जब विवाह अपरिवर्तनीय रूप से टूट गया हो तब अदालत पार्टियों को मध्यस्थता में शामिल होने के लिए मजबूर नहीं कर सकती: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Avanish Pathak

30 May 2022 11:23 AM GMT

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ बेंच) ने देखा है कि न्यायालय को यांत्रिक तरीके से कार्य नहीं करना चाहिए, और पार्टियों को मध्यस्थता में शामिल होने के लिए मजबूर करना चाहिए, जहां विवाह अपरिवर्तनीय रूप से टूट गया हो।

    जस्टिस राकेश श्रीवास्तव और जस्टिस अजय कुमार श्रीवास्तव- I की खंडपीठ ने जोर देकर कहा कि मध्यस्थता के लिए पक्षों के संदर्भ की अनिवार्य रूप से आवश्यकता नहीं है, जहां मामले के तथ्य और परिस्थितियां दर्शाती हैं कि इस तरह के संदर्भ से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा।

    कोर्ट ने फैमिली कोर्ट एक्ट की धारा 9 के आलोक में ये टिप्पणियां कीं, जो फैमिली कोर्ट पर निपटान के लिए प्रयास करने का कर्तव्य डालती हैं। कोर्ट ने कहा कि मामले को निपटाने का प्रयास अनिवार्य है, लेकिन फैमिली कोर्ट द्वारा मध्यस्थता का संदर्भ ही नहीं है।

    संक्षेप में मामला

    दरअसल कोर्ट फैमिली कोर्ट एक्ट, 1984 की धारा 19 के तहत अनामिका श्रीवास्तव (पत्नी) द्वारा दायर एक अपील पर विचार कर रही थी, जिसमें फैमिली कोर्ट (प्रिंसिपल जज, फैमिली कोर्ट, बाराबंकी) द्वारा पारित एक आदेश को चुनौती दी गई थी।

    फैमिली कोर्ट ने उसके और प्रतिवादी (पति) द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13-बी (2) के तहत निर्धारित छह महीने की न्यूनतम अवधि को माफ करने की प्रार्थना को खारिज कर दिया था।

    फैमिली कोर्ट के सामने, पार्टियों ने कहा था कि वे दस साल से अधिक समय से अलग रह रहे हैं; कि मध्यस्थता केंद्र के समक्ष, पक्षकार, स्वतंत्र रूप से, अपनी मर्जी से, बिना किसी दबाव या दबाव के, एक संयुक्त समझौता पर पहुंचे थे। इन परिस्थितियों में, छह महीने की प्रतीक्षा अवधि माफ की जाए और तलाक की डिक्री तुरंत पारित की जाए।

    हालांकि, उनके आवेदन को फैमिली कोर्ट ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि उसके आदेश के अनुसार, पक्ष मध्यस्थता केंद्र के सामने पेश नहीं हुए थे और इस तरह, छह महीने की वैधानिक अवधि को माफ करने का कोई अच्छा आधार नहीं था।

    उल्‍लेखनीय है कि कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी (2), धारा 13-बी (1) के तहत तलाक की याचिका दायर करने की तारीख से छह महीने की कूलिंग अवधि प्रदान करती है। यदि इस अवधि में पार्टियों अपना विचार बदलना चाहती हैं या उनके मतभेदों को हल करना चाहती हैं।

    छह महीने के बाद भी अगर पक्ष तलाक के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं, और एक प्रस्ताव करना चाहते हैं, तो अदालत को तलाक की डिक्री देनी होगी, जो कि डिक्री की तारीख से विवाह को भंग घोषित कर देगी।

    हालांकि, मौजूदा मामले में, पक्ष चाहते थे कि अदालत 6 महीने की प्रतीक्षा अवधि को माफ कर दे क्योंकि उनकी शादी पूरी तरह से टूट गई थी।

    न्यायालय की टिप्पणियां

    कोर्ट ने कहा कि छह महीने की वैधानिक अवधि को माफ करने का विवेक न्याय के हित पर विचार करने के लिए एक निर्देशित विवेक है, जहां सुलह का कोई मौका नहीं है और पार्टियां पहले से ही लंबी अवधि के लिए अलग हो गई हैं या अधिनियम की धारा 13-बी(2) में उल्लिखित अवधि से लंबी अवधि से कार्यवाही में शामिल हैं।

    इसके अलावा, कोर्ट ने पाया कि फैमिली कोर्ट एक्ट की धारा 9 फैमिली कोर्ट की ओर से यह अनिवार्य बनाती है कि पहली बार में पारिवारिक विवाद के पक्षों के बीच सुलह या समझौता करने का प्रयास किया जाए।

    हालांकि, कोर्ट ने कहा, अदालत को यांत्रिक तरीके से कार्य नहीं करना चाहिए, और पार्टियों को मध्यस्थता में शामिल होने के लिए मजबूर करना चाहिए जहां विवाह अपरिवर्तनीय रूप से टूट गया हो।

    इस पृष्ठभूमि में मौजूदा मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने अपील की अनुमति दी और अधिनियम की धारा 13-बी (2) के तहत छह महीने की वैधानिक प्रतीक्षा अवधि को हाईकोर्ट द्वारा माफ कर दिया गया था।

    केस टाइटल- अनामिका श्रीवास्तव बनाम अनूप श्रीवास्तव [FIRST APPEAL No. - 30 of 2022]

    केस सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (एबी) 267

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