अपर्याप्त सजा के खिलाफ पीड़ित नहीं कर सकता सीआरपीसी की धारा 372 के तहत अपील, दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला
LiveLaw News Network
4 Nov 2019 9:15 AM IST
दिल्ली हाईकोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 372 के तहत पीड़ित द्वारा अपील दायर करने के अधिकार पर कानून की स्थिति को स्पष्ट किया है। अदालत ने कहा है कि यह प्रावधान पीड़ित को इस बात की अनुमति नहीं देता है कि वह अपील दायर कर दोषी व्यक्ति को दी गई सजा को बढ़ाने की मांग करे।
पीड़ित को इस तरह की अपील दायर करने का अधिकार नहीं है, यह कहते हुए न्यायमूर्ति विभु बाखरु ने कहा कि पीड़ित अपने इस अधिकार को सीआरपीसी की धारा 372 के तहत केवल निम्नलिखित परिस्थितियों में ही प्रयोग कर सकती है, जो इस प्रकार हैं-
1- अभियुक्त को बरी कर दिया गया हो।
2- अभियुक्त को कमतर अपराध के लिए दोषी करार दिया गया हो या हल्की धारा में दोषी पाया गया हो।
3-अपर्याप्त मुआवजे का निर्देश दिया गया हो।
यह था मामला
वर्तमान मामले में प्रतिवादी पीड़िता ने याचिकाकर्ता के खिलाफ शिकायत की थी कि आरोपी ने उसको लोहे की रॉड से मारा था और उस को गालियां दी थी। 3 मार्च 2015 को जब मामला ट्रायल कोर्ट के सामने आया तो याचिकाकर्ता ने धारा 323 के तहत अपना अपराध स्वीकार कर लिया और कहा कि वह मुकदमे को जारी रखने में असमर्थ है।
नतीजतन ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को उक्त धारा के तहत दोषी ठहराते हुए आदेश पारित कर दिया। इस फैसले से दुखी होकर प्रतिवादी ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के समक्ष अपील की थी, जिसमें शिकायत की गई थी कि याचिकाकर्ता को आईपीसी की धारा 325 के तहत दोषी ठहराया जाना चाहिए था। 14 जनवरी 2016 को, एएसजे ने अपील को स्वीकार कर लिया और मामले को मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट (सीएमएम) के पास भेज दिया।
सीएमएम ने याचिकाकर्ता को आईपीसी की धारा 325 के तहत दोषी ठहराया और उसे मुआवजा देने का भी निर्देश दिया। हालांकि, मुआवजे का भुगतान करने के दिन, प्रतिवादी ने उसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
अदालत ने आगे घोषित किया कि प्रोबेशन ऑफ ऑफेंडर्स एक्ट, 1958 के संदर्भ में कोई भी अयोग्यता लागू नहीं होगी और याचिकाकर्ता की सेवा पर सजा का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
अपर्याप्त सजा से दुखी प्रतिवादी पीड़िता ने एएसजे के समक्ष सीआरपीसी की धारा 372 के तहत अपील दायर की। इस अपील पर एएसजे ने एक आदेश पारित करते हुए कहा कि सीएमएम को आरोप में बदलाव करना चाहिए और आरोप का आईपीसी की धारा 325 में बदलाव करने के बाद मामले की सुनवाई की जानी चाहिए।
कोर्ट ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता अभियुक्त ने आईपीसी की धारा 323 के तहत अपना अपराध स्वीकार किया था, न कि धारा 325 के तहत।
मामले को फिर से सीएमएम के पास भेज दिया गया। साथ ही कहा कि वह आरोप में बदलाव करने के बाद कानून के अनुसार मामले को आगे सुनवाई करें।
इसलिए, इस अदालत के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या सीआरपीसी की धारा 372 के तहत प्रतिवादी पीड़िता की तरफ से दायर अपील सुनवाई योग्य है या नहीं ?
प्रतिवादी पीड़िता ने 'मल्लिकार्जुन कोडागली के कानूनी प्रतिनिधि बनाम कर्नाटक राज्य' मामले में दिए फैसले पर भरोसा किया और तर्क दिया कि धारा 372 के तहत, पीड़ित को हमेशा ट्रायल कोर्ट द्वारा अभियुक्त को दोषी ठहराते हुए दी गई अपर्याप्त सजा के आदेश को चुनौती देने का अधिकार है।
इसके आगे तर्क दिया गया था कि केवल इसलिए कि राज्य ने अपील दायर नहीं की है, पीड़ित को कानूनी उपचार के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। वहीं याचिकाकर्ता-आरोपी के वकील ने तर्क दिया कि सीआरपीसी की धारा 372 के परंतुक में पीड़ित को यह अधिकार नहीं दिया गया है कि वह अपर्याप्त सज़ा के खिलाफ अपील दायर कर सके।
उन्होंने 'राष्ट्रीय महिला आयोग आयोग बनाम दिल्ली राज्य' मामले में दिए गए फैसले का हवाला दिया। तर्क दिया कि उक्त आधार पर अपील केवल राज्य द्वारा दायर की जा सकती है।
अदालत का फैसला
इस मामले में कानून की स्थिति का अवलोकन करते हुए अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि सीआरपीसी की धारा 372 के परंतुक के तहत किसी कोर्ट द्वारा दी गई अपर्याप्त सजा के खिलाफ दायर अपील पर विचार नहीं किया जाता है। इसके अलावा, उक्त प्रावधान पीड़ित को अपील दायर करने के केवल सीमित अधिकार प्रदान करता है।
अदालत ने गुजरात हाईकोर्ट द्वारा 'भवुबेन दिनेशभाई मकवाना बनाम गुजरात राज्य' मामले में दिए फैसले पर भी भरोसा किया। अदालत ने कहा कि पीड़ित केवल अपर्याप्त मुआवजे के खिलाफ अपील दायर कर सकता है लेकिन अपर्याप्त सजा के खिलाफ नहीं।
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