आईपीसी की धारा 304 में आए शब्द 'मृत्यु पूर्व' की व्याख्या 'मृत्यु से ठीक पहले' न‌हीं हो सकतीः हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

27 Nov 2019 8:02 AM GMT

  • आईपीसी की धारा 304 में आए शब्द मृत्यु पूर्व की व्याख्या मृत्यु से ठीक पहले न‌हीं हो सकतीः हाईकोर्ट

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने माना है कि ऐसे मामलों में तथ्यों और परिस्थितियों, गवाहों, आरोप पत्र के पूरे विवरणों को ध्यान में रखते हुए विचार किया जाना चाहिए।

    मुस्तफा प्लंबर

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने माना है कि आईपीसी की धारा 304 बी के तहत इस्तेमाल किए गए शब्द 'मृत्यु पूर्व' जिसका प्रयोग 'मृत्यु से थोड़ी ही देर पहले' के लिए होता है, की व्याख्या 'मृत्यु से फौरन पहले' नहीं की जा सकती, यहां तक प्रत्येक मामले में तथ्यों और परिस्थितियों, गवाहों, आरोप पत्र के पूरे विवरणों को ध्यान में रखते हुए विचार किया जाना चाहिए।

    जस्टिस बीए पाटिल ने हरीश टीआर और अन्य द्वारा एक निचली अदालत के फैसले के खिलाफ, जिसमें उनके डिस्चार्ज ए‌‌‌प्ल‌िकेशन को रद्द किया गया था, दायर याचिका खारिज करते हुए कहा कि "गवाहों के बयान और चार्जशीट की सामग्री पर गौर करने पर दहेज की मांग के उद्देश्य से आरोपियों द्वारा किए गए दुर्व्यवहार और उत्पीड़न को लेकर कुछ जानकारियां सामने आ रही हैं। वो जैसा हो, हो सकता है। यहां तक कि उक्त अपराध के संबंध में कानून में एक अनुमान है। इसे मामले के तथ्यात्मक मैट्रिक्स के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उस आलोक में अगर पूरी सामग्री को देखा जाए तो आरोप तय करने के लिए अभियुक्त के खिलाफ प्रथम दृष्टया सामग्री प्रतीत होती है।"

    केस की पृष्ठभूमि:

    मृतक का विवाह 30 नवंबर, 2011 को हरीश के साथ संपन्न हुआ था। उस समय रु दो लाख रुपए और अन्य स्वर्ण आभूषण दिए गए थे। मामले में आरोप है कि जो भी रकम और सोना दिया गया, वो बाद में उक्त संदर्भ में पर्याप्त नहीं रहा, जिस कारण ससुराल में विवाहित के साथ उत्पीड़न और दुर्व्यवहार जारी रहा, जिसकी जानकारी उसने मृत्यु पूर्व अपने माता-पिता और बहन को भी दी।

    मामले में आरोपियों द्वारा अधिक दहेज की मांग की जाती रही। जब विवाहिता का उत्पीड़न लगातार जारी रहा, तो शिकायतकर्ता ने पहले आरोपी को साठ हजार रुपए, विवाहिता बाद में गर्भवती हो गई और जुड़वां बेटियों को जन्म दिया। बेटियों को जन्म के बाद भी उसका उत्पीड़न जारी रहा। आरोपियों ने विवाहिता के चिकित्सा खर्चों के लिए एक लाख तीस हजार रुपए की मांग की, जो उन्होंने उसके के प्रसव पर खर्च किया था।

    आरोप है कि 3 जनवरी 2014 की रात को आरोपी ने शिकायतकर्ता को फोन किया और कहा कि उसकी बहन के साथ वैवाहिक जीवन चला पाना संभव नहीं है और आरोपी ने शिकायतकर्ता से निवेदन किया कि वो आए और अपनी बहन को समझाए। 4 जनवरी 2014 को को शिकायतकर्ता को अपनी चाची की ओर से फोन आया कि विवाहिता ने अपने दो बच्चों के साथ आत्महत्या कर ली है।

    याचिकाकर्ताओं की दलील:

    याचिकाकर्ताओं/अभियुक्तों की ओर से वकील ने दलील की मामले में ऐसा कोई सामग्रीं नहीं है, जिसके आधार पर आईपीसी की धारा 304 बी के प्रावधानों का प्रयोग किया जाए, कि, मृत्यु से पहले दहेज की मांग को लेकर मृतक के साथ दुर्व्यवहार और उत्पीड़न किया गया रहा होगा। वकील की दलील थी कि गवाहों के बयानों से पता चलता है कि दहेज की ऐसी कोई मांग नहीं थी।

    उन्होंने आगे कहा कि कथित घटना की रात को, विवाहित के भाई को यही बताया गया था कि उसकी बहन के साथ वैवाहिक जीवन में एडजस्ट कर पाना संभव नहीं है और भाई ने भी यही समझाया था कि वैवाहिक जीवन में मामूली झगड़े होते रहते हैं। ये बताता है कि जब कथित घटना घटी, उस वक्त ऐसा कोई कारण मौजूद नहीं था, जिसके आधार पर आईपीसी की धारा 304 बी का प्रयोग किया जाए।जब आईपीसी की धारा 304 बी के कारण स्पष्ट रूप से अनुपस्थित थे तो ऐसी परिस्थिति में याचिकाकर्ता / अभियुक्त उक्त अपराधों के से बरी होने का अधिकार है।

    अभियोजन पक्ष के तर्क:

    चार्जशीट की सामग्री से स्पष्ट है कि शादी के समय नकदी, सोना और चांदी के रूप में दहेज की मांग की गई थी। इसके बाद दहेज की मांग को लेकर भी विवाहिता के साथ दुर्व्यवहार और उत्पीड़न होता रहा और जब आरोपी को आईपीएल सट्टेबाजी में सात लाख रुपये का नुकसान हुआ है, उसने विवाहिता से सात लाख रुपए लाने की मांग की। ‌विवाहिता का उत्पीड़न दो बेटियों के जन्म के बाद भी जारी रहा।

    कोर्ट ने कहा:

    यहां तक कि उक्त अपराध के संबंध में कानून में एक अनुमान है। इसे मामले के तथ्यात्मक मैट्रिक्स के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उस आलोक में यदि पूरी सामग्री को देखा जाए तो आरोप तय करने के लिए अभियुक्त के खिलाफ प्रथम दृष्टया सामग्री दिख रही है। हांलाकि इस मामले में तथ्यात्मक मैट्रिक्स के आधार पर गौर करने पर आरोपियों के पक्ष पर संदेह पैदा हो रहा और यदि समान तथ्यात्मक स्थिति में एक ही मसले पर दो विचार हों तो अभियुक्त को बरी करना उचित नहीं है।

    पूरा फैसला पढ़ेंः


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