सुप्रीम कोर्ट ने महिला को डोनर एग के जरिए सरोगेसी की अनुमति दे दी, नए संशोधन के बावजूद इसकी अनुमति नहीं दी गई

Shahadat

20 Oct 2023 12:34 PM IST

  • सुप्रीम कोर्ट ने महिला को डोनर एग के जरिए सरोगेसी की अनुमति दे दी, नए संशोधन के बावजूद इसकी अनुमति नहीं दी गई

    सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (18.10.2023) को मेयर-रोकिटांस्की-कुस्टर-हॉसर (एमआरकेएच) सिंड्रोम से पीड़ित महिला को डोनर अंडे का उपयोग करके सरोगेसी से गुजरने की अनुमति दी। एमआरकेएच सिंड्रोम ऐसी स्थिति है, जो उसे अंडे पैदा करने से रोकती है। सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि, याचिकाकर्ता के संबंध में सरोगेसी नियमों में हालिया संशोधन के संचालन पर रोक लगाकर ऐसा किया। वहीं, मार्च 2023 में पेश किया गया संशोधन, इच्छुक जोड़े की गर्भकालीन सरोगेसी के लिए दाता अंडे के उपयोग पर प्रतिबंध लगाता है।

    सरोगेसी नियमों के नियम 7 के सपठित फॉर्म 2 में पेश किया गया नया संशोधन निर्दिष्ट करता है कि दाता अंडे का उपयोग इच्छुक जोड़े की गर्भकालीन सरोगेसी के लिए नहीं किया जा सकता। पिछले हफ्ते कोर्ट ने कहा था कि इस बात पर जोर देना कि गर्भकालीन सरोगेसी के लिए इच्छुक जोड़े के केवल अंडे और शुक्राणु का उपयोग किया जा सकता है, प्रथम दृष्टया सरोगेसी (विनियमन) नियम, 2022 के नियम 14 (ए) के खिलाफ है।

    जस्टिस बी वी नागरत्ना और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ मेयर-रोकितांस्की-कुस्टर-हॉसर (एमआरकेएच) नामक जन्मजात विकार से पीड़ित विवाहित महिलाओं द्वारा दायर याचिकाओं पर विचार कर रही है, जो गर्भकालीन सरोगेसी के माध्यम से जैविक मातृत्व प्राप्त करना चाहती हैं। एमआरकेएच सिंड्रोम पूर्ण गर्भाशय कारक बांझपन का कारण बनता है और ऐसी स्थिति से पीड़ित व्यक्ति के लिए जैविक मातृत्व प्राप्त करने का एकमात्र तरीका गर्भकालीन सरोगेसी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि याचिकाकर्ता अपनी चिकित्सीय स्थिति के कारण अंडे का उत्पादन करने में सक्षम नहीं हैं।

    याचिकाकर्ताओं ने सरोगेसी नियमों के नियम 7 के तहत फॉर्म 2 में किए गए दिनांक 14.03.2023 के संशोधन को चुनौती दी थी, जो सरोगेट मां की सहमति और सरोगेसी के लिए समझौते का फॉर्म है।

    हाल के संशोधन में यह सुनिश्चित करने के लिए फॉर्म 2 में पैराग्राफ 1 (डी) को प्रतिस्थापित किया गया कि सरोगेसी से गुजरने वाले जोड़े के पास दाता युग्मक नहीं हो सकते और नर और मादा दोनों युग्मक इच्छुक जोड़े से आने चाहिए। मार्च 2023 में शुरू किए गए प्रतिस्थापन से पहले फॉर्म 2 के पैराग्राफ 1 (डी) में निर्दिष्ट किया गया कि सरोगेसी उपचार के तरीकों में पति के शुक्राणु द्वारा दाता अंडे का निषेचन शामिल हो सकता है। हालांकि, सरोगेसी चुनने वाले जोड़ों के लिए दाता युग्मकों को अनुमति नहीं देने के लिए इसे बदल दिया गया।

