'अतिरिक्त महाधिवक्ता की दलीलें प्रथम दृष्टया अवमाननापूर्ण हैं': आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने सासंद रघुराम कृष्णम राजू की गिरफ्तारी से संबंधित मामले में कहा

LiveLaw News Network

22 May 2021 4:13 PM IST

  • अतिरिक्त महाधिवक्ता की दलीलें प्रथम दृष्टया अवमाननापूर्ण हैं: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने सासंद रघुराम कृष्णम राजू की गिरफ्तारी से संबंधित मामले में कहा

    आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने आंध्र प्रदेश सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त महाधिवक्ता ने वाईएसआर कांग्रेस सांसद कृष्णम रघुराम राजू की गिरफ्तारी से संबंधित मामले में अपनी दलीलें देते समय बेशर्मी और अहंकार जैसे बर्ताव पर आश्चर्य व्यक्त किया।

    जस्टिस ललिता कन्नेगती और सी प्रवीण कुमार की डिवीजन बेंच ने अतिरिक्त महाधिवक्ता पी सुधाकर रेड्डी से कहा कि,

    "एक वकील को सज्जन व्यक्ति (जेंटलमैन) की तरह व्यवहार करना चाहिए।"

    कोर्ट ने अतिरिक्त अधिवक्ता रेड्डी को याद दिलाया कि कैसे उन्होंने कोर्ट को डराने वाले लहजे में संबोधित किया और बेंच पर आक्षेप लगाना यह कहकर कि इस मामले में उसकी विशेष रुचि है।

    कोर्ट ने कहा कि एएजी द्वारा दी गई दलीलें प्रथम दृष्टया अवमाननापूर्ण हैं और अवमानना की कार्यवाही शुरू करने के लिए वारंट जारी किया जाएगा। हालांकि कोर्ट ने थोड़ी उदारता दिखाई और भविष्य में इस तरह के कृत्य को न दोहराने की चेतावनी के साथ छोड़ दिया।

    उच्च न्यायालय ने अतिरिक्त महाधिवक्ता को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि यह व्यवहार दोहराया जाता है तो यह अदालत आवश्यक कार्रवाई करने में संकोच नहीं करेगी।

    डिवीजन बेंच एएजी से अपने उस आदेश को लागू न करने पर पूछताछ कर रही थी, जिसमें प्रतिवादी-अधिकारियों को मजिस्ट्रेट कोर्ट के आदेश के अनुसार गिरफ्तार विधायक की मेडिकल जांच करने का निर्देश दिया गया था।

    न्यायाधीशों के आदेश से संबंधित प्रश्नों के जवाब में एएजी ने कोर्ट से ऊंचे स्वर में और डराने वाले लहजे में संबोधित करते हुए कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत यह आदेश एक धोखाधड़ी और गैर-कानूनी है, इसलिए इस आदेश को लागू नहीं किया जा सकता है और उच्च न्यायालय मजिस्ट्रेट के एक गैर-कानूनी आदेश को लागू करने के लिए एक प्लेटफॉर्म बन गया है।

    अतिरिक्त महाधिवक्ता ने यह भी पूछा कि क्या रात में जेल के दरवाजे खोलने चाहिए और उन्हें (राजू) को अस्पताल में स्थानांतरित करना चाहिए क्योंकि रात 11 बजे ही आदेश प्राप्त हुआ।

    बेंच ने पूछा कि अगली सुबह आदेश क्यों लागू नहीं किया गया, उन्होंने बेंच से कहा कि उस समय तक आरोपी राहत के लिए शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटा चुका था।

    कोर्ट ने आदेश में कहा कि एएजी ने डराने वाले लहजे में कहा कि जो वह प्रस्तुत कर रहा है उसे अदालत को सुनना चाहिए है और अगर अदालत उसे योग्यता के आधार पर बहस करने नहीं दे रही है, तो वह बाहर निकल जाएगा।

    कोर्ट से एएजी ने ऊंचे स्वर में कहा कि इस मामले में अदालत का विशेष हित क्या है और पत्र को स्वीकार करने और इस मामले को लेने जैसा क्या खास है।

    बेंच ने शुरुआत में स्पष्ट रूप से कहा कि शीर्ष न्यायालय के समक्ष केवल अपील दायर करना संवैधानिक न्यायालय (उच्च न्यायालय) के आदेशों को लागू नहीं करने का बहाना नहीं है, जब तक कि अपील की अनुमति नहीं दी जाती है।

