[दिल्ली दंगे] : अस्पष्ट साक्ष्य और सामान्य आरोप आईपीसी की धारा 149 सहपठित धारा 302 के तहत कार्रवाई करने के लिए पर्याप्त नहीं : हाईकोर्ट ने हेड कांस्टेबल रतन लाल हत्या मामले में पांच आरोपियों को ज़मानत दी
LiveLaw News Network
3 Sept 2021 4:31 PM IST
दिल्ली हाईकोर्ट ने पिछले साल हुए दिल्ली दंगों के दौरान हेड कांस्टेबल रतन लाल की हत्या और एक डीसीपी को सिर में चोट पहुंचाने के मामले में पांच आरोपियों को शुक्रवार को जमानत दे दी। (एफआईआर 60/2020 पीएस दयालपुर)
न्यायमूर्ति सुब्रमनियम प्रसाद ने पिछले महीने आदेश को सुरक्षित रखा था, उसे आज परित किया। अदालत ने अभियोजन पक्ष की ओर से पेश एएसजी एसवी राजू और विशेष लोक अभियोजक अमित प्रसाद के साथ आरोपियों ओर से पेश हुए कई वकीलों को विस्तार से सुना था।
जमानत पाने वालों में मो आरिफ, शादाब अहमद, फुरकान, सुवलीन और तबस्सुम शामिल हैं।
आरिफ के मामले में कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 149 की प्रयोज्यता, विशेष रूप से आईपीसी की धारा 302 के साथ पढ़े जाने पर,अस्पष्ट साक्ष्यों और सामान्य आरोपों के आधार पर नहीं की जा सकती है। जब जमानत देने या अस्वीकार करने के प्रश्न पर भीड़ एक अहम सवाल होता है तो न्यायालय को इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हिचकिचाना चाहिए चाहिए कि गैर-कानूनी भीड़ का प्रत्येक सदस्य गैर-कानूनी सामान्य उद्देश्य को पूरा करने का एक समान आशय रखता है।
याचिकाकर्ता को 11.03.2020 को गिरफ्तार किया गया था और तब से वह न्यायिक हिरासत में है।
एफआईएफ 60/2020 (पीएस दयालपुर) के बारे में
एफआईआर 60/2020 एक कांस्टेबल के बयान पर दर्ज की गई थी, जिसमें कहा गया था कि पिछले साल 24 फरवरी को वह चांद बाग इलाके में अन्य स्टाफ सदस्यों के साथ ड्यूटी पर था। बताया गया कि दोपहर एक बजे के करीब प्रदर्शनकारी डंडा, लाठी, बेसबॉल बैट, लोहे की छड़ और पत्थरों को लेकर वजीराबाद रोड पर जमा होने लगे। वरिष्ठ अधिकारियों के निर्देशों पर ध्यान नहीं दिया और हिंसक हो गए।
आगे कहा गया कि प्रदर्शनकारियों को बार-बार चेतावनी देने के बाद भीड़ को तितर-बितर करने के लिए हल्का बल प्रयोग किया गया और गैस के गोले दागे गए। कांस्टेबल के मुताबिक, हिंसक प्रदर्शनकारियों ने लोगों के साथ-साथ पुलिसकर्मियों को भी पीटना शुरू कर दिया, जिससे उन्हें दाहिनी कोहनी और हाथ में चोट लग गई।
उन्होंने यह भी कहा कि प्रदर्शनकारियों ने डीसीपी शाहदरा, एसीपी गोकुलपुरी और हेड कांस्टेबल रतन लाल पर हमला किया, जिससे वे सड़क पर गिर गए और गंभीर रूप से घायल हो गए। सभी घायलों को अस्पताल ले जाया गया, जहां पाया गया कि रतन लाल की पहले ही चोटों के कारण मृत्यु हो चुकी थी और डीसीपी शाहदरा बेहोश थे और उन्हें सिर में चोटें आई थीं।
हाईकोर्ट ने जमानत देते हुए कहा,
"यह सुनिश्चित करना न्यायालय का संवैधानिक कर्तव्य है कि राज्य की शक्ति की अधिकता के मामले में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मनमाने ढंग से न छीना जाए। जमानत नियम है और जेल अपवाद है और न्यायालयों को अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना चाहिए।"
हाईकोर्ट के समक्ष जमानत की कार्यवाही
आरोपी शादाब अहमद की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन ने यह कहते हुए कि दिल्ली पुलिस की जांच में खामियां और विरोधाभास थे, अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया कि देश में कोई भी सुरक्षित नहीं है यदि अदालत अभियोजन पक्ष द्वारा गवाहों के साथ छेड़छाड़ किए जाने और जांच के अन्य महत्वपूर्ण पहलू का न्यायिक नोट नहीं लेती है।
वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन की दलीलों का प्राथमिक जोर यह था कि अहमद अपराध स्थल पर मौजूद नहीं थे या जहां दंगों के प्रासंगिक दिन में हिंसा हुई थी।
यह दिखाने के लिए जॉन ने मुख्य रूप से अभियोजन द्वारा भरोसा किए गए तीन स्वतंत्र गवाहों के बयानों पर भरोसा किया और प्रस्तुत किया कि अहमद के खिलाफ सबसे बड़ा आरोप यह हो सकता है कि उसने किसी की बात पर ध्यान नहीं दिया। हालांकि, उसने कहा कि इसे दंगा करने के लिए उकसाने या किसी को भी हिंसा में शामिल होने के लिए कहने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।
