मृत्यु पूर्व दिए बयान सिर्फ इसलिए अमान्य नहीं क्योंकि उन्हें किसी डॉक्टर ने प्रमाणित नहीं किया : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]
Live Law Hindi
2 May 2019 11:39 AM IST
"यदि मरने से पहले बयान दर्ज करने वाला व्यक्ति इस बात को लेकर संतुष्ट है कि बयान देने के लिए घोषणाकर्ता एक उपयुक्त चिकित्सा स्थिति में है और यदि कोई संदिग्ध परिस्थितियां नहीं हैं तो मृत्यु के पूर्व दिए बयान केवल इस आधार पर अमान्य नहीं हो सकते कि इसे डॉक्टर द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया। चिकित्सक द्वारा प्रमाणीकरण के लिए आग्रह केवल विवेक का एक नियम है जिसे मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर लागू किया जाता है। असली परीक्षण यह है कि क्या मरने से पूर्व दिया गया बयान सत्य और स्वैच्छिक हैं।“
सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए मृत्यु के पूर्व दिए बयानों में खामी पाए जाने के आधार पर हत्या की एक दोषी को बरी कर दिया।
अदालत ने यह भी कहा कि यह अनिवार्य नहीं है कि मरने से पहले दिए गए बयानों को हमेशा डॉक्टर द्वारा प्रमाणित किया जाना चाहिए; हालांकि, जो भी बयानों को रिकॉर्ड करता है, उसे यह प्रमाणित करना चाहिए कि वह व्यक्ति, बयान देते वक्त बयान देने के लिए उपयुक्त चिकित्सा स्थिति में था।
"यदि मरने से पहले बयान दर्ज करने वाला व्यक्ति इस बात को लेकर संतुष्ट है कि बयान देने के लिए घोषणाकर्ता एक उपयुक्त चिकित्सा स्थिति में है और यदि कोई संदिग्ध परिस्थितियां नहीं हैं तो मृत्यु पूर्व दिए बयान केवल इस आधार पर अमान्य नहीं हो सकते कि इसे डॉक्टर द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया। चिकित्सक द्वारा प्रमाणीकरण के लिए आग्रह केवल विवेक का एक नियम है जिसे मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर लागू किया जाता है। असली परीक्षण यह है कि क्या मरने से पूर्व बयान सत्य और स्वैच्छिक हैं," जस्टिस शांतनागौदर ने फैसले में कहा।
अदालत ने नायब तहसीलदार द्वारा दर्ज किए गए बयानों को खारिज कर दिया क्योंकि उसने मृतक की मेडिकल फिटनेस को सत्यापित करने का कोई प्रयास नहीं किया ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मृतक घटना को याद करने के लिए उपयुक्त स्थिति में थी।
"उन्होंने अपनी जिरह में भी स्वीकार किया है कि उन्होंने पीड़िता से यह पूछने के लिए कोई सवाल नहीं रखा कि वह बयान देने की स्थिति में है या नहीं। उन्होंने यह भी सत्यापित करने की कोशिश नहीं की कि क्या पीड़ित के पास घटना को याद करने की शक्ति है या नहीं। इसलिए यह स्पष्ट है कि पीडब्लू 1 ने बयान देने के लिए पीड़ित की फिटनेस के बारे में खुद को संतुष्ट नहीं किया था। बयान देने के लिए पीड़ित की फिटनेस के बारे में डॉक्टर का कोई सत्यापन या प्रमाणन नहीं पाया जा सकता।"
पीठ ने कहा कि हालांकि अभियोजन पक्ष ने ययह दावा किया कि तहसीलदार द्वारा 3 गवाहों की उपस्थिति में बयान दर्ज किए गए थे लेकिन ट्रायल कोर्ट के समक्ष केवल बयानों की एक फोटोकॉपी पेश की गई जिसमें गवाहों के हस्ताक्षर अनुपस्थित थे। इसके अलावा जांच अधिकारी के साथ-साथ तहसीलदार-सह-कार्यकारी मजिस्ट्रेट भी ये कारण बताने में असफल रहे कि मूल कॉपी कोर्ट को क्यों नहीं दी गई।
"इसे जोड़ने के लिए नायब तहसीलदार सह कार्यकारी मजिस्ट्रेट (पीडब्लू 1) की उपस्थिति के बारे में जांच अधिकारी के बयान में कोई बात नहीं है और ना ही उसने दोपहर 12:30 बजे मरने से पहले बयान दर्ज करने की बात का जिक्र ही किया है।"
पीठ ने माना कि उच्च न्यायालय ने अपीलार्थी को दोषी ठहराने के लिए गलत फैसला किया है, क्योंकि अपीलकर्ता के खिलाफ कोई अन्य सामग्री मौजूद नहीं है।
पीठ ने अपील को यह अनुमति देते हुए और छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के सजा के आदेश को रद्द करते हुए ट्रायल कोर्ट द्वारा अभियुक्त को बरी करने के आदेश को बहाल कर दिया।