सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें COVID के कारण मृत्यु की आशंका को अग्रिम जमानत का आधार माना गया था

LiveLaw News Network

25 May 2021 11:54 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

    सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले पर रोक लगा दी, जिसमें कहा गया था कि COVID महामारी जैसे कारणों से मौत की आशंका अग्रिम जमानत देने का एक वैध आधार है।

    कोर्ट ने कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को अग्रिम जमानत देने के लिए एक मिसाल के रूप में उद्धृत नहीं किया जाना चाहिए और अदालतों को गिरफ्तारी पूर्व जमानत आवेदनों पर विचार करते समय हाईकोर्ट के फैसले ‌की टिप्पणियों पर भरोसा नहीं करना चाहिए।

    पीठ ने सीन‌ियर एडवोकेट वी गिरि को एमिकस क्यूरी के रूप में नियुक्त किया, ताकि इस मुद्दे पर अदालत की सहायता की जा सके कि क्या COVID अग्रिम जमानत देने का आधार हो सकता है।

    जस्टिस विनीत सरन और जस्टिस बीआर गवई की अवकाश पीठ ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलीलें सुनने के बाद आदेश पर रोक लगा दी। मेहता उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश हुए थे।

    उन्होंने अपनी दलील में कहा, "कृपया आरोपी का बायोडाटा देखें। पूरा निर्णय इस आधार पर आगे बढ़ता है कि COVID अग्रिम जमानत देने का आधार है।"

    सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि आवेदक सीरियल क्रिमिनल है, जिसके खिलाफ 130 से अधिक आपराधिक मामले हैं।

    सॉलिसिटर जनरल ने हाईकोर्ट के आदेश में की गईऱ् टिप्पणियों पर रोक लगाने के लिए भी दबाव डाला। उन्होंने कहा कि अन्य मामलों में अग्रिम जमानत लेने के लिए हाईकोर्ट की टिप्पणियों का व्यापक रूप से हवाला दिया जा रहा है।

    पीठ ने कहा, "अगर उसे 130 मामलों में जमानत मिल चुकी है, तो 131 वें मामले में क्यों नहीं?",

    पीठ इस टिप्पणी के बाद कहा कि आवेदक को वर्तमान मामले में गिरफ्तारी से पहले जमानत लेने के लिए जमानत पर होना चाहिए।

    सॉलिसिटर जनरल ने आग्रह किया कि हाईकोर्ट की 'व्यापक टिप्पणियों' पर रोक लगाई जानी चाहिए।

    इसके बाद बेंच ने आदेश दिया, "जारी नोटिस जुलाई के पहले सप्ताह में वापस किया जा सकता है। यदि प्रतिवादी अगली तारीख को पेश नहीं होता है, तो हम अग्रिम जमानत रद्द करने के साथ-साथ आदेश पर रोक लगाने पर विचार करेंगे। यह बताया जा रहा है कि मामले में बड़े मुद्दे शामिल हैं, हाईकोर्ट द्वारा COVID परिस्थितियों में जमानत देने के संबंध में व्यापक निर्देश दिए गए हैं।

    पीठ ने आदेश में कहा, "संबंधित निर्देश पर रोक लगाई गई है। अदालतें जमानत पर विचार करते समय टिप्पणियों पर विचार नहीं कर सकती हैं और वे तथ्यों और परिस्थितियों पर मामले पर विचार करेंगे।"

    पीठ ने कहा, "हम श्री वी गिरि को न्याय मित्र नियुक्त करेंगे। उन्हें तीन दिनों के भीतर दस्तावेज उपलब्ध कराने होंगे।"

    उत्तर प्रदेश राज्य ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था, जिसमें COVID-19 महामारी के कारण मौत की आशंका के आधार पर अग्रिम जमानत दी गई थी।

    10 मई को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि वर्तमान महामारी जैसे कारणों से मौत की आशंका अग्रिम जमानत देने का एक वैध आधार है।

