टेलीफोनिक संदेश जो स्पष्ट रूप से अपराध को निर्दिष्ट नहीं करता है, उसे एफआईआर के तौर पर नहीं माना जा सकताः सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

24 March 2021 8:15 AM GMT

  • टेलीफोनिक संदेश जो स्पष्ट रूप से अपराध को निर्दिष्ट नहीं करता है, उसे एफआईआर के तौर पर नहीं माना जा सकताः सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक टेलीफोनि संदेश जो स्पष्ट रूप से अपराध को निर्दिष्ट नहीं करता है, उसे एफआईआर के तौर पर नहीं माना जा सकता है।

    इस मामले में, हत्या के अभियुक्त समधन शिंदे, नेताजी अच्युत शिंदे और बालासाहेब कल्याणराव शिंदे को हाईकोर्ट द्वारा दोषी ठहराया था। ट्रायल कोर्ट ने नेताजी और बालासाहेब को बरी कर दिया था और समधन को दोषी ठहराया था। हाईकोर्ट ने समधन की सजा की पुष्टि की और बाकी दोनों को भी दोषी ठहराया।

    अपीलार्थी द्वारा दी गई एक दलील यह थी कि घटना के दिन प्रारंभिक जानकारी शाम को 5 बजकर 45 मिनट पर दी गई थी, जिसमें बताया गया था कि दो व्यक्तियों ने एक मोटरसाइकिल सवार पर हमला किया है। हालांकि, जब वास्तव में एफआईआर कथित रूप से दर्ज की गई थी, तो यह बयान गायब हो गया और इसमें सुधार करते हुए नया बयान दर्ज किया गया,जिसमें अन्य आरोपियों को शामिल किया गया था ताकि उन्हें फंसाया जा सके।

    उनके अनुसार, यह अपराध की पहली सूचना है जो पहली सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) का गठन करती है और बाद में दर्ज की गई ''आधिकारिक'' या औपचारिक एफआईआर की विश्वसनीयता संदेहास्पद है क्योंकि यह पुलिस को फर्जी और निर्दोष व्यक्तियों को फंसाने का रास्ता प्रदान करती है। उन्होंने तर्क दिया कि शिकायतकर्ता के बाद के बयान (देर रात 11.45 बजे दर्ज किया गया) को सीआरपीसी की धारा 161 के तहत एक बयान के रूप में माना जाना चाहिए था। ट्रायल कोर्ट ने इस दलील से सहमत होने के बाद नेताजी और बालासाहेब को बरी करने कर दिया था परंतु हाईकोर्ट ने इसे अस्वीकार कर दिया।

    सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एल नागेश्वर राव, जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस एस रविन्द्र भट की बेंच ने इस मुद्दे पर विचार किया कि क्या घटना के दिन टेलीफोन पर पुलिस को जो प्रारंभिक सूचना प्राप्त हुई थी (शाम को 5.45 बजे),वह प्राथमिकी का गठन करती है?

    ''पूरी जानकारी के बिना या एक संज्ञेय अपराध के बारे में आंशिक जानकारी देने वाली एक गुप्त फोन कॉल को हमेशा एक प्राथमिकी के तौर पर नहीं माना जा सकता है। इस कथन को टीटी एंटनी बनाम केरल राज्य (2001) 6 एससी 181 और दामोदर बनाम राजस्थान राज्य (2004) 12 एससीसी 336 के मामले में इस न्यायालय द्वारा स्वीकार किया गया है। एक मात्र संदेश या एक टेलीफोन संदेश जो स्पष्ट रूप से अपराध को निर्दिष्ट नहीं करता है, उसे एफआईआर के रूप में नहीं माना जा सकता है।''

    अदालत ने सुराजित सरकार बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2013) 2 एससीसी 146 के मामले में की गई निम्नलिखित टिप्पणियों का भी उल्लेख कियाः

    ''इसके बारे में एक बार पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि भले ही किसी थाने के प्रभारी अधिकारी को दी गई मौखिक जानकारी को एफआईआर के रूप में माना जा सकता है, फिर भी कुछ प्रक्रियात्मक औपचारिकताओं को पूरा करना आवश्यक होता है। इनमें जानकारी को लिखना और इसे मुखबिर को पढ़कर सुनाना और हस्तांतरित जानकारी पर उसके हस्ताक्षर प्राप्त करना शामिल है। किसी अज्ञात व्यक्ति से प्राप्त एक टेलीफोनिक जानकारी के मामले में, गुमनाम मुखबिर को उस जानकारी को पढ़कर सुनाने का सवाल ही नहीं उठता है और न ही दर्ज की गई सूचना पर हस्ताक्षर लेने का मामला बनता है।''

    मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, पीठ ने कहाः

    ''यह रिकॉर्ड से काफी स्पष्ट है, इसलिए, दो व्यक्तियों - रवि हरकार और विश्वजीत थॉम्ब्रे द्वारा दी गई जानकारी केवल एक हमले के तथ्यों के बारे में थी,जो अधूरी जानकारी थी,जिसमें न तो पीड़ित का नाम और न ही कथित हमलावरों का नाम बताया गया था और न ही उस सटीक स्थान के बारे में जहां घटना हुई थी। इस न्यायालय के निर्णयों (पूर्व में संदर्भित) द्वारा इंगित परीक्षणों को लागू करते हुए, इस न्यायालय की राय है कि हाईकोर्ट ने अपील में, सही ढंग से अनुमान लगाया कि शाम को 5.45 बजे दर्ज की गई पहली सूचना को एफआईआर के रूप में नहीं माना जा सकता है। इन परिस्थितियों में, इस घटना का विवरण, हमले की प्रकृति, हमले की जगह, अभियुक्तों के नाम और उनकी पहचान पूरी तरह से निर्धारित पीडब्लू -1 द्वारा रात को 23.45 बजे दर्ज कराए गए बयान में की गई थी- जो एफआईआर का गठन करता है।

    पीठ ने इस दलील को भी खारिज कर दिया कि पुलिस ने शुरुआती बयान में सुधार करने की कोशिश की और किसी तरह आरोपियों को झूठा फंसा दिया। पीठ ने कहा कि,

    ''अक्सर, इस बात पर निर्भर करता है कि लोग किसी घटना के बारे में कैसे और क्या देखते और अनुभव करते हैं, जब वे इसे बाद में सुनाते हैं, तो प्रतिपादन अनुक्रम या तथ्यों का पूरी तरह से वर्णन करने में सटीक नहीं हो सकता है। बहुत कुछ उस सापेक्ष दूरी और कोण पर निर्भर करेगा, जहां उन व्यक्तियों को रखा जाता है और वह घटना से किस तरह से जुड़े हैं। इसलिए, दो से अधिक अभियुक्तों का समावेश या चूक गंभीर संदेह का विषय नहीं हो सकता है। दिए गए मामले में इस पहलू को तब ध्यान में रखा जाना चाहिए जब झूठा फंसाने को इंगित करने वाली अन्य परिस्थितियां अच्छी तरह से मौजूद हों। हालांकि, यह नहीं कहा जा सकता है कि चार हमलावरों का उल्लेख करने की चूक अभियोजन की कहानी को गलत ठहराती है।''

    हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए, पीठ ने कहा कि अपराध के स्थान पर अभियुक्तों की फिजिकल उपस्थिति और उनकी भूमिका के बारे में स्वतंत्र गवाहों का बयान, स्पष्ट रूप से स्थापित करता है कि यह अपराध को सुविधाजनक बनाने के उद्देश्य से थी, जिसका उद्देश्य संयुक्त रूप से अपराध करना था। कोर्ट ने कहा कि,

    ''इन आरोपियों की उपस्थिति, काॅमन डिजाइन के निष्पादन को सुविधाजनक बनाना आपराधिक अधिनियम में वास्तविक भागीदारी के समान है। सबूत - यानी इन अभियुक्तों द्वारा उकसाया जाना, मृतक पर हमला करने में इनकी सक्रिय भूमिका, उसका पीछा करना और अपराध स्थल को एक साथ छोड़ना,साफ करता है कि एक विशेष परिणाम के लिए आपराधिक कार्रवाई में भाग लेने वाले व्यक्तियों के दिमाग में एक आम सहमति थी। यह वह पहलू था जिसे निचली अदालत ने अनदेखा कर दिया, और इसके बजाय अपना ध्यान प्रथम सूचना पर केंद्रित करते हुए, उसे एफआईआर के रूप में मान लिया और इसलिए अभियोजन के बयान पर संदेह जता दिया। निचली अदालत को ऊपर चर्चा की गई चश्मदीदों की गवाही में कोई कमी नहीं मिली थी परंतु इस थीसिस पर कार्यवाही करते हुए कि पहली सूचना एफआईआर थी और इसमें चार व्यक्तियों की भूमिका का वर्णन नहीं किया गया था और केवल दो का उल्लेख किया गया था, ट्रायल कोर्ट ने दोनों आरोपियों को बरी कर दिया था।''

    केसः नेताजी अच्युत शिंदे (पाटिल) बनाम महाराष्ट्र राज्य,सीआरए 121/2019

    कोरमः जस्टिस एल नागेश्वर राव,जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस एस रवींद्र भट

    प्रतिनिधित्वः वरिष्ठ अधिवक्ता एस नागामुथु

    उद्धरणः एलएल 2021 एसीसी 176

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