एक ग़लत निर्णय किसी व्यक्ति को ग़लत आदेश लागू कर समानता का दावा करने का अधिकार नहीं देता : दिल्ली हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

31 Dec 2019 6:31 AM GMT

  • एक ग़लत निर्णय किसी व्यक्ति को ग़लत आदेश लागू कर समानता का दावा करने का अधिकार नहीं देता : दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि इस बारे में क़ानून पूरी तरह स्पष्ट है कि क़ानून की नज़र में समानता एक सकारात्मक परिकल्पना है और इसको नकारात्मक रूप में लागू नहीं किया जा सकता। अगर किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के पक्ष में कोई ग़ैरक़ानूनी काम हुआ है या अनियमितता बरती गई है तो दूसरे लोग क़ानून के समक्ष समानता के सिद्धांत के आदेश का दावा नहीं कर सकते।

    इस मामले में याचिकाकर्ता ने औद्योगिक ट्रिब्यूनल के फ़ैसले को चुनौती दी थी जिसने प्रतिवादी को सेवा से हटाए जाने पर लगाए गए जुर्माने को निरस्त कर दिया था और इसके बदले बेसिक वेतन में तीन स्तरों पर कमी किए जाने का जुर्माना लगाया था।

    पृष्ठभूमि

    प्रतिवादी ने सिंगापुर का भ्रमण करने के लिए 35 दिनों की छुट्टी मांगी थी जो उसे मिल गई। उसे 11 अप्रैल 2008 से 15 मई 2008 के लिए यह छुट्टी दी गई। प्रतिवादी 16 मई 2008 को नौकरी पर नहीं लौटा। उसे 12 जून 2008 और 25 अगस्त 2008 को भी इस नौकरी पर लौटने को कहा गया।

    प्रतिवादी को इसके बाद 15 नवंबर 2008 को एक कारण बताओ नोटिस जारी किया गया और पूछा गया कि क्यों न उस पर हटाने का जुर्माना लगाया जाए। हालांकि प्रतिवादी 27 नवंबर 2008 को काम पर लौटा जो उसके ख़िलाफ़ हो रही जांच से बंधा हुआ था पर 28 दिसंबर 2008 को वह फिर अनधिकृत छुट्टी पर चला गया और जांच अधिकारी के समक्ष भी उपस्थित नहीं हुआ।

    अदालत ने कहा कि प्रतिवादी को पर्याप्त मौक़ा दिए जाने के बाद जांच अधिकारी ने जांच की और इसलिए इसमें प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं हुआ जैसा कि प्रतिवादी ने आरोप लगाया है। जांच अधिकारी ने 30 अप्रैल 2009 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी।

    इसके बाद अनुशासन अथॉरिटी ने एलआईसी ऑफ़ इंडिया स्टाफ़ रेग्युलेशन, 1960 के रेग्युलेशन 39 (1) (f) के तहत उस पर 373 दिनों तक कार्यालय से बिना अधिकृत छुट्टी के अनुपस्थित रहने के लिए जुर्माना लगाया। हालांकि प्रतिवादी ने पहले अपील और फिर मेमोरीयल क्रमशः अपीली अथॉरिटी ज़ोनल मैनेजर और चेयरमैन के समक्ष दायर की, जिन्हें ख़ारिज कर दिया गया।

    औद्योगिक ट्रिब्यूनल ने प्रतिवादी पर लगाए गए जुर्माने को इस आधार पर भेदभावपूर्ण बताया कि इसी तरह के मामले में कर्मचारी को कम सज़ा दी गई थी।

    न्यायमूर्ति जेआर मिधा ने कहा,

    "इस बारे में क़ानून पूरी तरह स्पष्ट है कि क़ानून की नज़र में समानता एक सकारात्मक परिकल्पना है और इसको नकारात्मक रूप में लागू नहीं किया जा सकता। अगर किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के पक्ष में कोई ग़ैरक़ानूनी काम हुआ है या अनियमितता बरती गई है तो दूसरे लोग क़ानून के समक्ष समानता के सिद्धांत के आदेश का दावा नहीं कर सकते। अगर इस तरह के दावे को लागू किया जाता है और इसी तरह की राहत फिर दी जाती है तो यह एक ग़ैरक़ानूनी प्रक्रिया या एक ग़ैरक़ानूनी आदेश को आगे बढ़ाने जैसा होगा।"

    अदालत ने आगे कहा कि "एक ग़लत निर्णय किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं देता कि वह ग़लत निर्णय को लागू कराकर समानता हासिल करे।"

    अदालत ने याचिका को सुनवाई के लिए मंज़ूर कर लिया और कहा कि प्रतिवादी दुर्व्यवहार और अपने कार्य से अनधिकृत रूप से अनुपस्थित रहने का दोषी है और इसलिए उस पर जो दंड लगाया गया है वह उसके दुर्व्यवहार के समानुपातिक है। अदालत ने आगे कहा कि अदालत ने प्रतिवादी को नौकरी से हटाने की सज़ा में हस्तक्षेप कर ग़लत किया और यह पूर्ण स्थापित क़ानून के ख़िलाफ़ है।

    अदालत ने प्रतिवादी के दावे को ख़ारिज कर दिया और उसको हटाए जाने के फ़ैसले को सही ठहराया।




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