बेटी के यौन उत्पीड़न के लिए अपने ही पति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने वाली महिला की दुर्दशा के प्रति अदालतों को संवेदनशील होना चाहिएः दिल्ली हाईकोर्ट

Manisha Khatri

5 Aug 2022 3:15 PM GMT

  • दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि अदालतों को उस स्थिति के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, जहां एक नाबालिग पीड़िता की मां (वह भी घर में उसकी मौजूदगी में) अपने ही पति के खिलाफ बेटी के साथ यौन संबंध बनाने का आरोप लगाती है।

    जस्टिस अनूप कुमार मेंदीरत्ता की पीठ ने एक पति को अग्रिम जमानत देने से इनकार करते हुए यह टिप्पणी की है, जिसकी पत्नी ने आरोप लगाया है कि उसने उसकी पांच साल की बेटी का यौन उत्पीड़न किया है।

    याचिकाकर्ता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 377 और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम(पॉक्सो) की धारा 6 के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी। बाद में उसके खिलाफ संहिता की धारा 376एबी (12 साल से कम उम्र की नाबालिग से बलात्कार की सजा) भी लगाई गई थी।

    याचिकाकर्ता ने घटना को विवादित बताया और कहा कि घटना का समय गलत बताया गया है। इतना ही नहीं उनके बीच पहले वैवाहिक विवाद रहा है,जिस कारण यह मामला दर्ज कराया गया है।

    इस स्तर पर इस तरह की दलीलों पर विचार करने से इनकार करते हुए कोर्ट ने कहा,

    ''इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि पीड़ित बच्चे का भविष्य भी प्रभावित होगा, कम से कम आसपास के सर्कल में और कोई भी मां आमतौर पर उन मुद्दों को उठाने से कतराती है जो सामाजिक हलकों में उसके ही बच्चे को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकते हैं। पॉक्सो एक्ट के तहत अपराध के कमीशन और आपराधिक मानसिक स्थिति के रूप में कानूनी अनुमान को भी पॉक्सो एक्ट के तहत अपराधों से निपटने के लिए परिप्रेक्ष्य में रखा जाना चाहिए।''

    अदालत ने सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज नाबालिग पीड़िता के बयान का भी अध्ययन किया और कहा कि यह मानना अभी ''बहुत दूर की बात'' हो सकती है कि बयान शिकायतकर्ता मां के इशारे पर दर्ज कराया गया हो या अपने विवाद को निपटाने के लिए पीड़िता का इस्तेमाल किया जा रहा हो।

    कोर्ट ने कहा,

    ''एक नाबालिग पीड़िता के खिलाफ किए गए अपराध के आरोपों के मामले में, अदालतों को उनकी दुर्दशा के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, खासतौर पर जब ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है जिसमें पीड़ित की मां (वह भी घर में उसकी मौजूदगी में) द्वारा अपने ही पति के खिलाफ अपनी ही बेटी के साथ यौन संपर्क करने का आरोप लगाया जाता है।''

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि जमानत आवेदन के लंबित रहने के दौरान अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 376एबी लगाने का निर्देश नहीं दिया जा सकता था।

    इस तर्क को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा,

    ''जांच के चरण के दौरान अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा इंगित करने पर जांच एजेंसी द्वारा सही धारा लगाना वर्जित नहीं है ...यदि जांच के स्तर पर ट्रायल कोर्ट/एमएम के संज्ञान में सही धारा लागू नहीं करने की कोई त्रुटि आती है, तो यह नहीं माना जा सकता है कि संबंधित न्यायिक अधिकारी उक्त त्रुटि/कमी को इंगित करने में अपने अधिकार क्षेत्र से आगे निकल गया है, हालांकि कानून की संबंधित धाराओं को लागू करने की शक्ति जांच एजेंसी के पास है।''

    याचिकाकर्ता ने ट्रायल कोर्ट के इस निष्कर्ष को भी चुनौती दी थी कि आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2018 के मद्देनजर अग्रिम जमानत देने के लिए सीआरपीसी की धारा 438 के तहत आवेदन पर विचार करना वर्जित है।

    शुरुआत में हाईकोर्ट ने कहा कि संशोधन विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिए लाया गया था और बढ़ती अपराध दर को ध्यान में रखते हुए धारा 438(4) ने आईपीसी की धारा 376(3), 376एबी, 376डीए और 376डीबी के तहत कथित अपराधों के लिए अग्रिम जमानत पर रोक लगा दी।

    इस प्रकार यह माना गया,

    ''सीआरपीसी की धारा 438 की उप-धारा (4) के मद्देनजर, अग्रिम जमानत के लिए आवेदन ट्रायल कोर्ट के समक्ष विचारणीय नहीं है और इस हद तक की गई टिप्पणियों को गलत नहीं कहा जा सकता है। सीआरपीसी की धारा 438 की उप-धारा (4) के तहत संदर्भित मामलों में अग्रिम जमानत देने के लिए प्रतिबंध लगाने में विधायी मंशा स्पष्ट और निहित है।''

    अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि केवल इसलिए कि कानून वैकल्पिक दंड निर्धारित करता है, या तो पॉक्सो एक्ट के तहत या आईपीसी की धारा 376एबी के तहत, जो भी अधिक से अधिक सजा का प्रावधान करता है, तो भी धारा 438(4) के तहत लगाई रोक को हटाया नहीं गया है।

    कोर्ट ने यह भी कहा,

    ''पॉक्सो एक्ट की धारा 42 के तहत, यदि अपराध पॉक्सो एक्ट के साथ-साथ आईपीसी की धारा 376एबी के तहत दंडनीय है और यदि अपराधी इस तरह के अपराध का दोषी पाया जाता है, तो वह या तो पॉक्सो एक्ट या आईपीसी के तहत दंड के लिए उत्तरदायी होगा, जो भी अधिक से अधिक सजा का प्रावधान करता है। यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि सीआरपीसी की धारा 438 की उप-धारा (4) की कठोरता जमानत के स्तर पर समाप्त हो जाती है क्योंकि अपराधी पर आईपीसी की धारा 376एबी के साथ-साथ पॉक्सो एक्ट धारा 6 के तहत आरोप लगाया गया है और उसे आईपीसी की धारा 376एबी की बजाय पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत दोषसिद्धि पर दंडित किया जा सकता है। धारा 42 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि दो अलग-अलग अधिनियमों के तहत अपराध का गठन करने वाला एक ही कृत्य दोहरी सजा का कारण न बने।''

    उक्त टिप्पणियों के साथ अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी गई।

    केस टाइटल- वी बनाम राज्य

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