"अदालतों पर पड़ रहे बोझ की कल्पना करें": सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम को चुनौती देने के लिए कई मामले दायर करने को अस्वीकार किया

Shahadat

23 Sep 2022 6:59 AM GMT

  • अदालतों पर पड़ रहे बोझ की कल्पना करें: सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम को चुनौती देने के लिए कई मामले दायर करने को अस्वीकार किया

    चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) यू.यू. ललित, जस्टिस रवींद्र भट और जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने कार्यवाही की बहुलता से बचने के लिए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के प्रावधानों को संविधान का उल्लंघन घोषित करने की मांग वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया।

    जस्टिस भट ने यह देखते हुए कि अखबार में कुछ पढ़कर पक्षकार अदालत की ओर भाग रहे हैं, टिप्पणी की,

    "अदालतों पर पड़ रहे भार की कल्पना कीजिए। दायर की गई प्रत्येक रिट याचिका एक नई सूची है।"

    बेंच ने शुरुआत में पूछा कि एक ही मामला बार-बार क्यों आ रहा है।

    याचिकाकर्ता की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट सोनिया माथुर ने कहा कि वर्तमान मामले में पक्ष अलग-अलग हैं।

    सीजेआई ललित ने इस पर टिप्पणी की,

    "इससे कार्यवाही की बहुलता हो रही है। इसे वापस लें और अन्य लंबित मामले में इसे जोड़ने की मांग करें।"

    तद्नुसार, लंबित मामलों में अभियोग की मांग करने की स्वतंत्रता के साथ मामला वापस ले लिया गया।

    याचिका में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 की धारा 2 (सी) के तहत प्रावधानों को अनुच्छेद 14, 15, 21, 29 और 30 के साथ-साथ धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के उल्लंघन और अल्ट्रा वायर्स के रूप में घोषित करने की प्रार्थना की गई। याचिका के अनुसार, लद्दाख में हिंदुओं की आबादी महज 1%, मिजोरम में 2.75 फीसदी, लक्षद्वीप में 2.77 फीसदी, कश्मीर में 4 फीसदी, नागालैंड में 8.74 फीसदी, मेघालय में 11.52 फीसदी, अरुणाचल प्रदेश में 29 फीसदी, पंजाब और मणिपुर में 41.29% फीसदी है। हालांकि, केंद्र सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम की धारा 2(सी) के तहत 'अल्पसंख्यक' घोषित नहीं किया है।

    इस प्रकार, याचिका के अनुसार, हिंदुओं को अनुच्छेद 29-30 के तहत संरक्षित नहीं किया गया और वे अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान की स्थापना या प्रशासन नहीं कर सकते।

    दूसरी ओर, याचिका में कहा गया,

    "केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यकों के राष्ट्रीय आयोग अधिनियम के एस 2 (सी) के तहत मनमाने ढंग से मुसलमानों को अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दी, इस तथ्य के बावजूद कि मुसलमानों की आबादी लक्षद्वीप में 96.58 प्रतिशत, कश्मीर में 95 प्रतिशत और लद्दाख में 46 प्रतिशत है। ईसाई, जो नागालैंड में आबादी का 88.10 प्रतिशत, मिजोरम में 87.16 प्रतिशत और मेघालय में 74.59 प्रतिशत हैं, उनको भी केंद्र सरकार द्वारा अल्पसंख्यक के रूप में वर्गीकृत किया गया। इससे उन्हें अपने स्वयं के शैक्षणिक संस्थान बनाने और संचालित करने की अनुमति मिलती है। इसी तरह पंजाब में सिखों की आबादी 57.69 प्रतिशत हैऔर लद्दाख में बौद्ध 50 प्रतिशत हैं। सिख और बौद्ध भी शैक्षणिक संस्थानों का निर्माण और शासन कर सकते हैं, जबकि बहावाद और यहूदी धर्म में क्रमशः जनसंख्या का केवल 0.1 प्रतिशत और 0.2 प्रतिशत है।"

    याचिका में आगे कहा गया,

    "केंद्र सरकार अल्पसंख्यक अधिनियम के राष्ट्रीय आयोग की धारा 2 (सी) द्वारा प्रदत्त बेलगाम शक्तियों का प्रयोग करते हुए मनमाने ढंग से पांच समुदायों अर्थात् मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसियों को "अल्पसंख्यक" को परिभाषित किए बिना या राज्य स्तर पर पहचान के लिए दिशा-निर्देश तैयार किए बिना "अल्पसंख्यक समुदायों" के रूप में अधिसूचना दिनांक 23.10.1993 के तहत अधिसूचित किया। 2014 में जैनों को छठे अल्पसंख्यक के रूप में सूची में जोड़ा गया, इस तथ्य के बावजूद कि बाल पाटिल में इस माननीय न्यायालय की तीन-न्यायाधीश पीठ केस ने उन्हें "अल्पसंख्यक" का दर्जा देने से इनकार कर दिया था।

    केस टाइटल: चंद्रशेखर बनाम यूओआई डब्ल्यू.पी.(सी) नंबर 465/2022

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