    कोर्ट को न्यायालय के अधिकारी की इस तरह के अवमाननापूर्ण आचरण को देखकर हैरानी हुई।

    पीठ ने कहा कि एक वकील से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह अपना मामला पेश करते समय अदालतों का अत्‍यधिक आज्ञाकारी हो। न्यायालय द्वारा उसका विरुद्ध होने पर भी उसे अपने तर्क प्रस्तुत करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। हालांकि अदालत के प्रति अभद्र होने या अपमानजनक और धमकी भरी भाषा के साथ पीठ से बहस करने की उम्मीद नहीं की जाती है।

    डिवीजन बेंच ने एएजी से कहा कि,

    "बेशर्मी मुंह-फट जैसा बोलना नहीं है और अहंकार निडरता नहीं है। अभद्र भाषा का उपयोग अधिकार का दावा नहीं है और न ही एक तर्क है। विनम्रता दासता नहीं है और शिष्टाचार और विनम्रता गरिमा की कमी नहीं है। आत्म-संयम और न्यायालय के प्रति सम्मानजनक रवैया होना चाहिए।"

    बेंच ने आगे कहा कि अधिवक्ताओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अदालत की मर्यादा हर समय बनी रहे। महान पेशे के सदस्य होने के नाते वकील को खुद को दूसरों के लिए रोल मॉडल के रूप में पेश करना चाहिए। एक फैसला दोनों पक्षकारों को कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकता है। एक पक्षकार जो फैसले से असंतुष्ट है उसे उस आदेश पर सवाल उठाने का एक उपाय प्रदान किया जाता है। अधिवक्ता द्वारा डराने-धमकाने के तरीके से बात करने का कोई अधिकार नहीं है। अधिवक्ता को अपने पक्ष में आदेश पाने के लिए इस तरह की रणनीति का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए और कभी भी मुवक्किल के स्थान पर अपने आप को नहीं खड़ा करना चहिए।"

    डिवीजन बेंच ने जोर देकर कहा कि अगर न्यायपालिका को अपने कर्तव्यों और कार्यों को प्रभावी ढंग से और उस भावना के साथ सही ढंग से करना है जो पवित्र रूप से सौंपा गया है तो अदालतों की गरिमा और अधिकार की हर कीमत पर सम्मान और संरक्षण किया जाना चाहिए। अन्यथा हमारी संवैधानिक योजना की आधारशिला ही खत्म हो जाएगी और इसके साथ समाज में कानून का शासन और सभ्य जीवन समाप्त हो जाएगा।

    बेंच ने कहा कि,

    "एक वकील जो राज्य की ओर से पेश होता है, उसे तथ्यों को सही और ईमानदार तरीके से बताना चाहिए। उसे अपने कर्तव्य का निर्वहन अत्यधिक जिम्मेदारी के साथ करना होगा और उसकी प्रत्येक कार्रवाई समझदार होनी चाहिए। उसके आचरण के उच्च मानक होने की अपेक्षा की जाती है। सहायता प्रदान करने में न्यायालय के प्रति उनका विशेष कर्तव्य है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसके पास सार्वजनिक रिकॉर्ड तक पहुंच है और वे सार्वजनिक हितों की रक्षा करने के लिए भी बाध्य हैं।"

    बेंच ने आगे कहा कि,

    "अदालत के प्रति उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। अगर ये नौतिक मूल्य नष्ट हो जाएंगी तो कहा जा सकता है कि सब कुछ समाप्त हो गया। उन्हें हमेशा खुद को याद दिलाना चाहिए कि एक वकील को महत्वाकांक्षा और उपलब्धि के प्रति ज्यादा झुकाव न करके कानूनी पेशे की नैतिकता और बड़प्पन की भावना महसूस करनी चाहिए।"

    न्यायमूर्ति सी प्रवीण कुमार ने न्यायमूर्ति ललिता कन्नगती द्वारा पारित मुख्य आदेश के पूरक के रूप में एक अलग आदेश लिखा।

    न्यायमूर्ति प्रवीण कुमार ने आदेश में कहा कि,

    "मुझे लगता है कि अतिरिक्त महाधिवक्ता पी. सुधाकर रेड्डी को बहस के दौरान कुछ संयम दिखाना चाहिए था। कोर्ट रूप में संयम रखना बहस की पहचान है और शब्दों के चुनाव को भी एक विवादित मामले में मापा जाना चाहिए। अतिरिक्त महाधिवक्ता अदालत द्वारा सुनवाई के दौरान शांत और बेहतर शब्दों का इस्तेमाल किया जा सकता था।"

    केस का शीर्षक: स्वत: संज्ञान बनाम आंध्र प्रदेश राज्य

    आदेश की कॉपी यहां पढ़ें:



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