मुस्लिम क़ानून के तहत पति के तलाक़ को निरस्त करने के निचली अदालत के फ़ैसले को बॉम्बे हाईकोर्ट ने ख़ारिज किया

LiveLaw News Network

3 March 2020 3:15 AM GMT

  • मुस्लिम क़ानून के तहत पति के तलाक़ को निरस्त करने के निचली अदालत के फ़ैसले को बॉम्बे हाईकोर्ट ने ख़ारिज किया

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने पिछले महीने फेमेली कोर्ट के एक फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया जिसमें पेशे से शिक्षक अकोला के 43 वर्षीय पति इक़बाल अहमद के तलाक़ को रद्द कर दिया था।

    न्यायमूर्ति ज़ेडए हक़ और न्यायमूर्ति एसएम मोदक की पीठ ने पारिवारिक अदालत के ख़िलाफ़ अहमद की अपील पर सुनवाई करते हुए यह फ़ैसला दिया। पारिवारिक अदालत ने 23 अक्टूबर 2012 को यह फ़ैसला दिया था।

    पारिवारिक अदालत ने अपने फ़ैसले के लिए शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और एक अन्य मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले भरोसा किया जिसमें प्रतिवादी-पत्नी के दावे को सही माना गया था। पारिवारिक अदालत ने कहा था कि पति ने जो तलाक़ दिया था उसे क़ानूनी तौर पर वैध नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इससे पहले अपीलकर्ता और प्रतिवादी के बीच सुलह की कोई कोशिश नहीं की गई।

    अपीलकर्ता-पति के अनुसार, उसने वर्ष 2012 में 25 जून, 16 जुलाई, 3 सितम्बर और 1 अक्टूबर को नोटिस जारी कर प्रतिवादी-पत्नी को साथ-साथ रहने को कहा था। नोटिस से पता चलता है कि पति अपनी पत्नी को उसके मायके के लाने का बार-बार प्रयत्न कर रहा था।

    दूसरी ओर, पत्नी का कहना था कि नोटिस में जो कहा गया है वह सही नहीं है और अपीलकर्ता-पति ने इस तरह की कोशिश नहीं की थी।

    हालांकि, आमने-सामने की पूछताछ में प्रतिवादी पत्नी के पिता ने इस बात को माना कि 26 अगस्त 2012 को बलपुर में अब्दुल हाफ़िज़ अब्दुल राऊफ़ के घर एक मीटिंग रखी गई थी ताकि इस मामले का हाल निकल सके। पत्नी के पिता इस बैठक में नहीं आ सके क्योंकि प्रतिवादी के बच्चे की तबीयत ठीक नहीं थी। प्रतिवादी पत्नी के पिता ने यह माना कि अपीलकर्ता पति ने मामले को सुलझाने के तीन प्रयास किए।

    इस आदेश पर ग़ौर करने के बाद पीठ ने कहा, "निचली अदालत के जज ने शमीम आरा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को आधार बनाया है पर उसने वर्तमान मामले के तथ्यों को नज़रअन्दाज़ किया है।"

    फिर अदालत ने पत्नी के पिता से हुई पूछताछ का हवाला देते हुए कहा,

    "इस गवाह ने कहा है कि वे भी फ़ैसले के पक्ष में थे। इसका मतलब यह हुआ कि सुलह की कई कोशिशें हुईं। इसके आलोक में मामले की पड़ताल से यह कहा जा सकता है कि पति ने इस्लामिक क़ानून के अनुरूप काम किया। सुप्रीम कोर्ट ने शमीम आरा के मामले में जो फ़ैसला दिया उससे प्रतिवादी (पत्नी) के मामले को यहाँ मदद नहीं मिलती है।"

    अदालत ने कहा कि इस बारे में कोई विवाद नहीं है कि अपीलकर्ता ने 23 2012 को नोटिस भेजा था। मुस्लिम क़ानून के मुताबिक़ यह नोटिस दो गवाहों की मौजूदगी में दी गई थी। अदालत इन बातों को देखते हुए अपील पर सुनवाई को राज़ी हो गया।

    अदालत ने कहा, "अपीलकर्ता (पति) की अपनी पत्नी को तलाक़ देने की इच्छा स्पष्ट है और इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। इस बारे में भी कोई विवाद नहीं हियाँ कि उसने प्रतिवादी (पत्नी) को 22 अक्टूबर 2012 को तलाक़ दिया था। हालाँकि, यह तलाक़ मौखिक है, 23 अक्टूबर 2012 को जो नोटिस भेजा गया है, उसमें इसका ज़िक्र है।

    हमने पाया है कि पति ने जो तलाक़ कि प्रक्रिया अपनाई है वह इस्लामिक क़ानून के अनुरूप है और निचली अदालत के जज साक्ष्यों को सही संदर्भ में समझने में चूक की है। इसलिए निचली अदालत का फ़ैसला क़ानून की नज़र में ग़लत है।


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