बिना मेरिट पर ध्यान दिए तकनीकी आधार पर किये गये अतार्किक फैसले बाध्यकारी दृष्टांत नहीं : सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

13 March 2020 5:22 AM GMT

  • बिना मेरिट पर ध्यान दिए तकनीकी आधार पर किये गये अतार्किक फैसले बाध्यकारी दृष्टांत नहीं : सुप्रीम कोर्ट

    बिना तार्किक कारणों वाला कोई फैसला सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित विधान नहीं कहा जा सकता, भले ही यह मुकदमे के निपटारे के लिए पक्षकारों पर बाध्यकारी क्यों न हो?”

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अर्जी दायर करने में विलंब या न दायर करने के आधार पर मामले को खारिज किया जाना बाध्यकारी दृष्टांत नहीं है।

    न्यायमूर्ति आर भानुमति, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की खंडपीठ ने विभिन्न हाईकोर्ट के उन निर्णयों के खिलाफ भारत सरकार की अपील पर विचार करते हुए यह टिप्पणी की, जिनमें उच्च न्यायालयों ने 'भारत सरकार एवं अन्य बनाम राज पाल' मामले के फैसले पर भरोसा जताते हुए पदोन्नति के अगले सोपान पर ग्रेड पे में बढोतरी संबंधी केंद्रीय प्रशासकीय न्यायाधिकरण (कैट) की विभिन्न पीठों द्वारा दिये गये फैसलों को बरकरार रखा था।

    कोर्ट के विचारणीय मुद्दों में से एक था कि :

    "जब फाइलिंग में देरी या (राजपाल के मामले की तरह) रि-फाइलिंग के आधार पर विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) खारिज की गयी हो, तो क्या इसे किसी केस के गुण-दोष के निर्धारण के लिए "भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के दायरे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित कानून" के तौर पर बाध्यकारी दृष्टांत के रूप में लिया जायेगा?

    भारतीय संविधान का अनुच्छेद 141 कहता है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित विधान भारत की सभी अदालतों पर बाध्यकारी होगा अर्थात् संबंधित बिंदु पर दी गयी व्यवस्था भारत की सभी अदालतों में बाध्यकारी दृष्टांत के तौर पर लागू होगी।

    सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गयी व्यवस्था को अनिवार्य तौर पर न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत के तौर पर समझा जाना चाहिए और यही वह सिद्धांत है जिसमें दृष्टांत का असर है। 'सिद्धांत'शब्द खुद से ही एक कर्तव्यनिदृष्ट प्रस्ताव है जिसे मामले की गुण-दोष के आधार पर समीक्षा किये जाने के बाद ही दिया जा सकता है।

    यह कभी भी संक्षिप्त तरीके से नहीं हो सकता, बल्कि मेरिट में गये बिना तकनीकी आधार पर दिये गये फैसलों में बहुत कम प्रदर्शित किया जाता है। बिना तार्किक कारणों वाला कोई फैसला सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित विधान नहीं कहा जा सकता, भले ही यह मुकदमे के निपटारे के लिए पक्षकारों पर बाध्यकारी क्यों न हो?

    बेंच ने इस मामले में 'सुप्रीम कोर्ट इम्प्लॉयज वेलफेयर एसोसिएशन बनाम भारत सरकार एवं अन्य (1989) 4 एससीसी 187' और 'भारत सरकार बनाम ऑल इंडिया सर्विस पेंशनर्स एसोएिशन एवं अन्य (1988) 2 एससीसी 580' का हवाला भी दिया।

    केस का नाम : भारत सरकार बनाम एम वी मोहनन नायर

    केस नं. : सिविल अपील नं. 2016/2020

    कोरम : न्यायमूर्ति आर भानुमति, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय

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