न्यायाधीशों को शासकों की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी अधिकारियों को अनावश्यक रूप से तलब करने के हाईकोर्ट के चलन की कड़ी निंदा की

LiveLaw News Network

10 July 2021 4:31 AM GMT

  • न्यायाधीशों को शासकों की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी अधिकारियों को अनावश्यक रूप से तलब करने के हाईकोर्ट के चलन की कड़ी निंदा की

    सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर दोहराया है कि सरकारी अधिकारियों को अनावश्यक रूप से कोर्ट नहीं बुलाया जाना चाहिए।

    यह कहते हुए कि अधिकारियों को बार-बार तलब करना सराहनीय कदम नहीं है तथा यह कड़े शब्दों में निंदा किये जाने योग्य है, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की खंडपीठ ने कुछ हाईकोर्टों द्वारा अविलंब अधिकारियों को तलब करने और उन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष दबाव बनाने के चलन को अस्वीकार कर दिया।

    बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील पर विचार करते हुए कहा कि जैसा कि उसे ज्ञात हुआ है कि हाईकोर्ट ने मेडिकल हेल्थ सचिव को कोर्ट में तलब किया था। [इस मामले में, रिट याचिकाकर्ता ने उसे स्थानांतरित किये जाने के आदेश को चुनौती दी थी]

    बेंच ने कहा,

    "17. कुछ हाईकोर्ट में अधिकारियों को अविलंब तलब करने और प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से दबाव बनाने का चलन विकसित हो गया है। अधिकारियों को तलब करके न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण की रेखा पार करने को कहा जाता है और उन्हें कोर्ट की इच्छा के हिसाब से आदेश जारी करने के लिए दबाव बनाया जाता है।"

    बेंच ने आगे कहा कि कार्यपालिका के सरकारी अधिकारी भी शासन के तीसरे अंग के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं।

    कोर्ट ने कहा,

    "18….अधिकारियों द्वारा की गयी कार्रवाई या फैसले उनके फायदे के लिए नहीं होते हैं, बल्कि सरकारी कोष के रक्षक के तौर पर और प्रशासन के हित में कुछ फैसले लेने ही होते हैँ। हाईकोर्ट के लिए यह रास्ता हमेशा खुला है कि वह न्यायिक समीक्षा में खरे नहीं उतरने वाले फैसलों को निरस्त कर दे, लेकिन अधिकारियों को बार-बार तलब किया जाना किसी भी प्रकार से सराहनीय कदम नहीं है। इसकी निंदा कड़े शब्दों में की जाने योग्य है।"

    कोर्ट ने 'अरावली गोल्फ क्लब एवं अन्य बनाम चंदर हास' मामले में डिविजनल मैनेजर के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा कि न्यायाधीशों को अपनी सीमा जाननी चाहिए।

    इसने कहा :

    "19….उनमें शील और शालीनता होनी चाहिए और उन्हें शासकों की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी के काम का अपना व्यापक क्षेत्र है। सरकार के इन तीनों अंगों में से किसी के लिए भी यह उचित नहीं है कि वह दूसरे के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश करे, अन्यथा संविधान का नाजुक संतुलन बिगड़ जायेगा और इसकी एक प्रतिक्रिया होगी।"

    कोर्ट ने यह भी कहा कि अधिकारियों को तलब करना जनहित के खिलाफ है, क्योंकि उनको सौंपे गये महत्वपूर्ण कार्यों में देरी हो जाती है, जिससे उस अधिकारी पर अतिरिक्त् बोझ आता है अथवा उनके मंतव्य के इंतजार में फैसले में देरी होती है।

    (मामले के मेरिट पर विचार करते हुए) हाईकोर्ट के आदेश को निरस्त करते हुए बेंच ने कहा :

    "20. इस प्रकार, हमारा मानना है कि एक बार फिर यह स्पष्ट करने का समय आ गया है कि सरकारी अधिकारियों को अनावश्यक तौर पर कोर्ट में नहीं बुलाया जाना चाहिए। यदि अधिकारी को कोर्ट में बुलाया जाता है तो उससे कोर्ट की गरिमा या महिमा नहीं बढ़ती। कोर्ट का सम्मान हासिल किया जाता है न कि मांगा जाता है और सरकारी अधिकारियों को बुलाकर इसमें वृद्धि नहीं होती। सरकारी अधिकारी की मौजूदगी अन्य आधिकारिक कार्यों की कीमत पर होती है, जिन पर उनके ध्यान की जरूरत होती है। कभी-कभी अधिकारियों को लंबी दूरी की यात्रा करनी होती है। इसलिए अधिकारी को तलब करना जनहित के खिलाफ होता है, क्योंकि इससे उन्हें सौंपे गये अनेक महत्वपूर्ण कार्यों में देरी होती है, जिससे उस अधिकारी पर अतिरिक्त काम का बोझ बढ़ता है या उनके मंतव्य के इंतजार में फैसले में देरी होती है। कोर्ट की कार्यवाही में भी समय लगता है, क्योंकि आजकल अदालतों में निश्चित समय पर सुनवाई का कोई तंत्र नहीं है। यदि कोर्ट के समक्ष कोई मुद्दा विचार के लिए आता है और सरकार की ओर से पेश हो रहा वकील जवाब देने में सक्षम नहीं होता है, तो इस तरह के संदेह को आदेश में लिखने और सरकार या उसके अधिकारियों को जवाब देने के लिए समय देने की सलाह दी जाती है।"

    इसी बेंच ने अवमानना के एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा जारी समन आदेश के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका पर अप्रैल 2021 में जारी एक आदेश में कहा था, "कोर्ट द्वारा उच्चाधिकारियों को बार-बार, अचानक और चिंताकुल समनिंग की सराहना नहीं की जा सकती है।" वर्ष 2019 में जारी एक अन्य आदेश में भी इसी बेंच ने इस तरह की टिप्पणी की थी।

    हाल ही में न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अग्रिम जमानत मामले में झारखंड हाईकोर्ट के उस आदेश को निरस्त कर दिया था जिसमें आपराधिक न्यायिक प्रणाली की बेहतरी के लिए सरकारी अधिकारियों की व्यक्तिगत मौजूदगी की मांग की गयी थी।

    केस का नाम : उत्तर प्रदेश सरकार बनाम डा. मनोज कुमार शर्मा [सीए 2320 / 2021]

    कोरम : न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता

    साइटेशन : एलएल 2021 एससी 289

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