    संशोधन में यह भी निर्दिष्ट किया गया कि एकल महिलाओं (विधवा/तलाकशुदा) को सरोगेसी प्रक्रिया का लाभ उठाने के लिए स्वयं-अंडे और दाता शुक्राणु का उपयोग करना होगा।

    याचिकाकर्ताओं ने इसे यह कहते हुए चुनौती दी कि यह सरोगेसी नियमों के नियम 14(ए) के खिलाफ है। नियम 14(ए) के अनुसार, यदि कोई महिला गर्भाशय नहीं है या असामान्य गर्भाशय है तो वह गर्भावधि सरोगेसी का विकल्प चुन सकती है।

    कोर्ट ने पिछली सुनवाई में कहा था,

    “फॉर्म 2 में पैराग्राफ 1 (डी) को दी गई चुनौती के संबंध में अर्थात् ऊपर बताए गए प्रतिस्थापन के संबंध में हम पाते हैं कि यह ऐसा मामला है, जहां उक्त प्रतिस्थापन नियम 14(ए) में सरोगेसी नियमों के बारे में निर्धारित के विपरीत है।''

    न्यायालय का विचार था कि मामले पर निर्णय लेने से पहले उसे उचित मेडिकल राय प्राप्त करनी चाहिए। इस प्रकार संबंधित जिला मेडिकल बोर्ड को यह प्रमाणित करने का निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता एमआरकेएच सिंड्रोम के कारण ओसाइट्स (अंडे) का उत्पादन करने की स्थिति में हैं या नहीं।

    तदनुसार, याचिकाकर्ताओं में से एक की मेडिकल रिपोर्ट मंगलवार को अदालत को उपलब्ध कराई गई। उक्त रिपोर्ट को ध्यान से देखते हुए न्यायालय का विचार था कि चूंकि याचिकाकर्ता oocytes (अंडे) का उत्पादन करने में सक्षम नहीं है, इसलिए उसके लिए माता-पिता बनने का एकमात्र तरीका दाता अंडे का उपयोग करना होगा। न्यायालय ने यह भी देखा कि उक्त जोड़े ने संशोधन से बहुत पहले सरोगेसी के माध्यम से माता-पिता बनने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी।

    कोर्ट ने कहा,

    "..यहां याचिकाकर्ता ने सरोगेसी के माध्यम से माता-पिता बनने की प्रक्रिया 14.03.2023 से लागू होने वाले संशोधन से बहुत पहले ही शुरू कर दी थी। इसलिए हम पाते हैं कि जो संशोधन इच्छुक जोड़े को सरोगेसी के माध्यम से माता-पिता बनने से रोक रहा है, वह प्रथम दृष्टया अधिनियम के मुख्य प्रावधानों के तहत है। इसलिए जो इरादा है, उसके विपरीत है।

    कोर्ट ने अपने आदेश में कहा,

    ऐसी परिस्थितियों में जहां तक याचिकाकर्ता का संबंध है, सरोगेसी नियमों के नियम 7 के साथ पढ़े गए फॉर्म 2 के खंड 1 (डी) में संशोधन पर रोक लगा दी गई है। यह देखने की जरूरत नहीं है कि यदि याचिकाकर्ता अधिनियम के तहत उल्लिखित अन्य सभी शर्तों को पूरा करती है तो वह सरोगेसी के माध्यम से माता-पिता बनने की हकदार है।''

    कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संशोधन पर केवल याचिकाकर्ता के संबंध में रोक लगाई गई है और बड़ा मुद्दा अभी भी कोर्ट के विचाराधीन है।

    तर्क-वितर्क

    सीनियर एडवोकेट संजय जैन याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए, जिन्हें राहत दी गई। इसके साथ ही एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी प्रतिवादियों की ओर से पेश हुईं।

