किसी व्यक्ति को नैतिकता के आधार पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता: बॉम्बे हाईकोर्ट

Shahadat

12 Sept 2022 10:21 AM IST

  • किसी व्यक्ति को नैतिकता के आधार पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता: बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने माना कि किसी व्यक्ति को नैतिकता के आधार पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (POCA) के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। रिश्वत की मांग और स्वीकृति की मूल आवश्यकता को अभियोजन पक्ष द्वारा उचित संदेह से परे साबित किया जाना चाहिए।

    जस्टिस एस डी कुलकर्णी ने आपराधिक अपील में दोषसिद्धि को पलटते हुए कहा,

    "भ्रष्टाचार हमारे महान राष्ट्र में कैंसर की तरह फैल रहा है। भ्रष्टाचार की बीमारी लंबे समय से हमारे साथ है। आम आदमी इस बड़े भ्रष्टाचार का सामना कर रहा है, लेकिन अधिनियम के तहत भ्रष्टाचार के आरोपों के लिए व्यक्ति को नैतिक आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। जब कानून अपराध साबित करने के लिए कुछ अनिवार्य आवश्यकताओं को प्रदान करता है तो किसी शॉर्टकट की अनुमति नहीं है।"

    अपीलकर्ता औरंगाबाद में दूरसंचार विभाग (DoT) में सब डिविजनल इंजीनियर है। शिकायतकर्ता देवीदास मोहिते ने औरंगाबाद में एसटीडी/पीसीओ बूथ की स्थापना के लिए आवेदन किया। मौके पर निरीक्षण के बाद अपीलकर्ता ने स्थल परिवर्तन के कारण कनेक्शन देने से इंकार कर दिया। एसटीडी मशीन डीलर अनिल अग्रवाल ने शिकायतकर्ता को बताया कि उसे उसी परिसर में एसटीडी बूथ स्थापित करने के लिए 2000 रुपये का भुगतान करना है। शिकायतकर्ता ने भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो से संपर्क किया, जिसने अपीलकर्ता के कार्यालय में जाल बिछाया। अपीलकर्ता के पास से 2,000/- रुपये के करेंसी नोटों मिले। उसे अधिनियम की धारा 7, 13(1)(d) और 13(2) के तहत दोषी ठहराया गया। उन्होंने सजा को हाईकोर्ट में चुनौती दी।

    अपीलकर्ता के सीनियर वकील आर एन धोर्डे ने प्रस्तुत किया कि शिकायतकर्ता के साथ-साथ पंच गवाह मुकर गए और पीड़ित पक्ष के मामले का समर्थन नहीं किया। अपीलार्थी द्वारा शिकायतकर्ता से कोई प्रत्यक्ष मांग नहीं की गई। रिश्वत की मांग और स्वीकृति दोषसिद्धि के लिए अनिवार्य शर्त है। मांग के सबूत के बिना अपीलकर्ता से केवल करेंसी नोटों की वसूली प्रासंगिक अपराध नहीं है। पीओसीए की धारा 20 के तहत अनुमान तभी लगाया जा सकता है जब आरोपी की मांग साबित हो जाए।

    राज्य के एपीपी एस पी देशमुख ने प्रस्तुत किया कि हालांकि गवाह मुकर गए। फिर भी उनके सबूतों की समग्र रूप से जांच की जानी चाहिए और सबूत का जो भी हिस्सा विश्वसनीय पाया जाता है उसे स्वीकार किया जा सकता है। बिना किसी स्पष्टीकरण के अपीलकर्ता के मोज़े में दागी नोट पाए गए। नोटों को छुपाने से पता चलता है कि उसने रिश्वत ली, इसलिए अधिनियम की धारा 20 के तहत अनुमान लगाया जाना चाहिए। अपीलार्थी अनुमान का खंडन करने में विफल रहा है।

    अदालत ने कहा कि पूरा मामला देवीदास मोहिते (शिकायतकर्ता), प्रकाश निकम (पंच गवाह) और अभय अग्रवाल (एसटीडी बूथ मशीनों के आपूर्तिकर्ता/ठेकेदार) की गवाही पर टिका है। अपीलकर्ता द्वारा रिश्वत की मांग और स्वीकृति के बारे में किसी भी गवाह ने गवाही नहीं दी।

    अदालत ने एम. आर. पुरुषोत्तम बनाम कर्नाटक राज्य सहित कई मामलों का उल्लेख किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना कि मांग के सबूत के बिना आरोपी से केवल मुद्रा नोटों का कब्जा और वसूली अधिनियम की धारा 13 (1) (डी) के सपठित धारा 13(2) के तहत अपराध नहीं है।

    अदालत ने कहा,

    "यह दिन के उजाले की तरह ही स्पष्ट है कि अभियोजन मांग और रिश्वत की स्वीकृति की बुनियादी कानूनी आवश्यकता को साबित करने में बुरी तरह विफल रहा, जैसा कि अधिनियम की धारा 13 (1) (डी) सपठित धारा 13 (2) के तहत विचार किया गया है।"

    इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि भौतिक गवाहों ने अपीलकर्ता द्वारा रिश्वत की मांग और स्वीकृति की बुनियादी कानूनी आवश्यकता का समर्थन नहीं किया।

    अदालत ने आगे कहा कि दागी नोट अपीलकर्ता की अलमारी और टेबल दराज की तलाशी के दो निष्फल प्रयासों के बाद उसके दाहिने पैर के जुर्राब में पाए गए। यह कथित वसूली विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि शिकायतकर्ता ने कहीं भी यह नहीं कहा कि अपीलकर्ता ने अपने दाहिने पैर के मोज़े में नोट रखे थे।

    कोर्ट ने आगे कहा कि वर्तमान मामले में अनिवार्य मंजूरी कानून में खराब है, क्योंकि मंजूरी देने वाले प्राधिकारी ने अपना दिमाग नहीं लगाया। उन्होंने इस बात पर विचार नहीं किया कि अपीलकर्ता के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला स्थापित हुआ है या नहीं।

    अदालत ने अपीलकर्ता के दोषसिद्धि आदेश को रद्द कर दिया और उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया।

    मामला नंबर- आपराधिक अपील नंबर 491/2005

    केस टाइटल- सयाजी दशरथ कावड़े बनाम महाराष्ट्र राज्य

    कोरम - जस्टिस श्रीकांत डी. कुलकर्णी

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