'आपराधिक अवमानना बोलने की स्वतंत्रता पर एक उचित प्रतिबंध है': कर्नाटक हाईकोर्ट के समक्ष केंद्र ने कोर्ट की अवमानना अधिनियम की धारा 2 (c) (i) का बचाव किया
LiveLaw News Network
27 May 2021 9:03 AM IST
कर्नाटक हाईकोर्ट के समक्ष केंद्र सरकार ने चुनौती दिए गए प्रावधानों के संबंध में अपने बयान में कहा कि कोर्ट की अवमानना अधिनियम,1971 की धारा 2 (c) (i) के तहत अदालत को अपमानित करने या अदालत की गरिमा को कम करने को लेकर आपराधिक अवमानना का अपराध बोलने की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित नहीं करता है।
कोर्ट के समक्ष यह बयान केंद्र सरकार ने पत्रकार कृष्ण प्रसाद और पत्रकार एन. राम, पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा दायर एक रिट याचिका के जवाब में दायर किया गया है, जिसमें अदालत को अपमानित करने के आधार पर आपराधिक अवमानना के अपराध की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी।
हलफनामे में यह भी कहा गया है कि कोर्ट की अवमानना अधिनियम,1971 की धारा 2 (सी) (i) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत कठोर प्रतिबंध नहीं लगाता है। ये प्रावधान लचीले हैं और परिस्थिति के साथ बदलते रहते हैं। किसी भी अदालत को अपमानित करने, गरिमा कम करने वाले शब्दों की अलग से जांच नहीं की जा सकती है।
कोर्ट की अवमानना अधिनियम,1971 की धारा 2(सी)(i) में प्रावधान है कि अगर कोई भी लिखकर, बोलकर या इशारे में ऐसा काम करता है जिससे अदालत की बदनामी होती है या उसकी गरिमा और प्रतिष्ठा पर आंच आती है तो वह अदालत की अवमानना है।
याचिकाकर्ताओं ने इस प्रावधान को इस आधार पर चुनौती दी है कि यह संविधान के अनुच्छेद 19 और 14 का उल्लंघन करता है, क्योंकि यह असाध्य रूप से अस्पष्ट और स्पष्ट रूप से मनमाना है।
याचिका में आगे कहा गया है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है। जब आलोचना में न्यायाधीश के अधिकार को कम करने और यहां तक कि न्याय के प्रशासन में बाधा डालने की प्रवृत्ति होती है जो न्यायालयों की अवमानना अधिनियम, 1971 के तहत न्यायपालिका के मूल्य को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो अदालत को ऐसे किसी भी कार्य को दंडित करने की शक्ति होती है।
केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि,
"हालांकि यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारत के सभी नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी है, अदालत की अवमानना वास्तव में इस अधिकार पर उचित प्रतिबंधों में से एक है जो एक सवार रूप में कार्य कर सकता है।"
सरकार ने यह भी कहा है कि विधायिका के लिए यह संभव नहीं है कि वह पहले से ही सभी संभावित कृत्यों / चूकों को देख सके जो आपराधिक अवमानना का गठन करेंगे और आपराधिक अवमानना करने वाले कृत्यों / चूक को प्रत्येक मामले के तथ्यों के आलोक में समझना होगा।
केंद्र ने याचिकाकर्ताओं के इस तर्क को खारिज कर दिया कि अदालत को बदनाम करने का अपराध औपनिवेशिक मान्यताओं में एक कल्पना के रूप में निहित है। इसके अलावा यह प्रस्तुत किया गया कि बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमेशा बनी रहेगी जब तक कि अवमानना पूर्ण कोई कृत्य नहीं होता है।
केंद्र ने याचिकाकर्ताओं के इस तर्क का भी विरोध किया कि अधिनियम की धाराएं अस्पष्ट है।
हलफनामे में कहा गया कि,
"कोर्ट की अवमानना अधिनियम की योजना दीवानी और आपराधिक अवमानना दोनों को परिभाषित करती है। साथ ही धारा 3 से धारा 9 निर्दोष प्रकाशन, न्यायिक कार्यवाही की निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग, न्यायिक अधिनियम की निष्पक्ष आलोचना आदि की रक्षा करती है। यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रावधान अस्पष्टता और मनमानी पूर्ण हैं।"
मुख्य न्यायाधीश अभय ओका और न्यायमूर्ति सूरज गोविंदराज की खंडपीठ ने मामले की अगली सुनवाई 28 जून तक के लिए स्थगित कर दी।
जताई गई आपत्ति की कॉपी यहां पढ़ें: