आरोपी को भगौड़ा घोषित किए जाने के बाद भी उसका अग्रिम जमानत आवेदन सुनवाई योग्य : मध्यप्रदेश हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

14 May 2020 6:28 AM GMT

  • Writ Of Habeas Corpus Will Not Lie When Adoptive Mother Seeks Child

    MP High Court

    ‘‘अग्रिम जमानत की मांग करने वाले व्यक्ति के खिलाफ किसी रोक का कोई अस्तित्व नहीं है।’’

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ ने मंगलवार को कहा है कि सीआरपीसी की धारा 82 के तहत एक अभियुक्त को भगौड़ा घोषित करना भी उसे अग्रिम जमानत की मांग के लिए आवेदन दाखिल करने से नहीं रोक सकता।

    राज्य सरकार ने कहा था कि आरोपी भगौड़ा है और अभी मामले की जांच में उसकी आवश्यकता है, इसलिए शादी के बहाने बलात्कार करने वाले इस 40 वर्षीय आरोपी की तरफ से दायर अग्रिम जमानत अर्जी सुनवाई योग्य नहीं है। अदालत को बताया गया था कि पुलिस अधीक्षक, ग्वालियर ने 30 जनवरी 2020 को आरोपी की गिरफ्तारी पर पांच हजार रुपये का इनाम घोषित किया था।

    इसके लिए लवेश बनाम राज्य ( एनसीटी ऑफ दिल्ली) (2012) 8 एससीसी 73, मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले का हवाला दिया गया।

    इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि -

    ''जब किसी व्यक्ति के खिलाफ एक वारंट जारी किया जाता है और वह वारंट के निष्पादन से बचने के लिए फरार है या खुद को छिपा रहा है। ऐसे में अगर उसे कोड की धारा 82 के संदर्भ में भगौड़ा आरोपी घोषित कर दिया जाता है तो इसके बाद वह अग्रिम जमानत की राहत का हकदार नहीं रह जाता है।''

    भगौड़े का आवेदन ''पात्रता'' खोता है, सुनवाई की योग्यता नहीं

    न्यायमूर्ति आनंद पाठक की पीठ ने इस फैसले की व्याख्या देते हुए इस बात पर जोर दिया कि यह निर्णय किसी व्यक्ति के भगौड़ा घोषित होने के बाद उसके अग्रिम जमानत आवेदन की ''अनुरक्षणीयता'' के बारे में बात नहीं करता है, लेकिन यह केवल सुझाव देता है कि भगौड़ा व्यक्ति जमानत के लिए अपनी ''पात्रता' खो देता है।

    कोर्ट ने जोर देते हुए कहा कि ''लवेश (सुप्रा) के उपर्युक्त पैरा में प्रयुक्त ''एंटाइटल्ड या पात्रता'' शब्द से ही पता चलता है कि यह मुख्य रूप से तथ्यों या योग्यता के आधार पर अधिकार के बारे में बात करता है न कि अनुरक्षणीयता के बारे में।

    इस पहलू को विस्तार से बताते हुए अदालत ने कहा,

    ''... शीर्ष अदालत के अनुसार, एक व्यक्ति जिसे सीआरपीसी की धारा 82 व 83 के तहत आरोपी भगौड़ा घोषित कर दिया जाता है उसके बाद वह अग्रिम जमानत लेने के लिए योग्यता के आधार पर अपनी चमक खो देता है। अगर उसे सीआरपीसी की धारा 82 के तहत फरार घोषित कर दिया जाता है तो उसका आवेदन योग्यता के आधार पर खारिज करने योग्य है, परंतु उसका आवेदन निश्चित रूप से सुनवाई योग्य है।''

    क्षणिक प्रावधान के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संक्षिप्त नहीं किया जा सकता

    अदालत ने यह भी बताया कि सीआरपीसी की धारा 82 और 83 की प्रकृति क्षणिक/अंतरिम/अस्थायी है और सीआरपीसी की धारा 84-86 के तहत कार्रवाई के अधीन है।

