मैटरनिटी लीव से इनकार करना महिला कर्मचारी की गरिमा पर हमला, अनुच्छेद 21 का उल्लंघन: उड़ीसा हाईकोर्ट

Shahadat

22 July 2023 4:16 AM GMT

  • मैटरनिटी लीव से इनकार करना महिला कर्मचारी की गरिमा पर हमला, अनुच्छेद 21 का उल्लंघन: उड़ीसा हाईकोर्ट

    उड़ीसा हाईकोर्ट ने कहा कि मैटरनिटी लीव से इनकार करना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त महिलाओं के सम्मान के साथ जीवन जीने के मौलिक अधिकार के खिलाफ है।

    जस्टिस शशिकांत मिश्रा की एकल पीठ ने सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल के शिक्षक को राहत देते हुए कहा,

    "यदि किसी महिला कर्मचारी को इस बुनियादी मानव अधिकार से वंचित किया जाता है तो यह व्यक्ति के रूप में उसकी गरिमा पर हमला होगा और इस तरह संविधान के अनुच्छेद -21 के तहत गारंटीकृत जीवन के उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा, जिसकी व्याख्या गरिमा के साथ जीवन के रूप में की गई है।"

    याचिकाकर्ता को 19 दिसंबर, 1997 को क्योंझर जिले के फकीरपुर के प्रैक्टिसिंग गर्ल्स हाईस्कूल में (सीबीजेड) आदेश द्वारा सहायक शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया। उक्त विद्यालय को दिनांक 01.12.2017 से सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थान घोषित किया गया।

    संस्था को उड़ीसा शिक्षा (उच्च विद्यालयों/उच्च प्राथमिक विद्यालयों को अनुदान सहायता का भुगतान) आदेश, 1994 के प्रावधानों के अनुसार शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों के वेतन लागत की 100% की सीमा तक अनुदान सहायता प्राप्त करने के लिए पात्र घोषित किया गया। याचिकाकर्ता को उपरोक्त आदेश के अनुसार ब्लॉक अनुदान के माध्यम से अनुदान सहायता भी प्राप्त हुई।

    17 जून 2013 को उसने अपनी पहली डिलीवरी के लिए 13 दिसंबर 2013 तक मैटरनिटी लीव के लिए आवेदन किया। उन्होंने 20 अगस्त, 2013 को बेटी को जन्म दिया और उसके बाद 13 दिसंबर, 2013 तक छुट्टी पर रहीं। उन्होंने 14 दिसंबर, 2013 को स्कूल के हेडमास्टर के समक्ष ज्वाइनिंग रिपोर्ट और फिटनेस सर्टिफिकेट जमा करके अपनी ड्यूटी को फिर से शुरू किया, जिसे स्वीकार कर लिया गया।

    बाद में उसने उक्त अवधि के लिए मैटरनिटी लीव की मंजूरी के लिए आवेदन किया, लेकिन जिला शिक्षा अधिकारी (डीईओ), क्योंझर ने उसे अस्वीकार कर दिया और बताया गया कि स्कूल के कर्मचारियों के संबंध में कोई छुट्टी नियम लागू नहीं है। परेशान होकर उसने राहत के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    न्यायालय की टिप्पणियां

    न्यायालय ने कहा कि स्कूल, जहां याचिकाकर्ता काम कर रही है, उड़ीसा शिक्षा अधिनियम, 1969 की धारा 3 (बी) के अर्थ के तहत सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थान है। यह भी रेखांकित किया गया कि उक्त संस्थान को जीआईए आदेश, 1994 के बाद जीआईए आदेश, 2013 के तहत पात्र घोषित किया गया।

    हालांकि, न्यायालय ने माना कि उक्त आदेश सहायता अनुदान के भुगतान का प्रावधान करते हैं और संस्थानों के कर्मचारियों की छुट्टियों से संबंधित मामलों से निपटते नहीं हैं। प्रतिवादी ने ब्लॉक ग्रांट संस्थाओं के कर्मचारियों को मैटरनिटी लीव स्वीकृत करने के संबंध में नियमों के मौन होने का हवाला दिया।

    हालांकि, न्यायालय ने इस तरह के विवाद का खंडन किया और कहा,

    “लेकिन मैटरनिटी लीव की तुलना किसी अन्य अवकाश से नहीं की जा सकती, क्योंकि यह प्रत्येक महिला कर्मचारी का अंतर्निहित अधिकार है, जिसे केवल तकनीकी आधार पर अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इसे अन्यथा धारण करना बेतुका होगा, क्योंकि यह प्रकृति द्वारा डिज़ाइन की गई प्रक्रिया के विरुद्ध होगा।"

    इस संदर्भ में न्यायालय ने दिल्ली नगर निगम बनाम महिला श्रमिक (मस्टर रोल) और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई निम्नलिखित आधिकारिक टिप्पणियों का हवाला देना उचित समझा:

    “मां बनना महिला के जीवन की सबसे स्वाभाविक घटना है। सेवारत महिला को बच्चे के जन्म की सुविधा प्रदान करने के लिए जो भी आवश्यक हो, नियोक्ता को उसके प्रति विचारशील और सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए और उसे उन शारीरिक कठिनाइयों का एहसास होना चाहिए, जो कामकाजी महिला को गर्भ में बच्चे को ले जाने के दौरान या जन्म के बाद बच्चे के पालन-पोषण के दौरान कार्यस्थल पर अपने कर्तव्यों का पालन करने में आती हैं।

    न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यद्यपि उपरोक्त टिप्पणियां मैटरनिटी बेनेफिट एक्ट, 1961 के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए की गईं, फिर भी वे उन महिला कर्मचारियों पर समान रूप से लागू होंगी जिन पर एक्ट लागू नहीं होता। इस आशय से न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 39 और 42 के तहत दिए गए प्रावधानों का पालन करने के लिए नियोक्ताओं के बाध्य कर्तव्यों को दोहराया।

    परिणामस्वरूप, न्यायालय ने राय दी कि मैटरनिटी लीव को मंजूरी देने से इनकार करना कानून के खिलाफ है, इसलिए इसे बरकरार नहीं रखा जा सकता। तदनुसार, न्यायालय ने प्रतिवादी-प्राधिकरण को याचिकाकर्ता को चार सप्ताह के भीतर उक्त राहत देने का आदेश दिया।

    केस टाइटल: स्वर्णलता दास बनाम ओडिशा राज्य एवं अन्य।

    केस नंबर: W.P.(C) नंबर 620, 2015

    फैसले की तारीख: 21 जुलाई, 2023

    याचिकाकर्ता के वकील: श्री एस.एस. प्रताप और प्रतिवादियों के लिए वकील: एस. पटनायक, अतिरिक्त सरकारी वकील

    साइटेशन: लाइव लॉ (ओआरआई) 77/2023

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