किसी बच्चे को ''नाजायज संतान'' के रूप में प्रचारित करना अपने आप में उत्पीड़न के दायरे में होगा : बॉम्बे हाईकोर्ट

Manisha Khatri

14 Dec 2022 6:30 PM IST

  • बॉम्बे हाईकोर्ट, मुंबई

    बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में एक नाबालिग की संरक्षकता उसके जैविक माता-पिता को सौंपते हुए कहा है कि माता-पिता की याचिका को केवल इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता है क्योंकि मुस्लिम कानून इंगित करता है कि एक 'नाजायज संतान' के रूप में, उसे विरासत या वंश का कोई अधिकार नहीं है।

    कोर्ट ने कहा, ''इस अदालत की राय है कि चूंकि वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता जैविक माता-पिता हैं ... यदि वर्तमान याचिका में की गई प्रार्थनाओं पर विचार नहीं किया जाता है तो यह न्याय का उपहास होगा, वो भी केवल इसलिए कि नाबालिग बच्ची पर लागू पर्सनल लॉ इंगित करता है कि एक 'नाजायज संतान' होने के नाते, उसके पास विरासत या वंश के लिए कोई अधिकार नहीं हो सकता है।''

    जस्टिस मनीष पितले ने नाबालिग बच्ची के हित को सर्वाेपरि मानते हुए बच्ची के जैविक माता-पिता द्वारा दायर संरक्षकता याचिका पर अनुकूल विचार किया।

    बच्ची की मां ने 2005 में प्रतिवादी से शादी की थी। बच्ची का जन्म इस शादी के निर्वाह के दौरान हुआ था। बच्ची की मां और प्रतिवादी का 2015 में तलाक हो गया। याचिकाकर्ताओं को व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था क्योंकि बच्ची के जन्म प्रमाण पत्र में प्रतिवादी को पिता के रूप में दर्ज किया गया है। इसलिए उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि वे बच्ची के साथ रह रहे हैं और डीएनए रिपोर्ट से पता चलता है कि वे उसके जैविक माता-पिता हैं। इसलिए, उन्होंने दावा किया कि वे नाबालिग के संरक्षक के रूप में नियुक्त किए जाने के योग्य हैं।

    प्रतिवादी ने एक हलफनामे में विशेष रूप से कहा कि उसे याचिकाकर्ताओं को नाबालिग बच्ची के प्राकृतिक और कानूनी अभिभावक घोषित किए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है।

    मुस्लिम कानून के अनुसार, 'नसाब' या वंश वैध विवाह से स्थापित होता है न कि अवैध संभोग से। इसलिए, एक नाजायज बच्चे या 'वलाद-उज़-ज़ीना' का कोई नसाब या माता-पिता नहीं होता है और न ही वह टाइटल प्राप्त कर सकता है।

    अदालत ने कहा, ''इस अदालत की राय है कि बच्चे की कोई गलती न होने पर भी अगर उसे बड़े पैमाने पर दुनिया में नाजायज करार दिया जाता है,तो यह अपने आप में उस बच्चे के उत्पीड़न समान है।''

    अदालत ने अतहर हुसैन बनाम सैयद सिराज अहमद व अन्य के मामले में दिए गए फैसले पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 नाबालिग बच्चे के हित को सर्वाेपरि मानते हुए पर्सनल लॉ पर प्रबल हो सकता है।

    अदालत ने कहा कि यदि वर्तमान मामले में मुस्लिम लॉ को सख्ती से लागू किया जाता है, तो नाबालिग बच्ची का कोई वंश नहीं होगा और वह अपने मूल अधिकारों से केवल इसलिए वंचित हो जाएगी क्योंकि वह प्रतिवादी के साथ अपनी मां की शादी के निर्वाह के दौरान याचिकाकर्ताओं के बीच बने संबंध के कारण पैदा हुई थी।

    हाईकोर्ट ने माना कि प्रतिवादी ने जानबूझकर बच्ची की कस्टडी उसकी मां को दे दी। इसलिए यदि वर्तमान याचिका पर विचार नहीं किया जाता है, तो बच्ची अपने जैविक माता-पिता से देखभाल और रखरखाव का अधिकार पाने से वंचित हो जाएगी, जो उसकी जरूरतों का ख्याल रखने के लिए तैयार हैं।

    अदालत ने कहा,''ऐसी स्थिति में जहां नाबालिग बच्ची को बिना उसकी गलती के छोड़ दिया जाता है, उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है और इसलिए, इस न्यायालय का मानना है कि नाबालिग बच्ची के हित को सर्वाेपरि मानते हुए, वर्तमान याचिका पर अनुकूल रूप से विचार किया जाना चाहिए।''

    इसलिए, अदालत ने याचिकाकर्ताओं को सुरक्षा और पारिश्रमिक के बिना नाबालिग बच्ची के प्राकृतिक और कानूनी अभिभावक के रूप में नियुक्त करने की अनुमति दी है। अदालत ने याचिकाकर्ताओं को स्कूल या किसी अन्य प्राधिकरण में अभिभावक के रूप में नाबालिग बच्ची का प्रतिनिधित्व करने की अनुमति भी दी है।

    मामला संख्या- संरक्षकता याचिका (एल) संख्या 11653/2022

    केस टाइटल- सुदीप सुहास कुलकर्णी व अन्य बनाम अब्बास बहादुर धनानी

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