मुस्लिम पति ने दूसरी शादी कर ली हो तो पहली पत्नी को उसके साथ रहने के लिए, अगर न्यायसंगत न हो, मजबूर नहीं किया जा सकताः इलाहाबाद हाईकोर्ट
Avanish Pathak
11 Oct 2022 2:52 PM IST
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि कोर्ट को पत्नी इच्छा के खिलाफ उसे अपने मुस्लिम पति (जिसने दोबारा शादी कर ली है) के साथ रहने के लिए और किसी अन्य महिला के साथ अपना साथ साझा करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए, यदि कोर्ट की राय है कि उसे ऐसा करने के लिए मजबूर करना 'अनुचित' होगा।
जस्टिस सूर्य प्रकाश केसरवानी और जस्टिस राजेंद्र कुमार-चतुर्थ की पीठ ने एक मुस्लिम पति की ओर से दायर याचिका खारिज करते हुए उक्त टिप्पणी की। पति ने पहली पत्नी (प्रतिवादी) के साथ वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए फैमिली कोर्ट में मुकदमा दायर किया था, जिसे फैमिली कोर्ट ने खारिज कर दिया था।
कोर्ट ने कहा कि एक मुस्लिम पति को दूसरी पत्नी रखने का कानूनी अधिकार है, भले ही पहली शादी कायम हो, लेकिन अगर वह ऐसा करता है और पहली पत्नी को उसके इच्छा के खिलाफ साथ रहने के लिए सिविल कोर्ट की सहायता से मजबूर करता है तो वह यह सवाल उठाने की हकदार है कि क्या अदालत को, जो न्याय की अदालत है, उसे ऐसे पति के साथ रहने के लिए मजबूर करना चाहिए।
कोर्ट ने कहा,
"...यदि पति, पहली पत्नी की इच्छा के विरुद्ध दूसरी पत्नी को रखने के बाद, पहली को अपने साथ रहने के लिए मजबूर करने के लिए सिविल कोर्ट की सहायता चाहता है तो न्यायालय दूसरी शादी की पवित्रता का सम्मान करेगा, लेकिन यह पहली पत्नी को, उसकी इच्छा के विरुद्ध, बदली हुई परिस्थितियों में पति के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं करेगा और किसी अन्य महिला के साथ उसे अपना साथ साझा करने के लिए नहीं कहेगा, अगर वह यह निष्कर्ष निकालता है कि उसे ऐसा करने के लिए मजबूर करना अनुचित होगा।"
मामला
वादी-अपीलकर्ता/पति का मामला यह था कि उसने दूसरी शादी की और अपनी पहली पत्नी (प्रतिवादी) को इस तथ्य की जानकारी नहीं दी। वह अपनी दोनों पत्नियों के साथ रहना चाहता था, हालांकि पहली पत्नी ने उसने साथ रहने और किसी अन्य महिला के साथ अपना साथ साझा करने से इनकार कर दिया, जिसके बाद पति ने दाम्पत्य अधिकारों की बहाली की मांग करते हुए एक याचिका दायर की।
दोनों पक्षों को सुनने के बाद फैमिली कोर्ट ने पति की याचिका खारिज कर दी। इस आदेश को चुनौती देते हुए पति ने हाईकोर्ट में मौजूदा याचिका दायर की।
निष्कर्ष
अपील को खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने विशेष रूप से कहा कि जब वादी-अपीलकर्ता ने पहली पत्नी से इस तथ्य को छिपाते हुए दूसरी शादी की तो वादी-अपीलकर्ता का ऐसा आचरण पहली पत्नी के साथ क्रूरता के बराबर होगा।
हालांकि, कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि पति की क्रूरता का संतोषजनक सबूत न हो तो भी कोर्ट पति के पक्ष में बहाली की डिक्री पारित नहीं करेगा, अगर उसे लगता है कि परिस्थितियां ऐसी हैं कि पत्नी को पति के साथ रहने के लिए मजबूर करना अन्यायपूर्ण होगा।
इन परिस्थितियों में, न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि पहली पत्नी अपने पति-वादी अपीलकर्ता के साथ नहीं रहना चाहती है, तो उसे दाम्पत्य अधिकारों की बहाली के लिए दायर मुकदमे में उसके साथ जाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।
न्यायालय ने इन टिप्पणियों को अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा, अनुच्छेद 15 (2) में निहित लिंग के आधार पर गैर-भेदभाव की अवधारणा आदि से जोड़ा।
इस बात पर बल देते हुए कि किसी देश की सभ्यता अपनी महिलाओं का सम्मान करने के लिए जानी जाती है, कोर्ट ने कहा,
"एक समाज जो अपनी महिलाओं का सम्मान नहीं करता है, उसे सभ्य नहीं माना जा सकता ... वर्तमान समय की आवश्यकता है कि लोगों को जागरूक किया जाए कि महिलाओं के साथ सम्मान के साथ व्यवहार करना अनिवार्य है ताकि मानवतावाद अपनी वैचारिक अनिवार्यता में जीवित रहे।"
केस टाइटल- अज़ीज़ुर्रहमान बनाम हमीदुन्निशा @ शरीफुन्निशा [FIRST APPEAL No. - 700 of 2022]
केस साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (एबी) 463