वहीं आरोपी आरिफ की ओर से पेश अधिवक्ता तनवीर अहमद मीर ने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष द्वारा भरोसा किए गए पुलिस कांस्टेबल के बयानों और वीडियो फुटेज के बीच विसंगतियां हैं। उन्होंने प्रस्तुत किया कि कांस्टेबल के उक्त बयान उचित देरी की अवधि के बाद दर्ज किए गए थे।
मीर ने यह भी कहा कि अपराध स्थल पर आरिफ की उपस्थिति दिखाने के लिए एसपीपी प्रसाद द्वारा भरोसा किए गए वीडियो फुटेज को मामले में जमानत को खारिज करने के लिए एक ठोस सबूत के रूप में नहीं माना जा सकता।
उन्होंने यह भी प्रस्तुत किया कि अभियोजन पक्ष मोहम्मद मंसूर बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य के मामले में हाईकोर्ट द्वारा दिए गए फैसले को कमजोर करने की की कोशिश कर रहा है, जिसमें दंगा आरोपी को यह राय देने के बाद जमानत दी गई थी कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट के समक्ष उसकी पहचान भिन्न थी।
इसी तरह आरोपी फुरकान की ओर से पेश अधिवक्ता दिनेश तिवारी ने कहा कि वह पुलिस द्वारा पेश की गई किसी भी वीडियो क्लिपिंग में नहीं देखा गया था और वह कथित गैरकानूनी सभा का हिस्सा नहीं था।
जहां तक आरोपी सुवलीन का सवाल है, तिवारी ने तर्क दिया कि वह कथित साजिश में शामिल नहीं था। तिवारी ने कहा, "उसके खिलाफ कोई गवाह नहीं है, कोई सीसीटीवी फुटेज नहीं है। अभियोजन का दावा है कि हिंसा पूर्व नियोजित है। लेकिन रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह दर्शाता हो कि मेरे मुवक्किल बैठक में मौजूद थे। वे किसी पूर्व योजना का हिस्सा नहीं हैं।"
अभियोजन के मामले में यह प्रस्तुत किया गया था कि दंगों के समय बनाए गए शत्रुतापूर्ण वातावरण के कारण, लोग बाहर आने और अपने बयान देने को तैयार नहीं थे, जिसके परिणामस्वरूप उनके बयान दर्ज करने में देरी हुई।
एएसजी राजू ने प्रस्तुत किया "ऐसा कोई सार्वभौमिक नियम नहीं है कि अगर किसी बयान में देरी हुई तो उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। लोग डरे हुए थे, वहां कोरोना था। इन सभी तथ्यों को देखना होगा। बयान पर भरोसा किया जा सकता है या नहीं, यह परीक्षण का मामला है। "
उन्होंने अदालत को यह भी बताया था कि हिंसा इस समय नहीं हुई बल्कि "सावधानीपूर्वक योजना" का परिणाम थी । उन्होंने कहा कि महिलाओं और बच्चों को भीड़ में सबसे आगे रखा गया, जिससे पुलिस पथराव के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पाई।
जमानत की सुनवाई के दौरान कोर्ट द्वारा की गई मौखिक टिप्पणियां
सुनवाई के दौरान, कोर्ट ने कहा था कि दिल्ली दंगा मामले में एक आरोपी को सीसीटीवी फुटेज में नहीं देखा गया था, इस मामले में बेगुनाही का दावा करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं हो सकता है।
कोर्ट ने कहा कि आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 149 के तहत गैरकानूनी रूप से इकट्ठा होने का आरोप लगाया जाना चाहिए या नहीं, यह मुकदमे में निर्धारण का मामला है और जमानत के लिए अदालत की चिंता नहीं है।
इसी तरह अदालत ने अभियोजन पक्ष से सवाल किया कि धारा 302 (हत्या) के सहपठित धारा 149 (गैरकानूनी सभा) के तहत आरोपों से जुड़े मामले में जमानत देने के लिए क्या मापदंड होने चाहिए।
बड़ी संख्या में गिरफ्तार किए गए लोगों और विविध होने की संभावना और कुछ मामलों में कुछ को कम सजा पर विचार करते हुए, न्यायमूर्ति प्रसाद ने पूछा कि क्या अनुच्छेद 21 के तहत सभी आरोपियों की स्वतंत्रता को मुकदमे के पूरा होने तक कम किया जा सकता है।
अदालत ने यह भी पूछा कि क्या जमानत देते समय, वीडियो साक्ष्य के अभाव में और 15 महीने से अधिक समय तक हिरासत में रहने के बावजूद, क्या आरोपी व्यक्तियों को निरंतर हिरासत में रखा जाना चाहिए। एएसजी एसवी राजू ने जवाब दिया कि अभियोजन पक्ष के मामले को साबित करने में वीडियो पवित्र नहीं है, बल्कि केवल चश्मदीदों के बयानों की पुष्टि करने के लिए है।
केस शीर्षक: मोहम्मद आरिफ बनाम राज्य (बीए 774/2021) और जुड़े मामले