    यह आदेश जस्टिस सिद्धार्थ की एकल पीठ ने प्रतीक जैन की अग्रिम जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए पारित किया, जिसमें संभावित गिरफ्तारी के कारण COVID-19 के कारण मौत होने की आशंका जताई गई थी।

    अदालत ने कहा कि राज्य में अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं आरोपियों को सामान्य समय में लागू सामान्य प्रक्रिया के अनुसार गिरफ्तारी के कारण उनके जीवन के को खतरे में डाल सकती हैं। अदालत ने कहा कि असाधारण समय के लिए असाधारण उपचार की आवश्यकता होती है और कानून की भी इसी तरह व्याख्या की जानी चाहिए।

    जस्टिस सिद्धार्थ ने कहा कि अग्रिम जमानत देने के लिए स्थापित मानदंड जैसे आरोप की प्रकृति और गंभीरता, आवेदक की आपराधिक पृष्ठभूमि, न्याय से भागने की आशंका और यह आरोप कि आवेदक को गिरफ्तारी के बाद घायल और अपमानित किया जा सकता है, नोवेल कोरोनावायरस की दूसरी लहर के कारण अपना महत्व खो चुके हैं।

    जज ने कहा, "जब आरोपी को मौत की आशंका से बचाया जाएगा, तभी उसकी गिरफ्तारी की आशंका पैदा होगी। भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 देश के प्रत्येक नागरिक के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रदान करता है। जीवन की सुरक्षा एक नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा से महत्वपूर्ण है। जब तक जीवन के अधिकार की रक्षा नहीं की जाती है, तब तक व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का कोई मतलब नहीं होगा।"

    अदालत ने कहा कि यदि आरोपी को गिरफ्तार किया जाता है और बाद में हिरासत में लेने, मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने, जमानत देने या अस्वीकार करने या जेल में कैद करने आदि की प्रक्रियाओं के अधीन किया जाता है, तो निश्चित रूप से उसके जीवन की आशंका पैदा होगी।

    "सीआरपीसी या किसी विशेष अधिनियम के तहत प्रदान की गई प्रक्रियाओं के अनुपालन के दौरान, एक आरोपी निश्चित रूप से कई व्यक्तियों के संपर्क में आएगा। उसे पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जाएगा, लॉक-अप में बंद किया जाएगा, मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाएगा और यदि उसकी जमानत हो जाएगी हाईकोर्ट से जमानत मिलने तक उसे अनिश्चित काल के लिए जेल भेजा जाएगा।

    आरोपी कोरोना वायरस के घातक संक्रमण से पीड़ित हो सकता है, या पुलिस कर्मी, जिसने उसे गिरफ्तार किया है, उसे लॉक-अप में रखा है, उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया और फिर उसे जेल ले गया, वह भी संक्रमित हो सकता है। जेल में भी बड़ी संख्या में कैदी संक्रमित पाए गए हैं। जेलों में बंद व्यक्तियों का कोई उचित परीक्षण, उपचार और देखभाल नहीं है।"

    इसने इस बात पर जोर दिया कि जब आरोपी जीवित होगा तभी उसे गिरफ्तारी, जमानत और मुकदमे की सामान्य प्रक्रिया के अधीन किया जाएगा।

    कोर्ट ने कहा, "यह स्पष्ट है कि जीवन का अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से अधिक कीमती और पवित्र है, जिसे न्यायालय द्वारा किसी अभियुक्त को अग्रिम जमानत देकर संरक्षित करने की मांग की गई है। यदि जीवन के अधिकार की रक्षा और अनुमति नहीं है तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, भले ही न्यायालय द्वारा संरक्षित हो, का कोई फायदा नहीं होगा। यदि किसी अभियुक्त की मृत्यु उसके नियंत्रण से परे कारणों से होती है, जब उसे न्यायालय द्वारा मृत्यु से बचाया जा सकता था, उसे अग्रिम जमानत देना या अस्वीकार करना व्यर्थता की कवायद होगी।"

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