न्याय के हित में दीवानी प्रकृति के मामलों को 'निरस्त' किया जा सकता है: गुजरात हाईकोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 320 और 482 के बीच के अंतर को दोहराया

Avanish Pathak

1 Aug 2022 12:29 PM IST

  • गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 397 के तहत एक पुनरीक्षण आवेदन को अनुमति देते हुए, जिसमें याचिकाकर्ता को परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत दोषी ठहराए जाने के फैसले को रद्द करने की मांग की गई थी, संहिता की धारा 482 और धारा 320 के बीच के अंतर को दोहराया है।

    धारा 320 सीआरपीसी कुछ अपराधों को मिलाने के लिए न्यायालय की शक्ति निर्धारित करती है। धारा 482 सीआरपीसी हाईकोर्ट की अंतर्निहित शक्ति है। जस्टिस समीर दवे की खंडपीठ ने जोर देकर कहा कि अपराधों को मिलाना रद्द करने के समान नहीं है।

    उन्होंने कहा, "अपराधों के कंपाउंडिंग में, एक आपराधिक अदालत की शक्ति धारा 320 में निहित प्रावधानों द्वारा सीमित होती है और अदालत पूरी तरह से उसी से निर्देशित होती है, दूसरी ओर, एक आपराधिक अपराध या आपराधिक कार्यवाही या आपराधिक शिकायत को रद्द करने के लिए हाईकोर्ट द्वारा राय का गठन रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री द्वारा निर्देशित होती है कि क्या न्याय के उद्देश्य शक्ति के इस तरह के प्रयोग को उचित ठहराएंगे, हालांकि अंतिम परिणाम अभियोग को बरी करना या खारिज करना हो सकता है।"

    नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए पार्टियों के बीच समझौते की पृष्ठभूमि में मौजूदा आवेदन दायर किया गया था। यहां आवेदक पर ट्रायल चलाया गया था, जहां उसे उक्त अपराध के लिए दोषी ठहराया गया। निचली अदालत के आदेश के खिलाफ अपील खारिज कर दी गई। इससे क्षुब्ध होकर मौजूदा आवेदन दाखिल किया गया।

    शिकायतकर्ता-प्रतिवादी संख्या 2 ने पक्षों के बीच समझौते की पुष्टि करते हुए एक हलफनामा प्रस्तुत किया था

    हाईकोर्ट ने ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य और अन्य (2012) 10 एससीसी 303 पर भरोसा किया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने धारा 482 और धारा 320 के सापेक्ष दायरे पर विचार किया था और कुछ पैरामीटर निर्धारित किए थे, जिनका उपयोग विभिन्न तथ्यों और परिस्थितियों में किया जा सकता था।

    जस्टिस दवे ने फैसले का जिक्र निम्नलिखित तरीके से किया

    "हत्या, बलात्कार, डकैती, आदि जैसे गंभीर अपराधों के संबंध में; या आईपीसी के तहत मानसिक भ्रष्टता के अन्य अपराध या विशेष कानून के तहत नैतिक अधमता के अपराध, जैसे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम या अपनी क्षमता में काम करते हुए लोक सेवकों द्वारा किए गए अपराध के संबंध में, अपराधी और पीड़ित के बीच समझौते की कोई कानूनी मंजूरी नहीं हो सकती है। हालांकि, कुछ ऐसे अपराध जो सिविल, व्यापारिक, वाणिज्यिक, वित्तीय, साझेदारी से उत्पन्न हुए हैं, जिनमें मुख्य रूप से सिव‌िल प्रवृत्ति है, या लेनदेन या विवाह से उत्पन्न अपराध, विशेष रूप से दहेज से संबंधित आदि या पारिवारिक विवाद, जहां मूल रूप से पीड़ित के साथ गलत हुआ है और अपराधी और पीड़ित ने उनके बीच सभी विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया है, इस तथ्य के बावजूद कि ऐसे अपराधों को कंपाउंडेबल नहीं बनाया गया है, हाईकोर्ट अपनी अंतर्निहित शक्ति के ढांचे के भीतर, आपराधिक कार्यवाही या आपराधिक शिकायत या एफआईआर को रद्द कर सकता है, अगर यह संतुष्ट है कि इस तरह के निस्तारण के समक्ष अपराधी को दोषी ठहराए जाने की शायद ही कोई संभावना हो और आपराधिक कार्यवाही को रद्द न करने से न्याय हताहत होगा और न्याय का लक्ष्य पराजित होगा।"

    सिंगल जज बेंच ने कहा कि उपरोक्त परिस्थितियां केवल उदाहरण हैं और प्रकृति में संपूर्ण नहीं हैं। पीठ ने यह भी कहा कि सीआरपीसी की धारा 226 सहपठित धारा 482 के तहत, शक्तियों का प्रयोग प्रत्येक मामले के व्यक्तिगत तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।

    इसलिए, मौजूदा मामले में, यह देखते हुए कि 'निस्तारण से समाज में शांति आई थी' और पक्ष अब एक सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने के लिए तैयार हैं, अदालत ने आपराधिक मामले को खारिज कर दिया और आवेदक की रिहाई का निर्देश दिया।

    केस टाइटल: कमलेशकुमार मोहनजी मीथेन बनाम गुजरात राज्य

    केस नंबर: R/CR.RA/637/2022

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