क़ानून चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति का ख़याल रखे:सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल लापरवाही पीड़ित के पति को 15 लाख मुआवजा दिया [निर्णय पढ़े]
Live Law Hindi
18 Feb 2019 1:25 PM IST
हमारे क़ानून को चिकित्सा विज्ञान में हुई प्रगति का ख़याल रखना चाहिए और यह सुनिश्चत करना चाहिए कि मरीज़ को मदद पहुँचाने वाले रूख अपनाए जाएँ। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने हाल ही में एक मामले में अपनी यह राय व्यक्त की।
शीर्ष अदालत की पीठ जिसमें न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता भी शामिल थे, ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) के एक आदेश के ख़िलाफ़ अपील पर सुनवाई कर रहे थे। आयोग ने अपने फ़ैसले में मध्य प्रदेश राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के एक फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया था जिसमें एक अस्पताल के डॉक्टर और उसके निदेशक को चिकित्सा में लापरवाही का दोषी माना गया था।
मधु माँगलिक को ड़ेंगू हो गया था और उसे भोपाल के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था। जब उसकी मौत हो गई तो उसके पति ने एससीडीआरसी में शिकायत कर ₹48 लाख रुपए के हर्ज़ाने की माँग की। उसका आरोप था कि उसी पत्नी के इलाज में अस्पताल के डॉक्टरों ने लापरवाही बरती है जिसके कारण उसकी मौत हुई। एससीडीआरसी ने चिकित्सा में लापरवाही की बात को सही पाया और छह लाख रुपए के मुआवज़े का भुगतान करने का आदेश दिया। पर एनसीडीआरसी ने डॉक्टर की अपील पर जाँच के परिणामों को उलट दिया।
फ़ैसले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने भारत में चिकित्सा में लापरवाही से जुड़े न्याय व्यवस्था के विकास की चर्चा की। उन्होंने कहा कि एक डॉक्टर से यह उम्मीद की जाती है कि वह काफ़ी हद तक अपने ज्ञान और कौशल का प्रयोग करेगा। भारत में चिकित्सा में लापरवाही के मामले में जो न्यायव्यवस्था है वह 'बोलम जाँच' पर ज़्यादा निर्भर है। उन्होंने कहा,
"बोलम जाँच पर भारत में अकादमिक बहस हो चुकी है और इसका लेखा जोखा हो चुका है…विद्वानों ने बोलम जाँच की इस आधार पर आलोचना की है कि यह आम कुशल डॉक्टर और एक बेहतर सक्षम डॉक्टर के बीच अंतर करने में विफल रहा है…कोर्ट को यह अवश्य ही निर्णय करना चाहिए कि एक डॉक्टर क्या कर सकता था और उसका पेशा नहीं"।
वर्तमान मामले के संदर्भ में कोर्ट ने कहा कि इलाज कर रहे डॉक्टर चिकित्सा दिशानिर्देशों के अनुरूप इलाज उपलब्ध करने में विफल रहे हैं और इस तरह वे बोलम मामले, जिसे भारतीय अदालत भी मानता है, के अनुरूप संतोषप्रद चिकित्सा सेवा नहीं दे पाए हैं।
पीठ ने हालाँकि अस्पताल के निदेशक को इस मामले में किसी भी तरह की देनदारी से मुक्त कर दिया और कहा, "अस्पताल के निदेशक के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की लापरवाही पाए जाने का कोई आधार नहीं है। अस्पताल का निदेशक इलाज करने वाले डॉक्टरों में शामिल नहीं था…"।
जहाँ तक कि हर्ज़ाने की बात है, पीठ ने कहा, "…एक कामकाजी महिला जो किसी रोज़गार में नहीं थी, की मौत पर हर्ज़ाने का आकलन करते हुए कोर्ट को यह अवश्य ही ध्यान में रखना चाहिए कि परिवार को उसका योगदान काफ़ी बड़ा है और उसको मौद्रिक रूप में तौला जा सकता है।"
पीठ ने अपील स्वीकार कर ली और ₹15 लाख का हर्ज़ाना देने का आदेश दिया।