    कोर्ट ने माना है कि

    '' इसलिए कम से कम अग्रिम जमानत मांगने के लिए किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूल्यवान अधिकार पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में इस गणना के आधार पर भी सीआरपीसी की धारा 438 के तहत दायर आवेदन सुनवाई योग्य है, भले ही एक व्यक्ति को सीआरपीसी की धारा 82 के संदर्भ में भगौ‌ड़ा घोषित कर दिया गया हो।''

    जब तक अभियुक्त गिरफ्तार नहीं हो जाता, तब तक अग्रिम जमानत अर्जी सुनाई योग्य

    न्यायालय ने गुरबख्श सिंह सिबिया बनाम पंजाब राज्य,एआईआर 1980 एससी 1632 मामले में दिए गए फैसले के संदर्भ में एक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्व को प्रबल करते हुए कहा कि जब तक किसी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाता, तब तक उसकी तरफ से दायर अग्रिम जमानत अर्जी सुनवाई योग्य है।

    अदालत ने कहा कि

    ''लवेश और प्रदीप शर्मा (सुप्रा) के मामले में शीर्ष अदालत द्वारा सुनाए गए फैसले में कही भी यह रोक नहीं लगाई गई है कि सीआरपीसी की धारा 82 और 83 के तहत किसी व्यक्ति को फरार घोषित किए जाने के बाद सीआरपीसी की धारा 438 के तहत दायर किया गया आवेदन अनुरक्षणीय या सुनवाई योग्य नहीं होगा।

    अन्यथा लवेश और प्रदीप शर्मा (सुप्रा) मामले में दिया गया यह फैसला 'गुरबख्श सिंह सिबिया आदि(सुप्रा) और सुशीला अग्रवाल व अन्य (सुप्रा)' के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा दिए गए फैसले के साथ ही 'भरत चौधरी व अन्य (सुप्रा)' के साथ-साथ 'रवींद्र सक्सेना (सुप्रा)' के मामले में शीर्ष अदालत की दो जजों की बेंच द्वारा दिए गए फैसलों के अर्थ और भावना के अनुरूप नहीं हो पाता।

    चूंकि इन सारे फैसलों में जजों ने स्पष्ट रूप से माना है कि आरोप पत्र दाखिल होने के बाद भी तब तक अग्रिम जमानत अर्जी सुनवाई योग्य है, जब तक आरोपी गिरफ्तार नहीं हो जाता है।''

    सिर्फ गिरफ्तारी के लिए नगद-पुरस्कार की घोषणा नहीं बनाती धारा 82 को प्रभावी

    मामले के तथ्यों पर आते हुए अदालत ने कहा कि पुलिस अधीक्षक ने केवल आवेदक की गिरफ्तारी पर एक इनाम घोषित किया था, और सीआरपीसी की धारा 82 के तहत कोई कार्रवाई शुरू नहीं की गई थी।

    इस संदर्भ में न्यायालय ने कहा कि-

    ''वर्तमान मामले में सीआरपीसी की धारा 82 के तहत शुरू की कार्रवाई को अभी तक (केस-डायरी के अनुसार) पूरा नहीं किया गया है और केवल पुलिस अधीक्षक ने 5000 रुपये की नकद राशि के पुरस्कार घोषणा की है। अग्रिम जमानत अर्जी पर निर्णय करते समय निश्चित रूप से यह एक विचार करने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य है, परंतु अग्रिम जमानत अर्जी दाखिल करने से रोकने के लिए इसका अधिभावी प्रभाव नहीं हो सकता।

    इसलिए इस न्यायालय का मानना है कि भले ही पुलिस प्राधिकरण ने पुरस्कार घोषित कर दिया हो या फरारी पंचनामा तैयार कर लिया हो तब भी अग्रिम जमानत अर्जी सुनवाई योग्य है। हालांकि इस बात का निर्णय योग्यता के आधार पर किया जाना चाहिए कि क्या इस अर्जी पर विचार किया जाना चाहिए और इसे सीआरपीसी की धारा 438 में शामिल कारकों के अनुसार स्वीकार किया जाना चाहिए? यदि इस धारा में दिया गया कोई भी कारण संतुष्ट नहीं होता है तो न्यायालय को निश्चित रूप से इसे अस्वीकार करने का अधिकार है।

