'सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स को ये तय करना होगा कि उनके प्रकाशन हानिकारक या आक्रामक न हों': बॉम्बे एचसी ने यूट्यूबर के खिलाफ दिया आदेश

LiveLaw News Network

17 Jan 2020 4:53 AM GMT

  • सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स को ये तय करना होगा कि उनके प्रकाशन हानिकारक या आक्रामक न हों: बॉम्बे एचसी ने यूट्यूबर के खिलाफ दिया आदेश

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक सोशल मीडिया व्‍लॉगर को अपना व्लॉग 'नीचे उतारने' यानी इंटरनेट से हटाने का अंतरिम आदेश दिया है। कोर्ट ने अपने प्रथम दृष्टया निष्कर्षों पाया है कि व्लॉगर ने एक उत्पाद की लापरवाह और अपमानजनक समीक्षा की थी और उन्हें आगाह किया गया था ऐसी क्षमता वाले व्यक्तियों को सावधान रहना चाहिए कि उनका प्रकाशन दूसरों को नुकसान न पहुंचाएं।

    जस्टिस एसजे काठवाला ने कहा, "एक सोशल मीडिया इंन्फ्लुएंसर जो जिनके पास ऐसे विषयों का ठोस ज्ञान हैं या होने का दावा करता हैं, जिसे वो अपनी ताकत कहते हैं, और उस ज्ञान का इस्‍तेमाल वो लोगों से उन विचारों को मनवाने और अपनाने में करते हैं, जिनका प्रचार वो सोशल मीडिया पर कर रहे होते हैं, उनमें लोगों को प्रभावित करने, उनका दृष्टिकोण और मनःस्थिति बदलवाने का क्षमता होती है।

    उनके दर्शकों की संख्या कम हो या ज्यादा, वो हर उस व्‍यक्ति की जिंदगी को प्रभावित करते हैं, जो उनका कार्यक्रम देखता है। उनकी ये जिम्मेदारी है कि वो जो भी प्रकाशित कर रहे हैं वो हानिकारक या अपमानजनक न हो।"

    कोर्ट ने यह आदेश पैराशूट कोकोनट ऑयल का उत्पादन करने वाली कंपनी द्वारा दायर किए गए एक वाणिज्यिक मुकदमे में दिया, जिसमें यूटूबर अभिजीत भंसाली के वीडियो के खिलाफ अंतरिम निषेधाज्ञा की मांग की गई थी, जिसमें कथित तौर पर उनके उत्पाद के बारे में अपमानजनक टिप्पणी की गई थी।

    दलील

    भंसाली के अनुसार, उन्होंने केवल उत्पाद की गुणवत्ता की ईमानदारी से समीक्षा की थी और उसमें दिए गए बयानों उनके प्रमाणिक विचार थे।

    उन्होंने हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड बनाम गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड एंड अदर्स, 2017 एससीसी ऑनलाइन बॉम 2572 में मामले में दिए फैसले में भरोसा किया और कहा जनता को शिक्षित बनाने के लिए उचित और वास्तविक तथ्यों के साथ चलाया गया कोई भी कैम्‍पेन स्वागतयोग्य है।"

    उन्होंने इस तथ्य का विरोध किया कि किसी ने उनके वीडियो को देखा इसका मतलब यह नहीं था कि उसने वीडियो से प्रभावित होकर वादी के उत्पाद को खरीदने से इनकार कर दिया।

    इसके अलावा, ऐसे किसी भी सबूत के अभाव में कि वादी को वीडियो से कोई नुकसान हुआ है, माल की नापसंदगी का पीड़ा का एक अनिवार्य घटक गायब है। उन्होंने आगे कहा कि यदि असमानता का मामला लागू होता है, तो भी यह उन पर लागू नहीं होगा क्योंकि यह केवल प्रतिद्वंद्वी निर्माताओं / व्यापारियों/ वादी के प्रतियोगियों पर लागू होता है।

