जांच शुरू होने के बाद किसी व्यक्ति द्वारा पुलिस अधिकारी को दिये या भेजे जाने वाले पत्र पर सीआरपीसी की धारा 162 के तहत प्रतिबंध लागू होता है: केरल हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

11 July 2020 3:30 AM GMT

  • जांच शुरू होने के बाद किसी व्यक्ति द्वारा पुलिस अधिकारी को दिये या भेजे जाने वाले पत्र पर सीआरपीसी की धारा 162 के तहत प्रतिबंध लागू होता है: केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि एक व्यक्ति द्वारा अपराध की जांच शुरू होने के बाद पुलिस अधिकारी को भेजा जाने वाला पत्र अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 की धारा 162 (एक) के प्रतिबंध के दायरे में आता है।

    संहिता की धारा 162 (एक) में यह प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी पुलिस अधिकारी को जांच के दौरान दिये गये बयान को यदि लिखित में दिया जाता है तो वह व्यक्ति उस पर हस्ताक्षर करेगा। इसमें आगे कहा गया है कि इस तरह का बयान या इससे संबंधित कोई दस्तावेज वैसे किसी भी अपराध से संबंधित जांच या ट्रायल के सिलसिले में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, जिसकी जांच जारी है।

    न्यायमूर्ति आर. नारायण पिशराडी आबकारी अधिनियम के तहत दोषसिद्धि के खिलाफ अपील पर विचार कर रहे थे। इस मामले में ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए तिरुवल्ला के एक्साइज सर्किल इंस्पेक्टर द्वारा उस एक्साइज इंस्पेक्टर को भेजे गये पत्र पर भरोसा किया था, जो मामले की जांच कर रहा था। इसलिए इस मामले में कोर्ट को इस बात पर विचार करना था कि क्या सीआरपीसी की धारा 162(1) के तहत निषेध प्रावधान जांच के क्रम में पत्र के रूप में या किसी लिखित पत्राचार के माध्यम से पुलिस अधिकारी द्वारा एक व्यक्ति से प्राप्त की गयी सूचना पर लागू होगा?

    कोर्ट ने 'काली राम बनाम हिमाचल प्रदेश, एआईआर 1973 एससी 2773' के मामले में दिये गये फैसले का उल्लेख किया था, जिसमें कहा गया था कि जांच के दौरान पुलिस अधिकारी को दिये गये बयान के इस्तेमाल से संबंधित प्रतिबंध उस पुलिस अधिकारी द्वारा बेकार नहीं होने दिया जा सकता जिसने खुद से उस व्यक्ति का बयान दर्ज नहीं किया है, बल्कि उसे यह लिखित बयान के तौर पर मिला है। इस सिलसिले में 'विनोद चतुर्वेदी बनाम मध्य प्रदेश सरकार: एआईआर 1984 एससी 911' और 'राजीवन बनाम पुलिस अधीक्षक: 2011 (1) केएचसी 738' का उल्लेख भी किया गया।

    कोर्ट ने अपील मंजूर करते हुए कहा,

    " इस मुकदमे में एक्साइज इंस्पेक्टर ने मामले की जांच की थी। तीन जून 1997 से आबकारी कानून की धारा 50 में संशोधन लागू होने के बाद से आबकारी अधिकारी संहिता की धारा 173(2) के अनुरूप ही अपनी अंतिम रिपोर्ट फाइल कर सकता है और उन्हें पुलिस अधिकारी में रूप में माना जाता है (देखें 'जोसेफ बनाम केरल सरकार: 2009 (4) केएचसी 537' )। यदि ऐसा है, तो जांच के दौरान किसी व्यक्ति द्वारा एक्साइज इंस्पेक्टर को दिये गये बयान को सीआरपीसी की धारा 162 के आधार पर साक्ष्य से बाहर रखा जाना चाहिए था (देखें - राजा राम जायसवाल बनाम बिहार सरकार : एआईआर 1964 एससी 828)। उपरोक्त परिस्थितियों में अभियोजन पक्ष की ओर से सातवें क्रम में सम्बद्ध किये गये पत्र को साक्ष्य से बाहर रखा जाना चाहिए था। ऐसी स्थिति में इस बात का कोई साक्ष्य नहीं बचता कि प्रासंगिक अवधि के दौरान याचिकाकर्ता ताड़ी की दुकान का लाइसेंसधारक था।"

    केस का ब्योरा :

    केस का नाम : एम. आर. बालाकृष्णन बनाम केरल सरकार

    केस नं. : क्रिमिलन रिवीजन पिटीशन नं. 2792/2009

    कोरम : न्यायमूर्ति आर. नारायण पिशराडी

    वकील : एडवोकेट सी एस मनु एवं सीनियर पीपी संतोष पीटर

    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहांं क्लिक करेंं



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