ट्रायल कोर्ट यह निर्देश नहीं दे सकता कि उम्रकैद की अवधि बिना छूट के शेष जीवन के लिए बढ़ाई जाए: सुप्रीम कोर्ट
LiveLaw News Network
6 March 2022 1:28 PM IST
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर कहा है कि ट्रायल कोर्ट के पास किसी आरोपी को आजीवन कारावास की सजा देने का अधिकार नहीं है, जिसे उसके शेष जीवन तक बढ़ाया जा सके।
'भारत सरकार बनाम वी श्रीहरन @ मुरुगन एवं अन्य 2016 (7) एससीसी 1' मामले में संविधान पीठ के फैसले को ध्यान में रखते हुए न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति अभय एस. ओका की एक बेंच ने ट्रायल कोर्ट द्वारा प्राकृतिक मौत तक के लिए दी गयी और हाईकोर्ट द्वारा पुष्टि की गयी आजीवन कारावास की सजा को संशोधित सामान्य आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया।
"हमने पक्षकारों के अधिवक्ताओं को सुनने और '2016 (7) एससीसी 1' में रिपोर्ट की गई इस अदालत के संविधान पीठ के फैसले पर ध्यान देने के बाद, ट्रायल कोर्ट द्वारा प्राकृतिक मौत तक आजीवन कारावास की सजा को सुनाये जाने के दिनांक 19.12.2013 के निर्णय और उसे हाईकोर्ट द्वारा पुष्टि किये जाने के आदेश को सामान्य आजीवन कारावास की सजा के साथ संशोधित किया जाता है।"
'वी. श्रीहरन' मामले में यह माना गया था कि कैद की किसी विशिष्ट अवधि के लिए या मृत्युदंड के विकल्प के रूप में दोषी के जीवन के अंतिम क्षण तक संशोधित दंड लगाने की शक्ति का इस्तेमाल केवल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया जा सकता है, और किसी अन्य अवर न्यायालय द्वारा नहीं। संविधान पीठ ने स्पष्ट किया था कि निचली अदालत दोषी के माफी मांगने के अधिकार में कटौती नहीं कर सकती है।
संविधान पीठ ने कहा था,
"105. इसलिए, हम दोहराते हैं कि ऐसे निर्दिष्ट अपराधों के लिए दंड संहिता में प्रदान की गई सजा के भीतर किसी भी संशोधित दंड के लिए दंड संहिता से प्राप्त शक्ति का प्रयोग केवल हाईकोर्ट और आगे की अपील की स्थिति में केवल सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया जा सकता है, बाकी इस देश की किसी अन्य अदालत द्वारा नहीं। इसे अलग तरह से समझाने के लिए यों कह सकते हैं कि किसी भी विशिष्ट अवधि के लिए या मौत की सजा के विकल्प के रूप में दोषी के जीवन के अंत तक प्रदान करने वाले संशोधित दंड को लागू करने की शक्ति का प्रयोग हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया जा सकता है, न कि किसी अन्य अवर न्यायालय द्वारा।"
एक अन्य मामले में आजीवन कारावास की सजा काटते हुए आरोपी ने जोधपुर के सेंट्रल जेल के जेलर पर हमला किया और उसकी हत्या कर दी, जिसके साथ कई मौकों पर उसका विवाद हुआ था। अपराध करने के बाद आरोपी ने भागने की कोशिश की, लेकिन 'मुख्य प्रहरी' ने पकड़ लिया।
सीजेएम, जोधपुर से प्राप्त एक प्रोडक्शन वारंट के माध्यम से उसकी हिरासत मांगी गई और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद, गवाहों के बयान दर्ज किए गए; आरोपी से पूछताछ की गई; साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत रिकवरी की गई। जांच के बाद आईपीसी की धारा 302 के तहत अपराध के लिए आरोप पत्र दायर किया गया था। ट्रायल कोर्ट ने आरोप तय किए और अंततः दोषी ठहराया और आरोपी को उसके शेष प्राकृतिक जीवन के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई, जो यह दर्शाता है कि कारावास में छूट की कोई गुंजाइश नहीं है। अपील पर राजस्थान हाईकोर्ट ने दिनांक 04.10.2019 के आदेश द्वारा ट्रायल कोर्ट के निर्णय में यह कहते हुए हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया -
"पूरे रिकॉर्ड पर पूरी तरह से और सूक्ष्मता से चर्चा और मूल्यांकन करने के बाद, हमारा दृढ़ मत है कि ट्रायल कोर्ट ने रिकॉर्ड पर उपलब्ध सभी सबूतों पर उचित तरीके से विचार किया और एकमात्र संभावित निष्कर्ष यानी आरोपी के अपराध पर पहुंचा। सत्र न्यायाधीश, जिला जोधपुर द्वारा दिनांक 19.12.2013 को पारित आक्षेपित निर्णय किसी भी प्रकार की तथ्यात्मक या कानूनी त्रुटि से परे है और इसमें कानूनी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।"
शीर्ष अदालत ने 06.10.2021 को ट्रायल कोर्ट द्वारा आजीवन कारावास को प्राकृतिक मौत के बढ़ाए जाने के विशेष मुद्दे पर नोटिस जारी किया था।
"याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता ने प्रस्तुत किया था कि याचिकाकर्ता को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी ठहराते हुए, निचली अदालत के न्यायाधीश ने जीवन के अंतिम क्षण तक के लिए आजीवन कारावास की सजा दी है जो विद्वान वरिष्ठ वकील के अनुसार ट्रायल जज के अधिकार क्षेत्र से परे है और 2016 (7) एससीसी 1 में रिपोर्ट किए गए इस कोर्ट के फैसले पर भरोसा जताया। इस सीमित उद्देश्य के लिए नोटिस जारी किया जाए।''
[मामले का शीर्षक: नरेंद्र सिंह @ मुकेश @ भूरा बनाम राजस्थान सरकार एसएलपी (सीआरएल) संख्या 7830/2021]
साइटेशन : 2022 लाइव लॉ (एससी) 247
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