'न्यायालयों को संवैधानिक नैतिकता पर भरोसा करना चाहिए, न कि सामाजिक नैतिकता की अस्पष्ट धारणाओं पर': राजस्थान हाईकोर्ट ने लिव-इन संबंध में शामिल विवाहिता और उसके प्रेमी को संरक्षण दिया

LiveLaw News Network

23 Sep 2021 8:00 AM GMT

  • न्यायालयों को संवैधानिक नैतिकता पर भरोसा करना चाहिए, न कि सामाजिक नैतिकता की अस्पष्ट धारणाओं पर: राजस्थान हाईकोर्ट ने लिव-इन संबंध में शामिल विवाहिता और उसके प्रेमी को संरक्षण दिया

    राजस्थान हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा है कि न तो राज्य और न ही समाज लिव-इन रिलेशनश‌िप में रह रहे दो वयस्कों के निजी जीवन में घुस सकता है। अगर लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे जोड़े में से एक ने कानूनी तौर पर किसी और से शादी की है तो भी राज्य और समाज ऐसा नहीं कर सकते हैं।

    अदालत लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले एक दंपति की ओर से पुलिस सुरक्षा के लिए दायर एक याचिका पर फैसला सुना रही थी।

    ज‌स्टिस पुष्पेंद्र स‌िंह भाटी ने कहा, "यह अच्छी तरह से तय है कि किसी व्यक्ति की निजता में दखल देना अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। किसी व्यक्ति के रिश्ते की तथाकथित नैतिकता की जांच करना या उस पर टिप्‍पणी करना, और निंदा का व्यापका बयान देना...किसी व्यक्ति के पसंद के अधिकार में घुसपैठ को बढ़ावा देगा और बड़े पैमाने पर समाज की ओर से से की जा रही अनुचित नैतिक पुलिसिंग के कृत्यों की अनदेखी करेगा।"

    पृष्ठभूमि

    मौजूदा मामले में याचिकाकर्ता अपने साथी फरसा राम बिश्नोई के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही है। हालांकि अभी भी वह कानूनी रूप से अपने पति सुनील बिश्नोई से विवाहित है। उसने अपनी सुरक्षा के लिए 'गंभीर खतरा' मौजूद होने की बात कहते हुए मौजूदा याचिका में उसने अपने परिवार के सदस्यों से पुलिस सुरक्षा की मांग की है।

    याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी गई थी कि लगातार उत्पीड़न और हिंसा के कारण उसे गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए लिव-इन रिलेशनशिप में प्रवेश करने का विकल्प चुनना पड़ा।

    दंपति ने 13 सितंबर, 2021 को अपने लिव-इन रिलेशनशिप के संबंध में एक समझौता भी किया था। यह समझौता एक स्टांप पेपर पर किया गया था और विधिवत नोटरीकृत और प्रमाणित भी किया गया था।

    टिप्पणियां

    शुरुआत में न्यायालय ने नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्वायत्तता के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए कहा था कि किसी की स्वायत्तता का किसी अन्य को समर्पण इच्छपूर्वक किया जाना चाहिए, और उनकी अंतरंगता और गोपनीयता उनकी पसंद का मामला है। कोर्ट ने यह माना था कि ऐसी स्वायत्तता अनिवार्य रूप से एक व्यक्ति की गरिमा का हिस्सा बनती है।

    न्यायालय ने कहा कि parens patriae ( पिता के रूप में राष्ट्र) के अधिकार क्षेत्र का प्रयोग केवल उन मामलों में किया जाना चाहिए, जहां व्यक्ति स्वतंत्र इच्छा का दावा करने में असमर्थ हैं, जैसे कि नाबालिग या विकृत दिमाग के व्यक्ति। इस प्रकार, राज्य और समाज, दोनों को व्यक्तियों के निजी जीवन में घुसपैठ करने और पार्टनरों की उपयुक्तता के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने आगे कहा कि ऐसे मामलों में राज्य के हस्तक्षेप का व्यक्तियों की स्वतंत्रता के प्रयोग पर 'ठंडा प्रभाव' पड़ता है।

    न्यायालयों को संवैधानिक नैतिकता पर भरोसा करना चाहिए न कि सामाजिक नैतिकता की अस्पष्ट धारणाओं पर

    कोर्ट ने कहा कि संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांतों के सरंक्षण के अलावा कोर्ट का यह समानांतर कर्तव्य है कि दो स्वतंत्र वयस्कों के व्यक्तिगत संबंधों का उल्लंघन न हो। कोर्ट ने कहा कि सार्वजनिक नैतिकता को संवैधानिक नैतिकता पर हावी होने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, खासकर जब सुरक्षा के अधिकार की कानूनी वैधता सर्वोपरि है।

    कोर्ट ने केएस पुट्टस्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी उल्लेख किया, जिसमें यह कहा गया था कि निजता के मूल में व्यक्तिगत अंतरंगता का संरक्षण, पारिवारिक जीवन की पवित्रता, विवाह, प्रजनन, घर और यौन अभिविन्यास शामिल है।

    मामले में जोसेफ शाइन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में दिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी भरोसा किया गया था कि विवाह की संस्था को संवैधानिक अधिकारों से रहित एक निजी स्थान नहीं होना चाहिए।

    राज्य नियत प्रक्रिया को दरकिनार नहीं कर सकता और नैतिक पुलिसिंग के कृत्यों को माफ नहीं कर सकता

    उचित प्रक्रिया के पालन और नैतिक पुलिसिंग के कृत्यों को सुविधाजनक बनाने से परहेज करने की आवश्यकता पर विचार करते हुए कोर्ट ने कहा,

    " यहां तक ​​​​कि अगर कोई अवैध या गलत काम किया गया है तो दंडित करने का कर्तव्य राज्य के पास है, वह भी कानून की उचित प्रक्रिया के अनुरूप है। किसी भी परिस्थिति में राज्य उचित प्रक्रिया को दरकिनार नहीं कर सकता है, नैतिक पुलिसिंग के किसी भी कार्य को अनुमति नहीं दे सकता या अनदेखा नहीं कर सकता..।''

    जस्टिस भाटी ने आगे कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सुरक्षा का दावा करने का अधिकार एक संवैधानिक जनादेश है और इस तरह के अधिकार को अनदेखा नहीं किया जा सकता है, भले ही सुरक्षा चाहने वाला व्यक्ति अनैतिक, गैरकानूनी या अवैध कार्य का दोषी हो।

    हालांकि, न्यायालय ने रिश्तों की पवित्रता के मुद्दे पर दखल देने से इनकार कर दिया और निष्कर्ष निकाला, " यह न्यायालय खुद को व्यक्तिगत स्वायत्तता के सिद्धांत से मजबूती से बंधा हुआ पाता है, जिसे एक जीवंत लोकतंत्र में सामाजिक अपेक्षाओं से बाधित नहीं किया जा सकता है।"

    तद्नुसार याचिका का निस्तारण किया गया। याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता गजेंद्र पनवा पेश हुए। लोक अभियोजक अरुण कुमार राज्य की ओर से पेश हुए।

    केस शीर्षक: लीला बनाम राजस्थान राज्य

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