डॉग माफिया टिप्पणी मामला: सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट की अवमानना सज़ा रद्द की

Amir Ahmad

10 Dec 2025 12:44 PM IST

  • डॉग माफिया टिप्पणी मामला: सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट की अवमानना सज़ा रद्द की

    सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा महिला को अदालत की अवमानना के मामले में सुनाई गई एक सप्ताह की साधारण कारावास की सज़ा रद्द की।

    बता दें, यह सज़ा महिला द्वारा सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट/उनके न्यायाधीशों के खिलाफ डॉग माफिया शब्द इस्तेमाल करने को लेकर दी गई थी।

    जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता ने शुरू से ही अपने आचरण पर वास्तविक पछतावा दिखाया, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अदालत ने इसी आधार पर हाईकोर्ट के आदेश को सज़ा के हिस्से तक निरस्त कर दिया।

    पीठ ने यह भी कहा कि बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा अपने फैसले में राजेन्द्र सैल बनाम एम.पी. हाईकोर्ट बार एसोसिएशन और डॉ. डी.सी. सक्सेना बनाम भारत के मुख्य न्यायाधीश मामलों पर भरोसा करना उपयुक्त नहीं था।

    यह फैसला बॉम्बे हाईकोर्ट के उस आदेश के खिलाफ दायर याचिका पर सुनाया गया, जिसमें महिला को आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराते हुए एक सप्ताह की जेल और 2,000 रुपये जुर्माने की सज़ा दी गई। मई में सुप्रीम कोर्ट पहले ही इस आदेश पर रोक लगा चुका था।

    मामला नवी मुंबई स्थित एक हाउसिंग सोसायटी और स्ट्रे डॉग फीडर्स के बीच चल रहे विवाद से जुड़ा है। आरोप है कि सोसायटी की निवासी इस महिला ने एक पत्र प्रसारित किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट/उनके जजों को लेकर आपत्तिजनक और अपमानजनक टिप्पणियां की गई थीं।

    पत्र उस समय जारी हुआ, जब हाईकोर्ट ने एक सोसायटी निवासी की घरेलू सहायिका को परिसर में प्रवेश से रोकने पर हस्तक्षेप करते हुए आदेश दिया था, क्योंकि वह महिला आवारा कुत्तों को खाना खिलाती थी।

    पत्र में देश में डॉग माफिया के सक्रिय होने और ऐसे कथित जजों की सूची होने की बात लिखी गई, जो कथित तौर पर डॉग फीडर्स के विचारों से सहमत बताए गए।

    हाईकोर्ट ने महिला को दोषी ठहराते हुए कहा कि माफ़ीनामा महज़ मगरमच्छ के आँसू है और उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि यह शिक्षा प्राप्त व्यक्ति से अपेक्षित आचरण नहीं है और उसकी टिप्पणी जानबूझकर न्यायपालिका को बदनाम करने तथा न्याय व्यवस्था में जनता का भरोसा डगमगाने के उद्देश्य से की गई प्रतीत होती है।

    हाईकोर्ट के अनुसार, महिला का पत्र न्यायालयों या उनके आदेशों की उचित आलोचना की श्रेणी में नहीं आता, बल्कि यह अदालतों और जजों पर दुर्भावनापूर्ण आरोप लगाने का सुनियोजित प्रयास था।

    हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने मामले पर विचार करते हुए पाया कि महिला ने आरंभ से ही वास्तविक पश्चाताप व्यक्त किया था। इसी को ध्यान में रखते हुए पीठ ने हाईकोर्ट के आदेश को सज़ा तक सीमित रूप से रद्द कर दिया और महिला को जेल भेजने के निर्देश को समाप्त कर दिया।

    इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया कि यद्यपि न्यायपालिका की गरिमा बनाए रखना आवश्यक है, लेकिन जहां सच्चा पछतावा दिखाई देता है वहां सज़ा के प्रश्न पर संतुलित दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।

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