    'गुरबख्श सिंह सिबिया आदि (सुप्रा)' के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के फैसले द्वारा उक्त विवेक या अधिकार कोर्ट को दिया गया है।''

    योग्यता या तथ्यों पर विचार किया

    आवेदक-अभियुक्त पर आईपीसी की धारा 376, 386, 506 के तहत दंडनीय अपराध का आरोप लगाया गया था। अभियोजन पक्ष का यह कहना था कि आवेदक ने शादी के बहाने पीड़िता से बलात्कार किया गया था। यह भी आरोप है कि उसने कथित तौर पर किसी अन्य लड़की से शादी कर ली है।

    हालांकि अदालत ने माना कि पीड़िता व आवेदक दोनों घटना के समय ''परिपक्व'' थे और एक समझौते पर पहुंचने की कोशिश की थी।

    ''जैसा कि बताया भी गया है कि पहले दोनों पक्षों ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत याचिका नंबर 930/2020 दायर कर इस मामले को निपटाने की कोशिश भी की थी। दोनों परिपक्व व्यक्तियों ने अपने फैसलों के परिणामों की प्रतीक्षा की और दोनों ने कुछ दिन आराम से साथ भी गुजारे।''

    इन परिस्थितियों में न्यायालय ने 'प्रमोद सूर्यभान पवार बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य,एआईआर 2019 एसी 4010' मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा किया है।

    कोर्ट ने माना कि

    ''शरीर व आत्मा के बीच सहमति ने बनी निकटता का उपयोग, उस समय प्रतिशोध के हथियार के रूप नहीं किया जा सकता है जब बाद में शरीर और आत्मा अलग हो जाते हैं।''

    उपरोक्त मामले में भी शीर्ष अदालत ने कहा था कि यदि शादी के बहाने भी शारीरिक अंतरंगता विकसित हो जाती है तो भी इससे बलात्कार का अपराध नहीं बनता है।

    इसलिए अदालत ने इस मामले की योग्यता या तथ्यों पर कोई राय व्यक्त किए बिना ही आरोपी की अग्रिम जमानत अर्जी को स्वीकार कर लिया है। अदालत ने कहा है कि जांच अधिकारी की संतुष्टि के लिए आरोपी को एक लाख रुपये की राशि का व्यक्तिगत बांड भरना होगा या प्रस्तुत करना होगा। वहीं उसे आरोग्य सेतु ऐप भी डाॅउनलोड करनी होगी।

    विशेष रूप से, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ऐसे दर्जनों आदेश दे चुकी है, जिनमें जमानत पर रिहा किए गए अभियुक्तों को निर्देश दिया गया है कि वह अनिवार्य रूप से आरोग्य सेतु ऐप का उपयोग करें। जबकि इस ऐप के कारण सुरक्षा और डेटा संरक्षण को लेकर व्यक्त की गई चिंता पर पिछले दिनों ही बहस हुई है।

    मामले का विवरण-

    केस शीर्षक-बलवीर सिंह बुंदेला बनाम मध्य प्रदेश राज्य

    केस नंबर- मिसलेनीअस क्रिमिनल केस नंबर 521/ 2020

    कोरम-जस्टिस आनंद पाठक

    प्रतिनिधित्व- वकील अंकुर माहेश्वरी (आवेदक के लिए), आर एस बंसल, पीपी (राज्य के लिए), अधिवक्ता अवधेश सिंह तोमर और संगीता पचोरी (शिकायतकर्ता के लिए), सीनियर काउंसिल वी.के. सक्सेना साथ में एडवोकेट राजेश कुमार शुक्ला, श्री अतुल गुप्ता और श्री एस.के. श्रीवास्तवय और वी.डी. शर्मा, एमिक्स क्यूरी


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