्षों को चुनौती नहीं दे सकता: दिल्ली हाईकोर्ट

Avanish Pathak

20 Jan 2023 7:12 AM GMT

  • कर्मचारी अनुच्छेद 226 के तहत पर्याप्तता या विश्वसनीयता के आधार पर विभागीय जांच के निष्कर्षों को चुनौती नहीं दे सकता: दिल्ली हाईकोर्ट

    Delhi High Court

    दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि एक कर्मचारी संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत पर्याप्तता या विश्वसनीयता के आधार पर अनुशासनात्मक कार्यवाही में विभागीय अधिकारियों के निष्कर्षों को चुनौती नहीं दे सकता है।

    जस्टिस दिनेश कुमार शर्मा ने कहा,

    "यह एक सुलझी हुई स्थिति है कि यदि जांच सही तरीके से की जाती है तो विभागीय अधिकारी तथ्यों के एकमात्र जज होते हैं।"

    अदालत बैंक कर्मचारी की ओर से दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसे बैंक ने विभागीय जांच के बाद कदाचार और धोखाधड़ी के आरोप में 1995 में सेवा से बर्खास्त कर दिया था। कर्मचारी ने केंद्र सरकार औद्योगिक न्यायाधिकरण (सीजीआईटी) के आदेश को को चुनौती दी थी, जहां सेवा में बहाली के उसके दावे को खारिज कर दिया गया था।

    यह मानते हुए कि याचिकाकर्ता को कदाचार के लिए दोषी ठहराने के औद्योगिक न्यायाधिकरण के निष्कर्ष में हस्तक्षेप करना उपयुक्त नहीं है, अदालत ने कहा, “बैंकिंग के व्यवसाय में सभी कर्मचारियों के लए पूर्ण समर्पण, सत्यनिष्ठा और ईमानदारी अनिवार्य है....एक अधिकारी जिसे वित्तीय अनियमितताओं में शामिल पाया जाता है, उसे जांच रिपोर्ट में मामूली उल्लंघन होने पर भी छोड़ा नहीं जा सकता है।"

    याचिकाकर्ता स्नेह अग्रवाल के खिलाफ विभागीय जांच में पाया गया कि पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी) के ब्रांच ऑफिस में एडवांस लेवल पंचिंग मशीन ऑपरेटर के रूप में काम करते हुए उसने धोखाधड़ी की थी।

    उसके खिलाफ मामला यह था कि उसने 60,000 की रुपये राशि के लिए एफडीआर जारी किया था, जब कि बैंक में केवल छह हजार रुपये जमा किए गए थे। अनुशासनिक प्राधिकारी ने जांच अधिकारी की जांच रिपोर्ट को ठीक माना था और उसे बर्खास्त करने आदेश दिया था।

    उसके बाद, उसने एक औद्योगिक विवाद उठाया और मामला औद्योगिक न्यायाधिकरण को भेजा गया, जिसने बर्खास्तगी की सजा को बरकरार रखा।

    ट्रिब्यूनल ने फैसला सुनाया कि बैंक अग्रवाल के कदाचार को संदेह से परे साबित करने में सक्षम रहा है। ट्रिब्यूनल ने मानाकि वह बैंक के हित के खिलाफ काम कर रही थी और जांच प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप थी।

    अग्रवाल ने औद्योगिक ट्रिब्यूनल के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी। उसने तर्क दिया कि ट्रिब्यूनल के निष्कर्ष विकृत और विरोधाभासी थे, अनुमानों और अप्रासंगिक सामग्री पर आधारित थे और इस प्रकार, हाईकोर्ट अपने रिट अधिकार क्षेत्र के जरिए निष्कर्षों में हस्तक्षेप कर सकता है।

    अदालत ने कहा कि विधायिका ने श्रम न्यायालय/औद्योगिक न्यायाधिकरण के फैसले के खिलाफ कोई अपील नहीं की है, जिससे श्रम न्यायालय/औद्योगिक न्यायाधिकरण तथ्यों का अंतिम निर्णायक बन गया है।

    कोर्ट ने कहा,

    “यह एक सुलझी हुई स्थिति है कि श्रम न्यायालय के अवार्ड को केवल तभी रद्द किया जा सकता है जब रिकॉर्ड पर कोई स्पष्ट त्रुटि हो। हाईकोर्ट के लिए अपने रिट क्षेत्राधिकार के तहत सबूतों की फिर से सराहना करना और श्रम न्यायालय/ न्यायाधिकरणों के साथ अपने विचार को प्रतिस्थापित करना असंभव है।"

    अदालत ने देखा कि पक्षकारों द्वारा पेश किए गए मौखिक दलीलों और दस्तावेजी सबूतों के आधार पर, औद्योगिक ट्रिब्यूनल ने स्पष्ट रूप से माना था कि याचिकाकर्ता की सेवाएं कानूनी और न्यायोचित रूप से समाप्त की गई थीं।

    अदालत ने कहा, "जांच की कार्यवाही का एक मात्र अवलोकन यह भी स्पष्ट करता है कि याचिकाकर्ता/ कर्मचारी को अपने बचाव के लिए उचित अवसर दिए गए थे।"

    अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता ने केवल तथ्यों के विवादित सवाल उठाए, जिनकी जांच न्यायाधिकरण ने तथ्यान्वेषी अदालत के रूप में की थी।

    कोर्ट ने फैसले में कहा कि आक्षेपित आदेश में कोई दुर्बलता, विकृति, अवैधता, या न्यायिक त्रुटि नहीं है।

    हालांकि, पीठ ने इस बात पर विचार किया कि याचिकाकर्ता ने 13 साल तक बैंक की सेवा की थी और उक्त अवधि में उसके खिलाफ कोई शिकायत या आपराधिक कार्यवाही शुरू नहीं की गई थी। अदालत ने इस प्रकार बर्खास्तगी की सजा को अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सजा से प्रतिस्‍थापित करने का निर्देश दिया और याचिका को उक्त सीमा तक अनुमति दी।

    केस टाइटल: स्नेह अग्रवाल बनाम पंजाब नेशनल बैंक

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