एनडीपीएस कानून के कड़े प्रावधान तार्किक संदेह से परे प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने की जरूरत समाप्त नहीं करते : सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

7 Aug 2020 10:15 AM IST

  • एनडीपीएस कानून के कड़े प्रावधान तार्किक संदेह से परे प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने की जरूरत समाप्त नहीं करते : सुप्रीम कोर्ट

    “अभियोग साबित करने के दायित्व के पलट जाने (अर्थात रिवर्स बर्डन ऑफ प्रूफ) के साथ अनुमानित प्रावधान संभावनाओं की प्रचुरता के आधार पर दोषसिद्धि को मंजूरी नहीं देते हैं।”

    सुप्रीम कोर्ट ने एक अभियुक्त को बरी करते हुए कहा कि नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्सटांसेज (एनडीपीएस) कानून के कड़े प्रावधान अभियोजन पक्ष को तार्किक संदेह से परे प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने के दायित्व से मुक्त नहीं करते हैं।

    विशेष अदालत ने 48 किलोग्राम 200 ग्राम गांजा बरामद किये जाने के कारण अभियुक्त गंगाधर को एनडीपीएस की धारा- 8(सी) [धारा 20 (बी)(ii)(सी) के साथ सहपठित] के तहत दोषी ठहराया था।

    उसे 10 वर्ष की सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी थी। इस सजा के खिलाफ उसकी अपील भी मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी

    न्यायमूर्ति रोहिंगटन फली नरीमन और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की खंडपीठ ने अपील पर विचार करते हुए कहा कि संबंधित अधिनियम की धारा 35 एवं 54 के तहत आरोपी के खिलाफ अभियोग को सही मान लेना निरस्त करने योग्य है।

    बेंच ने कहा :

    "यह अभियोजन पक्ष को सभी तार्किक संदेहों से परे आरोप साबित करने के दायित्व से मुक्त नहीं करता। अभियोग साबित करने के दायित्व के पलट जाने (अर्थात रिवर्स बर्डन ऑफ प्रूफ) के साथ अनुमानित प्रावधान संभावनाओं की प्रचुरता के आधार पर दोषसिद्धि को मंजूरी नहीं देते हैं। धारा 35(2) कहती है कि कोई तथ्य तभी प्रमाणित कहा जा सकता है जब इसे तार्किक संदेह से परे स्थापित किया जाता है, न कि संभावनाओं की प्रचुरता के आधार पर। 'नूर आगा बनाम पंजाब सरकार (2008) 16 एससीसी 417' मामले में इस बात पर विचार किया गया था कि संबंधित एनडीपीसी अधिनियम के तहत आरोपी के निष्पक्ष ट्रायल के अधिकार को खत्म नहीं किया जा सकता।"

    नूर आगा मामले में की गयी टिप्पणियों का जिक्र करते हुए पीठ ने आगे कहा :

    "एनडीपीएस एक्ट के धारा 37 जैसे कड़े प्रावधान, 10 वर्ष की न्यूनतम सजा और सजा में कटौती के लिए किसी प्रावधान का न होना जांच के बाद तार्किक संदेह से परे अभियोजन पक्ष को प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने के दायित्व से सिर्फ इसलिए मुक्त नहीं कर देता कि 'बर्डन ऑफ प्रूफ' का दायित्व अभियुक्त पर चला गया है, बल्कि सजा की गम्भीरता और प्रावधानों की कठोरता अभियोजन द्वारा आधारभूत तथ्यों को स्थापित करने वाले साक्ष्यों की विस्तृत जांच की मांग करेंगे।"

    कोर्ट ने कहा कि अभियुक्त को 2008 की मतदाता सूची के आधार पर उस मकान का मालिक बताया गया था जहां से गांजा बरामद किया गया था, जबकि उसकी इस दलील को ठुकरा दिया गया था कि उसने मामले के सह-अभियुक्त को मकान बेच दिया था। ट्रायल कोर्ट ने सह-अभियुक्त को बरी कर दिया था। बेंच ने रिकॉर्ड पर रखे गये साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए कहा :

    पुलिस जांच काफी बेढंगी, लापरवाह और घटिया थी। अपीलकर्ता को निष्पक्ष जांच के अधिकार से वंचित कर दिया गया है, जबकि संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक अभियुक्त को निष्पक्ष ट्रायल की गारंटी सुनिश्चित करता है। ट्रायल कोर्ट द्वारा साक्ष्य पर किया गया विचार और हाईकोर्ट द्वारा उसके निर्णय को मंजूरी किसी दुराग्रह से प्रेरित निष्कर्ष तक पहुंचना है, जिसके लिए कोई साक्ष्य नहीं था। दो-दो अदालतों द्वारा साक्ष्यों का घोर अनुचित आकलन और पुलिस की बेहद खराब जांच के कारण अपीलकर्ता को उस अपराध के लिए जेल में कैद रहना पड़ा, जो उसने कभी किया ही नहीं।

    मुकदमे का ब्योरा

    केस का नाम : गंगाधर उर्फ गंगाराम बनाम मध्य प्रदेश सरकार

    केस नं. : क्रिमिनल अपील नं. 504/2020

    कोरम : न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा

    वकील : एडवोकेट पुनीत जैन एवं एएजी स्वरूपमा चतुर्वेदी

    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहांं क्लिक करेंं



    Next Story