बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2012 के शक्ति मिल्स गैंगरेप मामले में तीन दोषियों की मौत की सजा को कम किया, फोटो जर्नलिस्ट का किया था रेप

LiveLaw News Network

25 Nov 2021 6:42 AM GMT

  • बॉम्बे हाईकोर्ट, मुंबई

    बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने सोमवार को 2013 में बंद हो चुकी शक्ति मिल में एक फोटो-जर्नलिस्टके सामूहिक बलात्कार के मामले में सजायाफ्ता तीन दष को दी गई मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया। जस्टिस एसएस जाधव और पृथ्वीराज चव्हाण की पीठ ने ये फैसला सुनाया।

    2014 में ट्रायल कोर्ट ने कासिम 'बंगाली' शेख (21), सलीम अंसारी (28) और विजय जाधव (19) को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376 (ई) के तहत मौत की सजा दी थी।

    धारा 376 (ई) के तहत बलात्कार के रिपीट अफेंडर्स के लिए आजीवन कारावास या मौत की सजा का प्रावधान है। दिसंबर, 2012 में दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार पर हुए विरोध प्रदर्शनों के बाद इसे आपराधिक (कानून) संशोधन अधिनियम 2013 के माध्यम से आईपीसी में जोड़ा गया था।

    घटना

    घटना 22 अगस्त 2013 की है। एक युवा फोटो जर्नलिस्ट, जो अपने सहयोगी के साथ काम पर गई थी। उसके साथ शक्ति मिल परिसर में चार लोगों और एक नाबालिग ने बलात्कार किया। मुंबई पुलिस ने 24 घंटे के अंदर मामले का पर्दाफाश किया और एक हफ्ते के भीतर सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया।

    एक 19 वर्षीय टेलीफोन ऑपरेटर ने एक महीने बाद 31 जुलाई, 2013 को उसी स्थान पर पांच लोगों द्वारा सामूहिक बलात्कार किए जाने की शिकायत की।

    दोनों पीड़ितों ने बलात्कार के मुकदमें में कासिम शेख, सलीम अंसारी और विजय जाधव की पहचान की। उनका मुकदमा एक साथ चला और 20 मार्च 2014 को सत्र न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश ने प्रत्येक मामले में 4 आरोपियों को दोषी ठहराया। किशोर न्याय बोर्ड ने दो नाबालिगों पर मुकदमा चलाया।

    अगले दिन, टेलीफोन ऑपरेटर के मामले में अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इसके बाद अभियोजन पक्ष ने धारा 376 (ई) को जोड़ने के लिए एक आवेदन दायर किया। याचिका को स्वीकार कर लिया गया और 24 मार्च को जज ने फोटो जर्नलिस्टमामले में शेख, अंसारी और जाधव को मौत की सजा सुनाई। एक अन्य आरोपी को उम्रकैद की सजा सुनाई गई।

    प्रधान न्यायाधीश शालिनी फनसालकर जोशी ने कहा था, "विधानसभा ने दुर्लभतम मामलों में इस सजा का प्रावधान किया है।"

    सीआरपीसी की धारा 366 के तहत मौत की सजा की पुष्टि के लिए मामला बॉम्बे हाईकोर्ट पहुंचा। अभियोजन पक्ष की ओर से अधिवक्ता दीपक साल्वी पेश हुए, जिनकी साहिल साल्वी ने सहायता की और अधिवक्ता युग चौधरी को एमिकस क्यूरी नियुक्त किया गया। एडवोकेट पायोशी रॉय ने उनकी सहायता की।

    आईपीसी की धारा 376E की प्रयोज्यता

    चौधरी ने तर्क दिया कि धारा 376E केवल तभी लागू की जा सकती है, जब पहले सजा दी गई हो, न कि केवल दोषसिद्धि हुई हो। इसका मतलब यह होगा कि दोषी के पास सुधार करने का अवसर था, जिसके बावजूद उसने अपराध दोहराया। बहुत कुछ आईपीसी की धारा 75 के तहत जैसा।

    हालांकि, वर्तमान मामले में चौधरी ने तर्क दिया कि दोनों दोषसिद्धि में केवल 30 मिनट का अंतर था। इसके विपरीत, स्पेशल प्रॉसिक्यूशन साल्वी ने तर्क दिया कि दोषसिद्धि और सजा के बीच अंतर था। धारा 376 (ई) दोषसिद्धि को अनिवार्य करती है जिसकी संतुष्टि इस मामले में हुई है।

    उन्होंने तर्क दिया कि मूल नियम शब्दों की उनके शाब्दिक अर्थ में व्याख्या करना है और विधायिका का इरादा एक निरोध पैदा करना है।

    उच्चतम निर्धारित सजा का हकदार

    साल्वी ने तर्क दिया कि तीनों के कृत्य "सामाजिक भरोसे के टूटने" के समान हैं और समाज के आक्रोश को आमंत्रित करते हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह का अपराध एक "भय मनोविकृति" पैदा करता है और निश्चित रूप से दुर्लभतम मामलों की श्रेणी में आता है और इसलिए उच्चतम निर्धारित सजा का हकदार है, जो कि मृत्यु है।

    "इस मामले में, अपराध की क्रूर, बर्बर और शैतानी प्रकृति आरोपी व्यक्तियों द्वारा किए गए कृत्यों से स्पष्ट है, जैसे, अभियोक्ता और उसके सहयोगी पर हमला करना, उसे बांधना और जान से मारने की धमकी देना; पीड़िता के कपड़े उतारना ; पीड़िता का यौन उत्पीड़न करना आदि; सभी दोषियों द्वारा हिंसक यौन हमला करना; पीड़िता के साथ गुदा मैथुन करने में उनका क्रूर व्यवहार, उसे मुख मैथुन करने के लिए मजबूर करता है।"

    उन्होंने तर्क दिया कि फोटो जर्नलिस्ट की मेडिकल जांच से पता चलता है कि घटना में बाद वह पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर से पीड़ित हो गई। दोषियों ने उन्हें हर संभव अमानवीय तरीके से बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

    बचाव का कोई उचित अवसर नहीं

    एमिकस क्यूरी चौधरी ने तर्क दिया कि 376(ई) के तहत आरोप अनुचित तरीके से तैयार किए गए थे क्योंकि यह आईपीसी की धारा 376 डी (सामूहिक बलात्कार) के तहत उनकी सजा के बाद किया गया था।

    उन्होंने तर्क दिया कि सत्र न्यायाधीश ने जिरह के लिए गवाहों को वापस बुलाने और सजा की मात्रा पर बहस के लिए स्थगन के आरोपी के आवेदन को खारिज कर दिया था।।

    मौत की सजा के लायक नहीं

    चौधरी ने चार विशेषज्ञों के हलफनामे पेश किए जिन्हें उन्होंने अभियुक्तों के साथ साक्षात्कार के ट्रांस‌‌क्रिप्ट दिए थे, जिन्होंने उनका विश्लेषण किया ताकि वे जीवित अनुभवों और सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों को समझाने में मदद कर सकें जो पुरुषों को हिंसक और इस तरह के अपराध में शामिल होन में सक्षम बनाती है।। उन्होंने सुधार की क्षमता पर भी विचार किया।

    उन्होंने तर्क दिया, पुरुषों को कभी भी किसी सुधारात्मक प्रभाव के अधीन नहीं किया गया, यहां तक ​​​​कि स्कूल भी नहीं भेजा गया और घृणित हिंसा उनके जीवन में सामान्य हो गई, इसलिए वे मृत्यु की सजा के लायक नहीं हैं, खासकर जब न्यूनतम सजा 20 साल हो।

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