    एएसजी भाटी ने दलील दी कि सरोगेसी का कोई मौलिक अधिकार नहीं है। उन्होंने कोर्ट को बताया कि सरोगेसी को काफी हद तक विनियमित किया जाता है।

    उन्होंने कहा,

    पूरा उद्देश्य तीन चीजों में से है, शुक्राणु, अंडाणु और गर्भाशय। मगर दो इच्छुक जोड़े के होने चाहिए।

    जस्टिस नागरत्ना ने कहा,

    "लेकिन यहां अगर रिपोर्ट कहती है कि उसके पास गर्भाशय नहीं है और वह अंडे पैदा नहीं कर सकती है तो आप नियम 14 (ए) का अर्थ कैसे देते हैं? यहां, याचिकाकर्ता इसे पूरा करती है। इस शर्त को रखने के बाद आपको इसे प्रभावी करना होगा। यहां असंभवता का सिद्धांत उत्पन्न होगा।"

    सीनियर एडवोकेट जैन ने तर्क दिया कि संशोधन को संभावित रूप से पढ़ा जाना चाहिए और इसका पूर्वव्यापी प्रभाव नहीं होना चाहिए। उन्होंने अदालत को बताया कि याचिकाकर्ता के लिए प्रक्रिया संशोधन पेश होने से पहले फरवरी में शुरू हुई थी। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि याचिकाकर्ता नियम 14 के तहत आवश्यकता को पूरा करता है, जो स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि कोई महिला 'दिव्यांगता' के कारण गर्भाशय की अनुपस्थिति या बार-बार असफल गर्भधारण, या किसी बीमारी के कारण माता-पिता बनने में सक्षम नहीं है। उसके लिए गर्भावस्था को व्यवहार्य बनाए रखना असंभव हो जाता है तो वह सरोगेसी का विकल्प चुन सकती है।

    एएसजी ने तर्क दिया कि विधायिका की मंशा स्पष्ट है कि बच्चे को आनुवंशिक रूप से इच्छुक जोड़े से संबंधित होना चाहिए। उन्होंने विधायिका द्वारा भरोसा किए गए विशेषज्ञ राय के तर्क को भी पढ़ा कि सरोगेसी के लिए युग्मकों के दान की अनुमति क्यों नहीं दी जानी चाहिए।

    उन्होंने कहा,

    "इसका कारण अजन्मे बच्चे के हित को बनाए रखना है और यह देखना है कि माता-पिता सरोगेसी द्वारा बच्चे के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। यदि बच्चा जैविक रूप से संबंधित नहीं है तो संभावना होगी कि माता-पिता के साथ बच्चे की मजबूत भावनात्मक बंधन नहीं है। बच्चे को ऐसे माता-पिता द्वारा अस्वीकार या उपेक्षित किया जा सकता है, जो जैविक रूप से संबंधित नहीं हैं। स्थिति हानिकारक हो सकती है, खासकर यदि युग्मक दान करने वाले माता-पिता जीवित नहीं रहते हैं या युगल अलग हो जाते हैं। इसके अलावा बड़े होने के बाद या बड़े होने के दौरान, यदि बच्चे को कुछ गंभीर बीमारी हो जाती है, जो कभी-कभी आनुवंशिक भी होती है, माता-पिता जो जैविक रूप से संबंधित नहीं हैं, वे बच्चे से अलग महसूस कर सकते हैं और बच्चे को उचित देखभाल नहीं मिल सकती है।''

    जस्टिस नागरत्ना ने जवाब दिया,

    "लेकिन फिर आप गोद लेने के मामले में देख सकते हैं, इसमें कोई आनुवंशिक संबंध नहीं है। यहां कम से कम महिला को संतुष्टि होगी कि मेरी कमी या दिव्यांगता या जो भी हो, उसके बावजूद मेरे पति का योगदान है।"

    केस टाइटल: अरुण मुथुवेल बनाम भारत संघ, रिट याचिका (सिविल) नंबर 756/2022 और संबंधित मामले।

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