    प्रतिवादी अपने बयान को सही ठहराने के लिए कहा कि वादी के उत्पाद के बारे में 'सड़े हुए नारियल की तरह गंध' जैसी टिप्‍पणी अतिशयोक्ति थी और इसका शाब्दिक अर्थ नहीं लिया जाना था।

    टाटा सन्‍स लिमिटेड बनाम ग्रीनपीस इंटरनेशनल एंड अदर्स 2011 SCC Online Del 466 के फैसले पर भरोसा रखा गया।

    उन्होंने अंत में अपने मौलिक अधिकार पर जोर दिया, और श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ में (2015) 5 एससीसी 1 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बतौर दलील पेश किया-

    "केवल चर्चा या किसी विशेष उद्देश्य की वकालत करना, भले ही अनुच्छेद 19 (1 (ए) के केंद्र में अलोकप्रिय हो। यह केवल तभी होता है जब ऐसी चर्चा या वकालत उकसाने के स्तर तक पहुंच जाती है कि अनुच्छेद 19 (2) का उल्लंघन होता है।"

    दूसरी ओर वादी ने दावा किया कि प्रतिवादी द्वारा उसके उत्पाद के संबंध में किए गए दावे और बयान, जो कोई विशेषज्ञ नहीं था, उसकी प्रतिष्ठा पर एक "लक्षित हमला" था और उन बयानों को गलत और निराधार बताया गया।

    उन्होंने दलील दी कि चूंकि प्रतिवादी एक सामान्य उपभोक्ता नहीं था, लेकिन उसने पैसे कमाने के लिए र‌िव्यू वीडियो बनाए, इसलिए उसकी गतिविधियां 'वाणिज्यिक भाषण' थीं और उस सामान की नपसंदगी की पीड़ा लागू होती थी।

    जांच के नतीजे

    अदालत वादी से सहमत थी कि यह ऐसा मामला नहीं था जहां प्रतिवादी अपनी निष्पक्ष राय व्यक्त करते हुए आम जनता के सदस्य के रूप में कार्य कर रहा था, बल्कि उसने अपनी दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिए "व्यावसायिक भाषण" किया।

    कोर्ट ने प्रतिवादी की उस दलील का खंडन किया कि वह भाषण के अपने अधिकार का उपयोग कर रहा था और कहा,

    "जाहिर है, उसने अपनी दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिए ऐसा किया और इसलिए, वह लोकप्रिय व्यक्तियों की उस नवजात श्रेणी में आता है, जिन्हें सोशल मीडिया इन्‍फ्लुएंसर कहा जाता है।"

    कोर्ट ने कहा कि जिस तरह से वीडियो को इंजीनियर किया गया था उससे संकेत मिलता है कि उसमें की गई टिप्पणी ईमानदार नहीं थी। प्रतिवादी ने अपने वीडियो में वादी के उत्पाद की तुलना जैविक नारियल तेल से की थी।

    हालांकि, न तो परीक्षण और न ही लेखों ने प्रतिवादी द्वारा भरोसा किए जाने की मांग की, यह दर्शाता है कि उनके कथन सत्य नहीं थे। अदालत ने माना कि इस तरह के परीक्षण या लेखों के आधार पर कोई भी उचित व्यक्ति यह नहीं मान सकता है कि बयान सच का हैं या कि बयानों के सही होने की संभावना है।

    मामले का विवरण:

    केस टाइटल: मैरिको लिमिटेड बनाम अभिजीत भंसाली

    केस नं : COMIP नंबर 596/2019

    कोरम: जस्टिस एसजे कथावाला

    वकील: सीनियर एडवोकेट वीराग तुल्जापुरकर और एडवोकेट हीरेन कामोद के साथ निषाद नादकर्णी आई/बी खेतान एंड कंपनी (वादियों के लिए) एडवोकेट डॉ अभ‌िनय चंद्रचूड़ आई/बी एन अमीन (प्रतिवादी के लिए)

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